यज्ञ की महान् महिमा

January 1956

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(श्रीसत्यभूषणजी, आचार्य रोहतक)

परमेश्वर का भक्त बैठा हुआ भगवान् से पूछता है कि पिता—

पृच्छामि त्व परमन्ते पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः॥ य. 23-61,

प्रभो! बताओ कि पृथ्वी का अन्त कौनसा है और इस भुवन की नाभि कहाँ है?

परमेश्वर बालक के इस आग्रह पर विवश हो गया। भक्त यज्ञ कर रहा था, तो परमेश्वर ने कहा-

इयं वेदिः चरो अन्तः पृथिव्याः, अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः॥ यजु—23-62

अर्थात् इस संसार का अन्त वेदि है और यह यज्ञ इस ब्रह्माण्ड की नाभि है।

नाभि में रहते हैं विष्णु भगवान्। विष्णु वह है जो सर्व व्यापक और सर्व पालक है अतः शास्त्रकारों ने कहा।

“यज्ञो वै विष्णुः” यज्ञ ही विष्णु है।

हमारी पालना भी नाभि से होती है। यदि नाभि के अन्दर जाकर भोजन का रस और रक्त न बने तो शरीर में उसका कैसे वितरण हो। वेद भगवान ने कहा है—कि यज्ञ से ही समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई, देखिए।

तस्मात् यज्ञात्सर्व हुतः सम्भृतं पृपदाज्यम्॥ पशूंस्तांश्चक्रे वायव्या नारव्या ग्राम्याश्चये॥ तस्माद्यज्ञात्सर्व हुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दासि सिज्ञिरे तस्माद्यजुस्तत्सादजायत॥

यजु. 31-6-7॥

अर्थात् उस पूजनीय यज्ञ स्वरूप परमेश्वर ने सब जगत् के हित के लिये दही आदि भोगने योग्य पदार्थ और ग्राम के तथा वन के पशु बनाए हैं और उसी यज्ञ स्वरूप परमेश्वर से ही वेद उत्पन्न हुए अतः उस परमेश्वर की उपासना करो, वेदों को पढ़ो और उसकी आज्ञा के अनुकूल व्यवहार करके सुखी होओ।

वैदिक धर्म यज्ञ प्रधान धर्म है। यज्ञ को निकाल दो तो वैदिक धर्म निष्प्राण हो जायगा। पूर्व मीमाँसा दर्शन वाले तो धर्म का अर्थ यज्ञ करते हैं अर्थात् धर्म और यज्ञ एक पदार्थ हैं। वेद में कुछ ऐसी ही बात कही है।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्॥ यजु-31-16

विद्वानों ने यज्ञ से यज्ञ पुरुष की पूजा की और वही मुख्य धर्म है।

तो प्रभु की प्रसन्नता का मुख्य धर्म यज्ञ है।

ऐसा न होता तो भगवान् सर्व प्रथम यह आदेश ने करते कि

“इषे त्वोजेत्वा वायवस्थ देवों व; सविता प्रर्पयतु श्रेष्ठ तमाय कर्मणा आप्यायव्वम्.........”

यजु-1-1।

ओ जीव! तुझे संसार के व्यवहार और अपने जीवन के लिये इष=अन्न और ऊर्ज-बल की आवश्यकता है, इसके लिये तुझे अपनी इन्द्रियों को श्रेष्ठतम कर्म (यज्ञ) में लगा।

इष का अभिप्राय अपना इष्ट-प्रभु प्राप्ति और ऊर्जा का अभिप्राय ज्ञान भी है तो आध्यात्मिक में यही अर्थ होगा कि यदि तू ईश्वर का और संसार का ज्ञान प्राप्त करना चाहता और प्रभु को प्राप्त करना है तो इन्द्रियों को जो तुम्हें कर्म करने के साधन मिले हैं, यज्ञ रूपी श्रेष्ठतम कर्म में लगा।

परमेश्वर की प्रसन्नता का साधन भगवान् ने अन्यत्र वेद में ही बतलाया—

अवते हेड़ो वरुण नमोभिरवयज्ञेभिरीम हे हर्विभि;॥ ऋ 1-24-14

अर्थात् परमात्मा की प्रसन्नता दो प्रकार से हो सकती है, यज्ञ से हवि द्वारा अथवा नमस्कार से अहंकार के त्यागने से। तो इससे सिद्ध हुआ कि यज्ञ विश्व कल्याण का साधन है।

वेद भगवान् क्या कहते हैं, यह देखना है—

जनयत्यैत्वा संयौमी दमग्ने रिदमग्नी पोमयोरिषे त्वा धर्मोसि विश्वायुरू प्रया उरु प्रयस्वोरुते यज्ञपतिः प्रथतामग्निष्टे त्वचंमा हिंसीद्धेवस्त्वा सविता श्रपयतु वर्षिष्ठेऽधिनाके॥ यजु-1-22.

अर्थ- हे मनुष्य! जैसे मैं सर्व सुख उत्पन्न करने वाली राज्य लक्ष्मी के लिये उस यज्ञ को अग्नि के बीच मैं पदार्थों को छोड़कर युक्त करता हूँ वैसे ही तुम लोगों को भी अग्नि के संयोग से सिद्ध करना चाहिये। जो हम लोगों का यह संस्कार किया हुआ हवि अग्नि के बीच में छोड़ा जाना है वह विस्तार को प्राप्त होकर अग्नि के बीच में पहुँच कर अन्न आदि पदार्थों को उत्पन्न करने के लिये होता है और जो पूर्ण आयु और बहुत सुख को देने वाला यज्ञ है उसको जैसे मैं अनेक प्रकार से विस्तार करता हूँ वैसे उसको हे पुरुषे! तुम भी विस्तृत करो। इस प्रकार से विस्तार करने वाले तुम्हारे लिये यज्ञ का स्वामी यज्ञ संबन्धी अग्नि अंतर्यामी जगदीश्वर अनेक प्रकार के सुख को बढ़ावे कभी नष्ट न करे तथा परमेश्वर अतिशय करके वृद्धि को प्राप्त हुआ जो अत्युत्तम सुख है उसमें तुम को सुख से युक्त करे!

अग्नि के बीच जिन-जिन पदार्थों का प्रक्षेप अर्थात् हवन किया जाता है सो सूर्य और वायु को प्राप्त होता है वे ही उन अलग पदार्थों की रक्षा करके फिर उन्हें पृथ्वी में छोड़ देते हैं। जिससे कि पृथ्वी में दिव्य औषधि आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उनसे जीवों को नित्य सुख मिलता है। इस कारण सब मनुष्यों को यज्ञ का सदैव अनुष्ठान करना चाहिए। और यजु-2-5 भावार्थ का अन्तिम भाग उस यज्ञ का अनुष्ठान सब मनुष्यों को सदा करना योग्य है। जिससे पृथ्वी पर बड़ा सुख उत्पन्न होता है उस यज्ञ का अनुष्ठान सब का सदा करने योग्य है।

हवन से सुखों को खरीदते हैं—

पूर्णा दर्वि परायज्ञ सुपूर्णा पुनरापत। वत्नेव विक्रीणावहाऽइषमूर्ज शतक्रतो यजु-2-49

भावार्थ—जब मनुष्य लोग सुगन्ध्यादि पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं तब वह ऊपर जाकर वायु वृष्टि जल को शुद्ध करते हुए पृथ्वी को आते हैं जिससे यव आदि औषधि शुद्ध होकर सुख और पराक्रम के देने वाली होती है। जैसे वैश्य लोग रुपया आदि दे लेकर अनेक प्रकार अन्न आदि पदार्थों को खरीदते व बेचते हैं वैसे हम सब लोग भी अग्नि में शुद्ध द्रव्यों को छोड़ वर्षा व अनेक सुखों को खरीदते हैं। खरीद कर फिर वृष्टि और सुखों के लिए अग्नि में हवन करते हैं।

जैसे मैं यज्ञपति को दुख से पार करता हूँ वैसे तू भी (स्वाहा) अच्छे प्रकार हवन आदि कर्मों को सेवन करके, दुःखों से अच्छे प्रकार पार हो।

स यज्ञेन वनयद्देव मर्त्तान्॥ ऋ. 5।3।5॥

वह परमात्य यज्ञ के द्वारा मनुष्यों को निरन्तर भक्ति युक्त कर देता है।

देवेम्यो हि प्रथमं यज्ञियेभ्योऽमृतत्वं सुवसि भागमुत्तमम्॥ ऋग. 4।54।2॥

(यज्ञिय) देवों के लिए सबसे पहला और उत्तम मोक्ष रूप भाग देता है। मुक्ति के अधिकारी यज्ञिय देव है सचमुच यज्ञ के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती।

अयं यज्ञो देवया, अयंमियेध्यइमा ब्रह्माण्यमिन्द्र सोमः॥ ऋग. 1।27।4॥

यह यज्ञ देव (परमात्मा) तक ले जाने वाला है, यह पवित्र है और पवित्र करने वाला है।

यज्ञदेव प्राप्ति का साधन है। यज्ञ के अनुष्ठान से अतुल धन धान्य प्राप्त होता है।

नौर्ह वा एषा स्वर्ग्या। यदग्निहोत्रम्॥ शतपथ ब्रा. 2।3।3।15॥

यह जो अग्निहोत्र है निश्चय करके स्वर्ग सुख को प्राप्त कराने वाली नौका है।

नायं लोको ऽस्त्वयज्ञत्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥ गी. 4।31॥

यज्ञ रहित पुरुष के लिए यह लोक भी सुखदायी नहीं फिर परलोक कैसे सुखदायी हो सकता है।

इन सब प्रमाणों से सिद्ध होता है कि यज्ञ ही मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है और यज्ञ से ही विश्व कल्याण हो सकता है।


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