यज्ञ का वास्तविक स्वरूप

January 1956

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(श्री पं. भूदेवजी शास्त्री, एम. ए. आगरा)

अपने शास्त्रों में यज्ञ की बड़ी महिमा गाई गई है, शतपथ ब्राह्मण ने उसे श्रेष्ठतम कार्य कहा है, श्रीमद्भागवत् गीता में उसे “इष्टकामधुक्” बताया गया है और यह घोषणा की गई है कि जो कर्म यज्ञार्थक नहीं हैं वे सब बन्धन कारक हैं उपनिषदें तो यज्ञ की ही महिमा से भरी पड़ी हैं उनकी दृष्टि में लौकिक एवं पारलौकिक समस्त मनोकामनाओं का एकमात्र पूरक यज्ञ है एक-एक करके नाम ग्रहण कहाँ तक किया जाये वैदिक साहित्य का कोई ग्रन्थ उठाकर देखिये उसमें स्थान-स्थान पर यज्ञ की महिमा गरिमा का वर्णन बिखरा मिलेगा।

इस महिमा को पढ़कर एवं प्रश्न स्वभावतः मन में उठता है और वह यह है कि यज्ञ शब्द का अर्थ क्या है, यज्ञ शब्द भारतीय साहित्य के उन कतिपय शब्द में से है जिसका बिलकुल ठीक पर्यायवाची मिलना असम्भव है, इसलिये पर्यायवाची शब्द देकर इसके अर्थ को समझाया नहीं जा सकता, साहित्य में आये हुये उदाहरणों के आधार पर उसकी व्याख्या अतिरिक्त उसके समझने का अन्य कोई मार्ग नहीं है, यह प्रयत्न कठिन अवश्य है परन्तु क्योंकि ठीक अर्थ निर्णय के बिना यज्ञ के महिमा गान में प्रयुक्त अपने साहित्य का एक बहुत बड़ा अँश का गप्प अथवा अन्धविश्वास प्रेरित जलन सा प्रतीत होता है इस दिशा में प्रयत्न अवश्य करना उचित है।

साधारण जनता तो क्या बड़े बड़े विद्वानों के सम्मुख भी यज्ञ का उच्चारण किया जाता है तो उनके मन पटल पर स्वाच्चारण पूर्वक संकल्प हवन प्रक्रिया का ही चित्र बनता है, यह प्रक्रिया निश्चय ही यज्ञ शब्द का एक अर्थ है। परन्तु यही उसका अर्थ है ऐसा समझना भूल है, इस भूल का परिणाम यह हुआ कि यज्ञ जो स्वयं अपने में एक विज्ञान है अनेक अन्ध विश्वासों का आधार बन गया है, विज्ञान एवं अन्धविश्वास का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, इस विज्ञान युग में प्राचीन शास्त्रों के वाक्य उद्धृत कर देने मात्र से यज्ञ में श्रद्धा उत्पन्न कर देना सभाडडडडडडडडडडडडडड नहीं है, यज्ञ के प्रचारकों को इस शब्द का वह अर्थ एवं स्वरूप प्रस्तुत करना होगा जिससे वे व्यक्तियों को भी यज्ञ एक सार्थक एवं उपयोगी प्रक्रिया प्रतीत होने लगे।

प्राचीन शास्त्रों के स्वभाव से एक बात पर हमारी दृष्टि पड़ती है, यज्ञ शब्द का प्रयोग संकुचित एवं व्यापक दोनों अर्थों में हुआ है, स्थान-स्थान पर जीवन एवं सृष्टि से संस्कार प्रत्येक प्रक्रिया को यज्ञ कहा गया है, पञ्च महायज्ञों के प्रकरण में मनु ने संध्या, अग्निहोत्र स्वाध्याय, पितृ-सेवा, अतिथि पूजन तथा बलिवैश्व धर्म सभी को यज्ञ कहा है, श्रीमद्भागवत् गीता में भी द्रव्य यज्ञ तपोयज्ञ, योग-यज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ, प्राणायाम यज्ञ तथा ज्ञान यज्ञ की ओर संकेत करके उनके अभ्यासियों को “सर्वेघते यज्ञ विदः” कहा गया है, बृहदारण्यक के पंचांग विद्या प्रकरण में यज्ञ के अर्थ को और अधिक व्यापकता दे दी गई।

जिस मैथुन कर्म को सभी लोग बड़ी कुत्सा की दृष्टि से देखते हैं उसे भी वहाँ एक प्रकार का यज्ञ ही बताया गया है, यजुर्वेद के पुरुष सूक्त में “सन्तोऽस्तासीदार्ज्य ग्रीष्म इध्म शरद् हविः” कर विश्वास सञ्चालन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को ही यज्ञ का रूप दे दिया गया है।

इतने व्यापक रूप में यज्ञ शब्द का प्रयोग देखकर मनुष्य यह सोचने लगता है कि यज्ञ किसी कर्म विशेष का अंग है अथवा उसकी आत्मा कोई मानता है यज्ञ शब्द की उत्पत्ति यज्ञ देव पूजा संगतिकरण दानेषु इस धातु से होती है, यज्ञ धातु के इन तीनों अर्थों में संगतिकरण सबसे अधिक व्यापक अर्थ है, देवपूजा एवं दान इन दोनों में संगतिकरण होता है, यदि इस अर्थ को आधार मानकर चला जाये तो कहा जा सकता है कि जिस किसी भी कर्म में व्यक्तियों वस्तुओं एवं शक्तियों में परस्पर संगतिकरण हो वही यज्ञ है, शास्त्रों में जिन-जिन कर्मों को यज्ञ कहा गया है उन सभी में संगतिकरण भी शर्त अवश्य मिलेगी, संगतिकरण यज्ञ के मूर्त स्वरूप का निर्माण करता है, अभी उसकी आत्मा की खोज शेष है।

प्रतिदिन के व्यवहार में हम देखते हैं कि मनुष्य के सभी संगतिकरण प्रयोजनों से चलते हैं। वे प्रयोजन निम्नलिखित हैं- (1) आत्म कल्याण (2)आत्महानि (3)घर कल्याण (4) घर हानि, इनमें से आत्महानि तथा परहानि को प्रायोजन बराबर चलने वाले कर्मों को यज्ञ नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसे कर्मों को तो कोई श्रेष्ठ भी नहीं कहेगा। उनके “श्रेष्ठतम” कहे जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, आत्म कल्याण एवं परकल्याण करने वाले कर्मों को यज्ञ कहा जा सकता है, इनमें से परकल्याण वाले कर्म तो निश्चित रूप में यज्ञ संज्ञक होते हैं और आत्म कल्याण कारक कर्म तभी यज्ञसंजक होते हैं जबकि यजमान अपनी आत्मा को परकल्याणार्थ ही मानकर व्यवहार करता हो। शुद्ध स्वार्थ की दृष्टि से किया जाने वाला कोई कर्म यज्ञ नहीं कहा जा सकता, यह परकल्याण अर्थात् लोककल्याण यज्ञ की आत्मा है। इसी भावना के साथ किया हुआ संगतिकरण यज्ञ संज्ञा को प्राप्त करता है।

ब्राह्मणो ने विष्णु को यज्ञ कहा है, विष्णु रूप प्रभु का कर्म सचराचर अखिल ब्रह्मांड का भरण-पोषण हैं सम्पूर्ण विश्व में जो विश्व संचालन रूप महायज्ञ चल रहा है उसका प्रयोजन भी जीवों का कल्याण ही है यज्ञ का संक्षिप्तमय रूप दैनिक अग्निहोत्र भी कल्याण रूप ही है, वायु शुद्धि द्वारा नैरोग्य विस्तार तथा भावना शुद्धि द्वारा आत्म विस्तार उसका प्रत्यक्ष प्रयोजन है, थोड़ा सा विश्लेषण करके यज्ञ नाम से कहे हुये किसी भी कर्म में लोक कल्याण भावना प्रेरित संगति करण स्पष्टतः दिखाया जा सकता है, अपने व्यक्तिवादी दृष्टिकोण के कारण पुत्र प्राप्ति आदि जिन फलों को हम कलि परक समझ बैठते हैं वे वस्तुतः लोक कल्याण भृलक परंपराओं के संरक्षणार्थ होने के कारण समाज पर रही है विस्तार से इस स्थल पर हम इस तथ्य की व्याख्या एवं विवेचना से वितरत रहना चाहते हैं।

यदि यज्ञ शब्द को इतने व्यापक अर्थों में समझ लिया जाये तो विश्व की समस्त कलायें एवं विज्ञान इसके अंतर्गत आ जाते हैं, साथ ही यज्ञ के फलस्वरूप जितने भौतिक एवं अतिभौतिक लाभों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है वे अर्थवाद अथवा केवल विश्वास की वस्तु न रह कर इसी जन्म में प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव की वस्तु बन जाते हैं, यज्ञ का सबसे बड़ा फल स्वर्ग प्राप्ति है, यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति लोक-कल्याण की भावना को अपने व्यवहार का मान दण्ड बनाले तो मृत्यु के उपरान्त मिलने वाला कोई स्वर्गलोक हो या ना हो यह संसार अवश्य स्वर्ग बन जायेगा। संसार की सभी प्रयोगशालायें एवं निर्माणशालायें वस्तुतः यज्ञ शालायें ही हैं, दुर्भाग्य यह है कि उनमें से सब लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर नहीं चल रही हैं इसलिये वे हमें यह फल नहीं दे पा रही है जो यज्ञ से मिलना चाहिये।

जो यज्ञ के प्रेमी हैं आज उनके दो कर्तव्य हैं, प्रथम तो यह है कि वे स्वयं यज्ञ को व्यापक अर्थों में समझें। लोग जीवन भर अग्निहोत्र करते रहते हैं परन्तु वह जिन व्यापक भावनाओं का प्रतीक है उन्हें समझने का प्रयत्न तक नहीं करते जिस प्रकार अग्नि में डाली हुई हवि सूक्ष्म रूप धारण करके लोक व्यापी हो जाती है इसी प्रकार अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व लोक व्यापी बनते जाना चाहिये, उसके हृदय में धीरे-धीरे वह उदारता विकसित होती जानी चाहिये कि स्वयं ही “सर्वभूतहिते रतः” बन जाये और उस प्रत्येक कार्य यज्ञ रूप हो जाये, जब तक यज्ञ को उस व्यापक अर्थों में न समझा जाये अग्निहोत्र व्यक्ति विकास का साधन नहीं बन सकता यही बात आज नानाविधि यज्ञ रूपों के विषय में कही जा सकती है और जब तक व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है तब तक लोक कल्याण की भावना क्रिया रूप में परिणय नहीं हो पाती क्रिया के लिये अनुभूत चाहिये जो संकुचित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में उत्पन्न ही नहीं हो सकती।

स्वयं समझने के उपरान्त प्रचार की बारी आती है, प्रचार का सर्वोत्तम साधन स्वयं व्यवहार है, यज्ञ मार्ग के जीवन तथा दृष्टिकोण में यदि अयज्ञमार्गी की अपेक्षा कुछ अधिक उदारता एवं निःस्वार्थता है तथा स्वयं यज्ञ का प्रचार होता जायेगा। अन्यथा बौद्धिक प्रचार चलता रहेगा परन्तु इसके वास्तविक लाभ से सब वंचित रहेंगे, यज्ञ के बिना न जीवन चल सकता और न विश्व समाज संचालन भी बिना यज्ञ के नहीं हो सकता, जीवन समाज एवं विश्व सभी चल रहे हैं, अतः मानना चाहिये कि यज्ञ भी हो रहा है। यह दूसरी बात है कि लोक कल्याण की भावना के अभाव में उस समस्त कार्य व्यापार को हम यज्ञ न कह पाये यज्ञ के प्रचारक को अपने कार्यों द्वारा उसी भावना को जन्म देना है ज्यों-ज्यों भावना जाग्रत होती जायेगी यज्ञ का लक्ष सिद्ध होता जायेगा।

इन पंक्तियों में जो कुछ लिखा गया है उसका प्रयोजन यज्ञ प्रेमियों के सम्मुख एक दृष्टिकोण उपस्थित करना है, आशा है कि इनसे विचारकों को विचार की कुछ सामग्री मिल सकेगी।


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