यज्ञ द्वारा देव-शक्तियों से अनुग्रह प्राप्ति

January 1956

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( श्री पं. गोपदेव शर्मा, हैदराबाद )

भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि “यज्ञ से देवों का सत्कार करो, देव तुम्हारा सत्कार करेंगे, इस तरह परस्पर सत्कार से परम श्रेय प्राप्त करो।”

यहाँ पर यज्ञ शब्द से नित्याग्निहोत्र ग्रहण करना अधिक संगत मालूम होता है। मनुष्य नित्याग्निहोत्र करके दैवी शक्तियों का अनुग्रह पा लेता है। उससे मनुष्य का कल्याण हो जाता है। इस प्रसंग में देव क्या है, और नित्य अग्निहोत्र करने से उन देवताओं का सत्कार कैसा होता है तथा देवता उस मानव का जो नित्य यज्ञ करता है- कल्याण कैसे करते हैं, इन बातों का संक्षेप से विचार करना चाहता हूँ।

यास्क महर्षि वैदिक शब्दों का निर्वचन करते हुए देव शब्द के विषय में ऐसा लिखते हैं। “देवः कस्मात्? देवों दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतनाद् वा द्युस्थानोभवताति वा” देव क्योंकर देव कहलाता है? देव इसलिए कि वह दान देता है, प्रकाशित करता है, प्रकाशित होता है अथवा द्यु स्थान में रहता है। इस यास्कमहर्षि के निर्वचन से हमें यह स्पष्ट रीति से मालूम हुआ कि दान, द्योतन अर्थात् प्रकाशित होना दीपन- दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करना अथवा आकाश के अन्दर रहना। ये गुण जिसमें पाये जाय वह देव व देवता है। इस लक्षण से देवों को पहचानने में हमें आसानी होगी। परीक्षक लोगों का कहना है कि लोक में किसी वस्तु की सिद्धि करना चाहो तो दो चीजों की आवश्यकता होती है। वह दोनों चीजें कौन हैं? एक है लक्षण,दूसरी है प्रमाण। ‘लक्षण प्रमाणक्ष्या हि वस्तु सिद्धि’ लक्षण और प्रमाण से ही वस्तू की सिद्धि होती है- यह शास्त्रीय वचन है।

उपर्युक्त लक्षण से सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु आदि पदार्थ देव शब्द वाच्य है ऐसा सिद्ध होते हैं। क्योंकि इन सब पदार्थों के अन्दर यास्क महर्षि कथित गुण व लक्षण पाये जाते हैं। सूर्य चन्द्र आदि पदार्थ द्यु स्थानिक है अर्थात् आकाश में रहते हैं और स्वयं प्रकाशित होते हैं तथा अन्य पदार्थों को प्रकाशित करते रहते हैं। इसी तरह अग्नि स्वयं प्रकाशित है और अन्यों को प्रकाशित करती है। पृथ्वी के अन्दर दान गुण विद्यमान है। इस पृथ्वी से हम क्या क्या प्राप्त करते हैं। इन्हें मैं क्या वर्णन करूं। हर एक विज्ञ को यह भली भाँति मालूम है कि हम अनेक पदार्थ पृथ्वी में पाते हैं जैसे कि अन्न, वस्त्र, सोना, चाँदी, लोहा, कोयला, रत्न आदि। मनुष्य जीवनोपयोगी वस्तु अनेक इस पृथ्वी से ही उपलब्ध होती हैं। इसी तरह जल और वायु से भी हमें जीवन प्राप्त होता है। इनके बिना पृथ्वी पर कोई प्राणी जिन्दा ही नहीं रह सकता। इस बात को कौन नहीं जानता है। इस तरह पृथिव्यादि पदार्थ देव शब्द वाच्य हैं। इन पदार्थों को शास्त्रों में वसु शब्द से भी व्यवहार किया गया। ‘बसन्ति अस्मिन् इति वसुः’ पृथ्वी आदि पदार्थ इसलिए वसु कहलाते हैं कि इनमें जीव बसते हैं। जीवों के वास योग्य होने के कारण से वसु कहलाते हैं।

अब तक मैंने यह बताया कि देवता का लक्षण क्या है और देवता कौन है। अब यह बताना है कि उपर्युक्त पृथ्वी आदि पदार्थ देव कहलाते हैं इसमें प्रमाण क्या है। यजुर्वेद में चौदहवें अध्याय के अन्दर एक मन्त्र आता है कि उसमें पृथ्वी आदि पदार्थ स्पष्टोक्ति में देवता कहलाते पाते हैं।

अग्निर्देवता, वातो देवता, सूर्योदेवता, चंद्रमादेवता, रुद्रो देवता, आदित्या देवता, मरुतोदेवता, विश्वे देवा देवता, बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता॥

यजु. अ. 14 मं. 20

मन्त्र का अर्थ स्पष्ट है। इसमें कौन कौन पदार्थ देवता पदवाच्य हैं पाठक भली भाँति जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त अन्यत्र अथर्व वेद में देवताओं के विषय में लिखा गया है कि-

यस्य त्रयस्त्रिंशद्देवा यदंगेगाभा विभेजिरे तान् वैत्रयस्त्रिंशद्देवाने के ब्रहांविदो विदुः”

अर्थ. 10-33-4-27

ब्राह्मण ग्रन्थों में इस मंत्र की व्याख्या करते हुए देवताओं के विषय में लिखा है कि:–

“कतमे तेत्रयस्त्रिंशदिति-अष्टौवसवःएकादश रुद्रा द्वादश आदित्यास्तएकत्रिंशत इन्द्रश्चैव प्रजापतिश्चत्रयस्त्रिंशत्”

“कतमे वसवइति? अग्निश्चः पृथ्वीच, वायुश्चान्तरिक्षंच, आदित्याश्च, द्यौश्च, चन्द्रमाश्च, नक्षत्राणि चैतेवसवः”

अथर्ववेद के इस मंत्र में- तेतीस देवता हैं, वे शरीर के अन्दर आश्रित हैं, उन्हें ब्रह्मविद् लोग कोई-कोई जानते हैं- ऐसा लिखा हुआ है। इन्हीं देवताओं को स्पष्ट करते हुए ब्राह्मण ग्रन्थ में प्रश्न किया गया है कि वे तेतीस देव कौन हैं? उसके उत्तर में लिखा हुआ है कि आठ वसु. एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, इन्द्र और प्रजापति ये तेतीस देव हैं। फिर प्रश्न किया गया है कि वे कौन हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि अग्नि पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य द्यो चंद्रमा और नक्षत्र ये वसु हैं।

अब पाठक समक्ष गये होंगे- वसु शब्द से पृथ्वी आदि पदार्थ देव कहलाते हैं। एवं लक्षण और प्रमाण के द्वारा मैंने यह बताया कि पृथ्वी अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र आदि पदार्थ देवता कहलाते हैं।

यज्ञ के द्वारा इन देवताओं का सत्कार करने से मनुष्य को विविध शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं। यह कैसे हमें जान लेना चाहिये।

नित्य अग्निहोत्र को शास्त्रों में दैवयज्ञ कहा गया है दैवयज्ञ का अभिप्राय है कि देवताओं को उद्देश करके किये जानी वाली क्रिया। एक यज्ञकुण्ड के अन्दर अग्नि को आधान करके और उस अग्नि को प्रदीप्त करने के पश्चात् औषधि आदि से सिद्ध किये हुए हव्य पदार्थों की आहुति नित्य दी जाती है। इस तरह करने से देवता प्रसन्न हो जाते हैं अर्थात् शुद्ध हो जाते हैं।

‘अग्नि र्वैदेवानां मुखम्’ अग्नि देवताओं का मुख है। इसलिए अग्नि के अन्दर जो भी कोई पदार्थ डाला जाता है वह सभी देवताओं को प्राप्त हो जाता है। जैसे अपने मुख के अंदर डाली हुई चीज सारे शरीर के अंदर पहुँच जाती है उसी तरह अग्नि के अंदर डाली हुई वस्तु जल, वायु, अन्तरिक्ष आदि देवताओं को आसानी से प्राप्त हो जाती हैं।

जब अग्नि, वायु, पृथ्वी आदि पदार्थ जो देव हैं—यज्ञ से शुद्ध हो जाते हैं। यही उन देवताओं का सत्कार कहलाता है। इसी यज्ञ क्रिया से देवतायें सत्कृत होती हैं—अर्थात् शुद्ध हो जाती हैं। इस तरह प्रसन्न—शुद्ध हुए देवताओं को गृहस्थ प्राणी उपयोग में लाते हैं। उन पदार्थों को सभी प्राणी अपने इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करते हैं। इससे हमारी इन्द्रिय शक्तियाँ बढ़ जाती हैं। इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं जीवन पवित्र होता है। नीरोग रहता है। शुद्ध और पवित्र अन्न जल के प्रयोग से जो हमारे शरीर के अंग बनते हैं वह भी शुद्ध पवित्र होते हैं। ‘यदन्नं तन्मनः’ जैसा अन्न वैसा ही मन होता है। इन्द्रियों को शक्ति प्राप्त होना, मन शुद्ध और पवित्र बनना क्या शक्ति का मिलना नहीं? इससे बढ़कर शक्ति कौन-सी होती है? मनुष्य शुद्ध मन से न जाने क्या-क्या कार्य साध सकता है।

कहा है कि ‘मनएव मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयोः’ मानव अशुद्ध मन से बन्धन में पड़ा रहता है। वही मन जब शुद्ध हो जाता है तो वह उसको मोक्ष मार्ग पर ले जाता है। इसलिए ‘मानव यज्ञ के द्वारा परम श्रेय प्राप्त कर सकता है’ ऐसा भगवान् का कहना सर्वथा सत्य और युक्ति-मुक्त मालूम होता है।


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