नारी का रति सा यौवन, नर शशि जैसा सुन्दर था। पल भर पीछे एक वृद्ध थी, झुका एक का सर था॥
उस दिन के धन-पति को देखा, भिक्षा पात्र सम्हाले। नीरव मरघट में सोते, देखे सिंहासन वाले॥
चलाचली का मेला था, यह गया और वह गया। सुख का स्वप्न देखने वाला लुढ़क पड़ा चिल्लाया।
जो कहते थे हम स्वामी हैं, धनी गुणी बलशाली। वे अर्थी पर लदे हुए थे, कर थे उनके खाली।
यह सब देखा देख रहा हूँ, फिर भी आंखें मीची। विष के फल जिन पर आते हैं, वही लतायें सींची॥
जान रहा हूँ जान, जान कर भी, अनजान बना हूँ। गंगा के तट पर रहता हूँ फिर भी कीच सना हूँ॥
देखो, मुझे देखने वालो, मैं कैसा बौराया। जाग रहा हूँ, पर सोने वाले का स्वाँग बनाया॥