जीवन का उद्देश्य और उसकी प्राप्ति

March 1958

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(श्री जे. पी. सिंहल)

मानव जीवन का उद्देश्य क्या है इस सम्बन्ध में लोगों में प्रायः दो प्रकार के मत दिखलाई पड़ते हैं। एक श्रेणी के लोग कहते हैं कि मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा सुख प्राप्ति की होती है इसलिये वही हमारे जीवन का उद्देश्य है। दूसरे लोग पवित्र और धर्मात्मा होना जीवन का आदर्श समझते हैं। बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि धर्म साधन भी सुख के उद्देश्य से किया जाता है। पर यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं, अनेक लोग ऐसे हैं जो धर्म का पालन आदर्श समझ कर करते हैं और सुख आराम की इच्छा को जान बूझकर त्याग देते हैं। इससे उनके चरित्र में एक प्रकार की महानता और दृढ़ता का बोध होता है, उनमें मनुष्यत्व की मात्रा विशेष प्रतीत होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी प्राणी सुख की इच्छा करते है। परन्तु पशु-पक्षियों से मनुष्य की कल्पना शक्ति बहुत विकसित है। जब तक कल्पना शक्ति विकसित नहीं थी तब तक मनुष्य का शरीर पाकर भी वह पशु के समान ही था परन्तु जैसे-जैसे कल्पना शक्ति बढ़ती गई, वैसे-वैसे मनुष्यत्व की भी वृद्धि होती चली गई है। संसार की अनेक सामग्री, बड़े-बड़े नगर इत्यादि सभी मनुष्य की कल्पना शक्ति के चमत्कार हैं।

परन्तु जिस प्रकार कल्पना शक्ति मनुष्य के सुख का साधन बन सकती है, उसी प्रकार अनेक दुःखों का कारण भी हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य दूसरों को दुख देने के नये-नये साधन और विधियों की कल्पना कर सकता है और करता भी है। यदि पशु किसी पर क्रोधित होता है तो अपने स्वाभाविक ढंग से उस पर आक्रमण करता है परन्तु यदि मनुष्य किसी पर क्रोध करेगा तो उसे मारने और दुःख देने की नई-नई विधियाँ निकालेगा, छिपकर पीछे से मारेगा अथवा किसी प्रकार दारुण दुःख देगा। पहले जमाने में दोषी मनुष्यों और अपने विरोधियों को मारने की बड़ी-बड़ी क्रूर और अमानुषिक विधियाँ प्रचलित थीं, जैसे कि अनेक लोग गढ़वाकर, कुत्तों द्वारा या पत्थरों से मार-मार कर मार डाले जाते थे। गर्म तेल के कड़ाह में डाल देना या शेर आदि जानवरों से फड़वा डालना ही प्रचलित था और ऐसे भी मनुष्य थे, जो दूसरे लोगों को इन क्रूरतापूर्ण दण्डों द्वारा मरते देखकर हंसते थे और मनोरंजन करते थे।

मनुष्य कल्पना शक्ति की सहायता से केवल दूसरों को ही दुःख नहीं देता वरन् अपने लिये भी दुःख उत्पन्न कर लेता है। उदाहरणार्थ खाना खाने की साधारण क्रिया को ही लीजिए। पशु भूख लगने पर ही खाता है और उसी पदार्थ को जो उसके लिए स्वाभाविक होता है। परन्तु मनुष्य अनगिनत प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थों की कल्पना करता रहता है। जब उसकी भूख शान्त हो गई तब भी किसी वस्तु के स्वाद की कल्पना करके मुख में पानी भर लाता है। और आवश्यकता से अधिक खाकर अजीर्ण रोग से ग्रसित हो जाता हैं। पशु अधिकतर निरोग रहते हैं और मनुष्य बहुधा रोगी होते है, इसका मुख्य कारण यह स्वादिष्ट भोजनों की लालसा ही है।

जिस प्रकार शरीर के रोग हैं उसी प्रकार मन के रोग भी हैं और वे मनुष्य की कल्पना से ही जन्म लेते हैं। जब मन में क्रोध होता है तो किसी से बदला लेने की इच्छा होती है। ईर्ष्या होती है तो मन अशान्त हो जाता है और मन दुखी रहता है। अनेक लोग दूसरों को झूठ-मूठ शत्रु अथवा प्रतियोगी समझ कर दुख पाते हैं। जिस मनुष्य ने अपने जीवन में अनेक अत्याचार किये हैं वह भी मरने के समय उनकी स्मृति से अत्यन्त दुःख को प्राप्त होता है। चुगलखोर के मन में एक प्रकार की खुजलाहट बनी रहती है जो उसके मन को सदैव अशान्त रखती है।

अस्तु मनुष्य की इस कल्पना शक्ति को नियन्त्रित करना अपने और दूसरों के हित के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अधिकाँश मनुष्य अपने शरीर के लिए सुख चाहते हैं। उनकी कल्पना शक्ति सदैव नई-नई इच्छाओं की सृष्टि करती रहती है। उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए नये-नये रास्ते निकालती रहती है। उन इच्छाओं को पूरा करने में दूसरों को दुःख होगा, इसकी उसे चिन्ता नहीं होती। यह सब उसकी स्वाभाविक क्रिया है। यदि इस क्रिया को अबाधित रूप से चलने दिया जाय तो मनुष्य अत्यन्त क्रूर, स्वार्थी, चालाक और धोखा देने वाला हो जाय। इस प्रकार वह अन्य मनुष्यों के लिए असीम दुखों का कारण हो सकता है।

अस्तु, अपने और पराये सुख के लिए यह अनिवार्य है कि हमारा मन शारीरिक सुख के लिए प्रयत्न करने में भी शाँत और सधा हुआ रहे। मन के सुखी होने से शरीर का सुख भी दुगुना हो जाता है। इस प्रकार कल्पना शक्ति को नियंत्रित करने और मन को शान्त और सधा हुआ रखने वाले गुण ही सद्गुण समझने चाहिएं। यह सब देशों, सब समयों और सब मनुष्यों के लिए आवश्यक हैं इसीलिए अपरिवर्तनशील हैं। जो लोग सुख की प्राप्ति को ही जीवन का उद्देश्य मानते हैं उनके लिए भी ये आवश्यक हैं और जो पवित्रता तथा महानता के इच्छुक हैं उनके लिए भी आवश्यक हैं। इन सद्गुणों द्वारा ही मनुष्य का मन कल्पना शक्ति के चक्कर में फंसने और पाशविकता से नीचे गिरने से बचा रहता है। मन की गति को इस प्रकार रोके रखने की शक्ति ही मनुष्य को महान बना सकती है। पशु का मन तो उसकी शक्तिहीनता के कारण रुका रहता है। परन्तु धार्मिक मनुष्य का मन अपनी सद् इच्छा द्वारा रुकता है और वह भी जब कि उसे कल्पना शक्ति जैसी प्रबल शक्ति को रोकना पड़ता है। यही उसकी महानता है। जो बिजली वस्तुओं को नष्ट करने की शक्ति रखती है, वहीं नियंत्रित होकर मनुष्य को सुख देने वाली हो जाती है। इसी प्रकार महान पुरुष की कल्पनाशक्ति किसी को दुःख देने के बदले संसार के हित में लग जाती है। ऐसे मनुष्य का मन सुख व शान्ति से भरा रहता है और दुष्कल्पना, अनुचित इच्छा, चिन्ता व मानसिक रोगों से पवित्र रहता है। इसलिये धार्मिक पुरुष पवित्र व महान होता है और सुखी भी।

यह भी स्पष्ट ही है कि जो सद्गुण मनुष्य के सच्चे सुख, मनुष्यत्व की महानता, पवित्रता आदि के कारण होते हैं वही समाज के सुख और मुक्ति के भी साधन होते हैं। झूठ बोलने वाले मनुष्य से समाज में सुख व शान्ति की वृद्धि नहीं होती। झूठा लोगों को धोखा देकर उनके धन का, उनके सुख का अपहरण करता है। इसलिये वह समाज में दुःख फैलाता है। उस पर समाज के लोग भरोसा नहीं कर सकते। समाज में जितने सत्यवादी लोग अधिक होंगे उतना ही समाज अधिक सुखी होगा, क्योंकि धोखे से अनिष्ट होने की सम्भावना न होगी। जो समाज के नियम होंगे उनके पालन करने का भरोसा सत्यवादी पर ही किया जा सकता है।

मुक्ति प्राप्त करने के लिए भी इन सद्गुणों का पालन आवश्यक है। वही जीवात्मा ईश्वर में लीन हो सकता है, अथवा ईश्वर के सम्मुख रह सकता है जिसने ईश्वर के समान गुणों का पालन करके पवित्रता प्राप्त कर ली हो। सत्य के पालन से ही पवित्रता और दिव्यता प्राप्त होगी जो मुक्ति का अधिकारी बना दे। इस दृष्टि से जीवनोद्देश्य चाहे सुख प्राप्त करना समझा जाय, चाहे मुक्ति प्राप्त करना सबके लिए सद्गुणों और सदाचार का पालन अनिवार्य है।


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