महाभारत में यज्ञ

January 1956

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(श्री सत्यव्रत शास्त्री एम. ए. देहली)

यज्ञ करने से क्या लाभ हैं इस विषय को लेकर महाभारत के चतुर्दश पर्व आश्वमेविक पर्व में बहुत से सुन्दर श्लोक उपलब्ध होते हैं। महाभारत के युद्ध की समाप्ति पर सन्त युधिष्ठिर की किस प्रकार मन शान्ति मिल सकती है इस प्रसंग में इनका वर्णन आया है। युधिष्ठिर के मन में भयंकर अशान्ति है। कुछ वृद्ध भीष्म पितामह को एवं द्रोण आदि गुरुजनों को मार कर कैसे मेरा निस्तार हो सकता है यह चिन्ता उसे खाये डालती है। वह समझता है कि उसने भयंकर पाप किया है। उस पाप से छुटकारा उसे किस प्रकार मिले इसी उधेड़बुन में उसका मन लगा हुआ है। उसकी इस मानसिक अशान्ति की दूर करने के लिये महर्षि व्यास जी उसे एक मार्ग सुझाते हैं। वे कहते हैं कि हे युधिष्ठिर तुम यदि अपने का पापत्या समझते हो तो उस पाप से छुटकारा पाने के उपाय हैं तपस्या, दान एवं यज्ञ। जो व्यक्ति भयंकर से भयंकर पाप जैसे कार्य भी करता है उसे यज्ञ, दान एवं तपस्या द्वारा छुटकारा मिल जाता है। यह वह नौका है जिसे मनुष्य पाप की मझधार में डूबने से बच जाता है अतः सकुशल समुद्र लाँघ जाता है। अर्थात् यदि वह दान करदे एवं तपस्या भी करे। तो भी मात्र यज्ञ से उसकी पाप शुद्धि हो जाती है। महर्षि व्यास कहते हैं—

असुराश्च सुराश्चैव पुण्य हेतोर्मखक्रियाम्। प्रयतन्ते महात्मान स्तस्मद्यज्ञाः परायणम्॥ यज्ञैरेव महात्मानों बभृबुरधिका सुराः। ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यघर्षयन्॥

1436-7

पुण्य प्राप्त करने के लिये देवता और असुर दोनों ही महात्मा यज्ञ क्रिया की ओर प्रवृत्त होते हैं। इसलिये यज्ञ ही सर्वोत्कृष्ट सहारा होते हैं। यज्ञों से ही शक्तिशाली देवता बढ़ गये। उससे ही नित्य कर्मकाण्ड में तत्पर देवताओं ने असुरों को अभिभूत कर दिया।

उपरिनिर्दिष्ट दोनों श्लोकों से स्पष्ट है कि महाभारत के समय में यज्ञ की महिमा अपूर्व थी। बदिक परम्परा उस समय अक्षुण्ण थी। इसी बात का एक और भी प्रमाण मिलता है। द्रौण पर्व के 82 वें अध्याय में युधिष्ठिर का जो वर्णन किया गया है उससे इसी बात की पुष्टि होती है। युद्ध भूमि में भी महाराज की और फिर यज्ञ शाला में जाकर अग्नि में समिधाएँ डाली और आज्याहुति के साथ वैदिक मन्त्र पढ़कर यज्ञ किया।

समिद्भिश्च पवित्राभिरग्निमाहुतिभिस्तथा। मन्त्रपूताभिरर्चित्वा निश्चकाम ततो गृहात्॥

इस वर्णन से दीख पड़ता है कि स्वयं होम करने की आवश्यकता थी और यह होम सादी समिधा तथा आज्याहुति का होता था। इस काम में बहुत समय न लगता होगा। इसी तरह उद्योग पर्व के 83 वें अध्याय में जब श्रीकृष्णजी हस्तिनापुर को जाने के लिये चले तो वर्णन है—

कृत्वापौर्वाह्विकं कृत्यं स्नातः शुचिरलंकृतः। उपतस्थे विवस्वन्तं पावकं च जनार्दनः॥

अर्थात् सूर्य और अग्नि की उपासना यानी उपस्थान एवं आहुति दोनों काम भारती युद्ध में प्रत्येक आर्य का करने पड़ते थे। सायंकाल में सूर्य के अस्त होते समय सन्ध्यावन्दन एवं होम करना पड़ता था। महर्षि बाल्मीकि ने भी रामायण में ऐसा ही वर्णन किया है। विश्वामित्र के साथ जाते हुए अथवा वनवास में जाने पर जहाँ जहाँ प्रभात और सन्ध्या हुई वहाँ-वहाँ राम और लक्ष्मण के सन्ध्या का वर्णन आया है।

महाभारत में जहाँ-जहाँ ब्राह्मण व क्षत्रिय के कर्मों का उल्लेख हुआ है वहाँ-वहाँ यज्ञ को प्रमुख स्थान दिया गया। ब्राह्मण के धर्म हैं तपस्या, यज्ञ, विद्या, निशावृत्ति, इन्द्रियसंयम, ध्यान, ज्ञान आदि। एवं क्षत्रिय के धर्म हैं यज्ञ, विद्या, उद्यम, लक्ष्मी के प्रति असन्तोष, दण्ड धारण आदि। ब्राह्मण एवं क्षत्रियों की भाँति महाभारत काल के वैश्य भी प्रातः और सायं होम किया करते थे। इस प्रकार यज्ञ या होम त्रिवर्ण के लिये अनिवार्य था। जब तक वे संन्यासाश्रम में प्रवेश न करें तब तक यज्ञ आदि से वे पृथक् नहीं हो सकते थे। शान्ति पर्व में एक स्थान पर कहा है कि जो दैविक कृत्य करता है और जो विशाल पितृयज्ञ व भूतयज्ञ करता है वही संन्यासाश्रम में प्रवेश करता है। ब्राह्मणों के लिये स्थान-स्थान पर यज्ञ करने का विधान आया है। यही तो उनके जीवन का पाया है। उनके लिये कहा गया है कि उनका मुख्य कर्तव्य है, अध्यापन, प्रध्ययन, यज्ञ कराना एवं यज्ञ करना। ब्राह्मण चूँकि चारों वर्णों के पथ प्रदर्शक थे इसलिये उनके लिये यज्ञ निरत रहना अत्यावश्यक हो जाता है। यदि ब्राह्मण ही अपने कर्म से च्युत हो गये, तो शेष वर्णों का क्या होगा। वे तो ब्राह्मण मुखापेक्षी हैं। इन्हीं से तो उन्हें नेतृत्व मिलना है। जब ब्राह्मण अपने कर्म से विमुख हो जाता है तो समाज दूषित हो जाता है। महाभारत में एक स्थान पर बहुत ही भाव-पूर्ण वचन आये हैं। यह कहा है कि पतित एवं संस्कार च्युत ब्राह्मण ही शूद्र बन जाते हैं। इसलिये यज्ञ का उनके लिये आत्यन्तिक निषेध नहीं है।

महाभारत में अनेकानेक स्थानों में यज्ञ की महिमा का वर्णन मिलता है। जाजलि और तुलाधार के संवाद में तुलाधार जाजलि से कहता है—हे महामुने जो बुद्धिमान् विप्र श्रेष्ठ सदा यज्ञ करते हैं, वे यज्ञ करने से ही देवलोक को प्राप्त होते हैं। 1 अथ च आपद्धर्मपर्व के 151 अध्याय के आठवें श्लोक में भीष्म पितामह यज्ञ को अवश्य कर्तव्य बतलाते हैं और

यानि यज्ञेष्विहेज्यन्ति सदा प्राज्ञा द्विजर्षभाः। तेन ते देवमानेन पथा यान्ति महामुने॥ मोक्षधर्मपर्व (शान्तिपर्व) अध्याय 263 श्लोक 29

चेतावनी देते हैं कि- “न ह्यप्रज्ञा अमुँ लोकं प्रामुवन्ति कथञ्चन” जो यज्ञ नहीं करते वे उस लोक अर्थात् परलोक को प्राप्त नहीं करते। इसलिये मनुष्य को अपना परलोक सिद्ध करने के लिये यज्ञ करना चाहिये। इसी प्रकार के अनेकानेक श्लोक महाभारत में मिलते हैं। केवल इतना ही नहीं। कहीं कहीं तो महाभारत के रचयिता यज्ञ की महिमा का गान करते समय आत्म विभोर हो उठते हैं और एक कविता सी फूट पड़ती है। कविता के प्रत्येक छन्द व प्रत्येक कड़ी में कवि के मुग्ध हृदय की झाँकी पाठक को या श्रोता को मिल जाती है और वह एक बार जी चूम उठता है। यज्ञ की अपूर्व एवं दिव्य महिमा का वर्णन करते हुए कवि कहता है—

स्तेनो वा यदिव पापो यदिवाप पकृत्तमः। यष्टुमिच्छति यज्ञं य साधुमेव वदन्तितम्॥ सर्वथा सर्वदा वर्णेरुष्टव्यमितिनिर्णयः। नहियज्ञस्म किञ्चित् विषुलकिषुविद्यते॥ 2

“कोई भी (व्यक्ति) चाहे वह चोर हो, पापी हो पाप करने वालों में भी सबसे नीच ही यदि वह यज्ञ करना चाहता है तो वह सज्जन ही है। सभी वर्णों को सदा सर्वदा यज्ञ करना चाहिये यही निर्णय है। तीनों लोकों में यज्ञ के समान और कुछ नहीं है।

यह यज्ञ कह पूर्वोक्त महिमा के अनुरूप ही है कि यज्ञ को पाप शोधक माना जाता है। कितना ही बड़ा पाप क्यों न किया हो यदि यज्ञ कर लिया जायगा तो पाप का प्रायश्चित हो जायगा यह महाभारत का पूर्ण विश्वास है। हाँ, जितना बड़ा पाप होगा उतना ही बड़ा प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। राजधर्मानुशासन पर्व के प्रारम्भ में जब युधिष्ठिर बन्धुवध के कारण बहुत दुःखी हो रहे थे। और समझ रहे थे उन्होंने ऐसा कर बहुत बड़ा पाप किया है उस समय महर्षि व्यास उन्हें उस पाप पंक से निकलने का एक मार्ग सुझाते हैं। वे कहते हैं—

“अश्वमेधोमहायज्ञः प्रायश्चित्तमुदाहृतम्” अर्थात् राजधर्मानुशासनपर्व, अध्याय 60, श्लोक 52, 53.

अश्वमेध नाम का महायज्ञ इस पाप का प्रायश्चित कहा गया है। हे महाराज आप उसे कीजिये और ऐसा करने पर आप पाप मुक्त हो जायेंगे। शान्तिपर्व के अध्याय 191 में भारद्वाज भृगुसंवाद में भृगु ने भी यज्ञ को पाप का शान्ति करने वाला बताया है। वे कहते हैं- ‘हुतेन शाम्यतेषापम्” अर्थात् हवन यज्ञ करने से पाप शान्त हो जाता है। अथ च अश्वमेधिकपर्व के अध्याय 3 में भगवान् वेद व्यास ने भी यज्ञ को यज्ञ को पाप से उबारने वाला बताया है—

उन्होंने कहा है-

तपोभिः क्रतुभिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर। तरन्ति नित्यं पुरुषाः येस्म पापानि कुर्बते॥

हे युधिष्ठिर, जो मनुष्य नित्य पाप करते हैं वे भी तप, यज्ञ एवं दान के कारण पाप से तर जाते हैं।

जहाँ महाभारत में यज्ञ की इतनी महिमा का गान किया गया है वहाँ यज्ञ विज्ञान के सम्बन्ध में कुछ न कहा गया हो यह नहीं हो सकता। इन पंक्तियों के लेखक ने अपने अनुसन्धान कार्य में इसे भी सम्मिलित किया था और जो सामग्री उपलब्ध हुई वह सचमुच आश्चर्यजनक थी। क्योंकि महाभारत तो इतिहास है यह स्मृति सी है पर कर्मकाण्ड का ग्रन्थ नहीं। इसलिये इसमें विस्तारपूर्वक या सविशेष रूप से कर्मकाण्ड की विधि का समावेश आवश्यक न था। पर महाभारत में तो महिमा ही अपूर्व है। यह तो वह खान है जिसमें जो खोजिये वह मिल जाता है। इतना ही नहीं जिसे खोजा जाता है उससे कहीं अधिक उत्कृष्ट वस्तु कभी कभी हाथ लग जाती है। कोयला खोदते खोदते सोने का हाथ लग जाना क्या कम आश्चर्यजनक है। अस्तु ! महाभारत में जिन यज्ञों का उल्लेख है उनके नाम ये हैं- अश्वमेध, राजसूय, पुण्डरीक गवामयन, अतिरात्र, वाजपेय, अग्निजित् एवं बृहस्पतिसब इन यज्ञों में अश्वमेध एवं राजसूय का ही किञ्चिद्विस्तृतै वर्णन मिलता है शेष का केवल नाम भर ही आया है। महाभारत के दो राजसूय प्रसिद्ध हैं। एक तो महाराज युधिष्ठिर ने किया और दूसरा श्रीकृष्ण ने अश्वमेध तो अनेक किये गये जिनका विस्तारपूर्वक उल्लेख महाभारत के पर्वों में बिखरा पड़ा है। अकेले शान्तिपर्व में ही कितने ही धर्मात्मा राजाओं के अनेक अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख है। दृष्टान्त के रूप में अविक्षित् के पुत्र का अश्वमेध, दुष्यन्त के पुत्र भरत के एक सहस्र अश्वमेध, दशरथ के पुत्र राम के दस अश्वमेध, भागीरथ के अनेक अश्वमेध, दिलीप के एक सौ अश्वमेध इत्यादि। इन राजाओं और इनके अश्वमेध यज्ञों की संख्या का उल्लेख तो प्रासंगिक रूप में मिलता है। जिस अश्वमेध यज्ञ का प्रमुख रूप से उल्लेख है वह है महाराज युधिष्ठिर का अश्वमेध यज्ञ। महाभारत युद्ध की समाप्ति पर दुःखित हुए युधिष्ठिर की मनःशान्ति के लिये पाप के प्रायश्चित के रूप में अश्वमेध यज्ञ करने का सुझाव महर्षि व्यास ने दिया था। यह सुझाव युधिष्ठिर को पसन्द आया। और उसने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय कर लिया। इसी अश्वमेध यज्ञ का वर्णन हमें आश्वमेधिक पर्व में मिलता है। वहाँ कहा है कि अश्वमेध यज्ञ में वेद विद्या में पारंगत याजकों ने सब कुछ शास्त्रोक्त विधि के अनुसार किया। उन्होंने कही भी स्खलन नहीं किया कुछ भी कर्म छोड़ा नहीं, कहीं भी क्रतधुत्युम नहीं किया और सभी कुछ ठीक प्रकार से ही किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि यज्ञ योग की महाभारत में महिमा गाई गई है। यज्ञ परम्परा इसमें भगवती भागीरथी के अविच्छिन्न प्रवाह के समान प्रवाहित होती हुई दीख पड़ती है। महाभारतकार ने तो यहाँ तक कह दिया है-

स्वाहा स्वधविषटकारायत्रसम्यगनुष्ठिताः। अजसु चैववर्तन्ते वसेत्तत्राविचारमन्॥ मोक्षधर्मपर्व, अध्याय 287, श्लोक 51.

“जिस राष्ट्र में स्वाहा, स्वधा एवं वषठ्कार का ठीक ठीक तथा सदैव अनुष्ठान किया जाता हो वहाँ मनुष्य को रहना चाहिये। इसमें सोच विचार करने की आवश्यकता ही नहीं।


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