श्रौत-यज्ञों का संक्षिप्त परिचय

January 1956

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(श्री पं. वेणीराम शर्मा गौड़, वेदाचार्य काशी)

1- विवाहोपरान्त विधिपूर्वक अग्नि की स्थापन करके, सायं-प्रातः नित्य हवन आदि कृत्य किये जाते हैं, उसे स्मार्ताग्नि (आवश्थ्याग्नि, औपासथ्याग्नि)कहते हैं। इस अग्नि में किये जाने वाले कर्मों को स्मार्त कर्म कहते हैं। स्मार्ताग्नि में सिद्ध किया भोजन ही ग्रहण करने योग्य है।

2- गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि के विधि पूर्वक स्थापन को “श्रौताधान” कहते हैं। इन अग्नियों में किये जाने वाले यज्ञों का नाम “श्रौतकर्म” है। (गार्हपत्य में हवि आदि का संस्कार आहवनीय में हवन और दक्षिणाग्नि में पितृ सम्बन्धी कार्य होते हैं)

3- दर्शपूर्ण मास याग:- अमावस्या और पूर्णिमा को होने वाले यज्ञ को क्रमशः दर्श और पौर्णमास कहते हैं।

4- चातुर्पास्य-यज्ञ:- चार चार महीने पर होने वाले इस यज्ञ को चातुर्मास्य यज्ञ कहते हैं। इस याग के चार पर्व होते हैं। प्रथम- फाल्गुणी पूर्णिमा में वैश्वदेव पर्व, द्वितीय आषाढ़ी पूर्णिमा का वरुणप्रधान पर्व, तृतीय कार्तिकी पूर्णिमा को साकमेघ पर्व और चतुर्थ- फाल्गुण शुक्ल प्रतिपदा को शुनासीरीय पर्व होते हैं।

(क) जिस पर्व के विश्व देवा देवता हों, उसे वैश्वदेव पर्व कहते हैं।

(ख) जिस पर्व में वरुण के लिये प्रधास अर्थात् हवि दी जाती है, उसे “ वरुणप्रधास पर्व” कहते हैं।

(ग) जिस पर्व में हवि प्राप्त कर, देवगण समान भाव से वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसे “साकमेध पर्व” कहते हैं।

(घ) जिस पर्व के देवता, आदित्य और वायु हो, उसे “शुनासीरीय पर्व” कहते हैं।

5- प्रतिवर्ष, वर्षाऋतु में अथवा उत्तरायण और दक्षिणायण में संक्रान्ति के दिन एकबार जो यज्ञ किया जाता है, उसे ‘निरूढ़-पशु’ कहते हैं।

6- आग्रयण यज्ञ:- प्रति वर्ष बसन्त और शरद ऋतु में, नवीन यव और चावल से जो यज्ञ किया जाता है, उसे आग्रयण या नवान्न यज्ञ कहते हैं। यह यज्ञ करने के बाद ही नवीन अन्न खाना हितकारी है।

7- सौत्रामणि यज्ञ:- इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, उसे सौत्रामणि यज्ञ कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है- प्रथम स्वतन्त्र और द्वितीय अंगभूत। स्वतन्त्र भूत केवल ब्राह्मणों के लिये विधेय है और अँगभूत, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये।

8- सोमयाग- सोमलता द्वारा जो यज्ञ किया जाता है, उसे सोमयाग कहते हैं। इसके सोलह ऋत्विक् होते हैं। (दक्षिणा लेकर यज्ञ करने वाले ऋत्विक् कहलाते हैं)

सोम याग के सोलह ऋत्विकों के भी चार प्रकार हैं:- 1. अध्वर्यु गण 2. ब्रह्मगण 3. होतृगण तथा 4. उग्दातगण।

इन प्रत्येक गणों के चार-चार विभिन्न ऋत्विक् होते हैं, जिनके नाम भी भिन्न भिन्न हैं।

1- अध्वयुर्गण:- (1) अध्वर्यु (2) प्रतिप्रस्थाता (3) नेष्टा और (4)उन्नेता।

2- ब्रह्मगण:- (1) ब्रह्मा (2) ब्राह्मणाच्छसी (3) आग्रीघ्र और (4) पोत्रा।

3- होतृगण:- (1) होता (2) मैत्रावरुण (प्रशास्ता) 3 आच्छावक और (4) प्रावस्तुत।

4- उद्गातृगण:- (1) उद्गाता (2) प्रसडडडडड (3) प्रतिहर्ता और सुब्रह्मणयडडडडड।

सोमयाग के सात भेद है-

(1)- अग्निष्टोम:- अग्निष्टोम साम में जिस यज्ञ की समाप्ति हो, और उसके बाद अन्य साम न पड़ा जाय, उसे अग्निष्टोम कहते हैं।

इसी प्रकार 2 उकथ्य साम, 3 षोडशी साम, 4 वाजपेय साम, 5 अतिरात्र साम और 6 अप्तोर्याम नामक साम पढ़ कर जिन यज्ञों की समाप्ति होती है वे यज्ञ क्रम से उकथ्य आदि नामों से पुकारे जाते हैं।

अग्निष्टोम साम के अनन्तर षोडशी साम जिस यज्ञ में पढ़ा जाता है, वह ‘अत्यग्निष्टोम’ कहा जाता है।

(9) द्वादशाह यज्ञ:- यह सच और अहीन भेद से दो प्रकार का होता है, जिनमें सोलहों ऋत्विक्, आहिताग्नि, ब्राह्मण और बिना दक्षिणा वाले हों, ऐसे सोम योग को “सत्र” कहते हैं। ‘सत्र’ में 12 से लेकर 1000 तक सुत्या होती है। सोमलता के रस को विधि पूर्वक निकाल कर प्रातःकाल, मध्याह्न काल और सायंकाल, इन तीनों समय में हवन करने को एक सुत्या कहते हैं।

दो सुत्या लेकर ग्यारह सुत्या, जिस यज्ञ में हो, और आदि-अन्त में जिसके ‘अतिरात्र’ नामक यज्ञ हो तथा अनेक यजमान, कर्त्ता हो, ऐसे सोमयाग को ‘अहीन’ कहते हैं।

10- गवानयन सत्र:- यह सत्र 385 दिनों में होता है। इसमें 12 दीक्षा, 12 उपसद तथा 361 सुत्या होती है।

11- वाजपेय यज्ञ:- इस यज्ञ के आदि और अन्त में बृहस्पति सब नामक सोमयाग या अग्निष्टोम यज्ञ होता है। अथवा वाजपेय यज्ञ के प्रथम और पश्चात्, बारह-बारह शुक्ल पक्षों में बारह-बारह-बारह अग्निष्टोम आदि यज्ञ होते हैं। इसमें सत्रह-सत्रह हाथ के सत्रह यूप होते हैं। यह चालीस दिन में सम्पन्न होता है।

12- राजसूय यज्ञ:- इसमें अनुमती आदि बहुत सी दृष्टि और पवित्र आदि बहुत से यज्ञ होते हैं। यह यज्ञ 33 महीने में पूरा होता है। इस यज्ञ का अधिकार केवल अभिषिक्त क्षत्रिय राजा को है।

13- चयन याग (अग्नि-चयन):- जिस यज्ञ में ईंटों के द्वारा वेदी का निर्माण हो इसे चयन या अग्नि चयन यज्ञ कहते हैं। वह वेदी 10 हाथ लम्बी और चौड़ी होती है जिसको अत्मा कहते हैं। इसके दक्षिण और उत्तर की ओर छह-छह हाथ का चबूतरा बनता है, जिसको दक्षिण पक्ष और उत्तर पक्ष कहते हैं। पश्चिम की ओर साढ़े पाँच हाथ का चबूतरा बनता है, जिसको पुच्छ कहते हैं। इसकी ऊँचाई पाँच हाथ की होती है, अतः इसको पञ्च चितिक स्थण्डिल। इसे बनाने में चौदह तरह की ईंटें लगती हैं, जिसकी लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई भिन्न-भिन्न माप की होती हैं।

चयन याग के चबूतरे में समस्त इष्टिकायें 11170 होती हैं।

14- अश्वमेध यज्ञ:- इस यज्ञ को करने का अधिकार सार्वभौम, चक्रवर्ती राजा को ही है। इस यज्ञ में दिग्विजय के लिये घोड़ा छोड़ा जाता है। इसका आरम्भ फाल्गुन शुक्ल अष्टमी नवमी या ग्रीष्म ऋतु में होता है। इसमें 21 हाथ के यूप होते हैं। यह दो वर्ष से ऊपर समाप्त होता है।

15- पुरुषमेध यज्ञ:- इस यज्ञ में पुरुष आदि यूप में बाँधकर छोड़ दिये जाते हैं। इसमें 11 यूप होते हैं और 40 दिन में समाप्त होता है। यह यज्ञ करने के बाद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया जा सकता है।

16- सर्वमेध यज्ञ:- इस यज्ञ में सभी प्रकार के वनस्पतियों और अन्नों का हवन होता है। यह यज्ञ 34 दिन में समाप्त होता है।

17- पितृमेध यज्ञ:- इस यज्ञ में डडडडभृत्पित्रादि का अस्थिदाह होता है। इसमें ऋत्विक् केवल अध्वर्यु होता है। द्विजमात्र को इसे करने का अधिकार प्राप्त है।

18- एकाह यज्ञ:- एक दिन साध्य यज्ञ को एकाह यज्ञ कहते हैं। जिन यज्ञों में एक सुत्या होता है, ऐसे सोमयाग विश्वजित् सर्वजित् भूष्टोम आदि शताधिक यज्ञ तत्तत्सूत्रों में विहित है। इस यज्ञ में एक यजमान और 16 ऋत्विक् होते हैं।

19- अहीन यज्ञ:- दो सूत्या से लेकर ग्यारह सूत्या को अहीन यज्ञ कहते हैं। ये भी विभिन्न नामों में शताधिक तत्तत्सूत्रों में विहित हैं।

20- बारह से लेकर सोलह तक, अट्ठारह से लेकर तेतीस, पैंतीस से चालीस, उनचास, एकशत तीन सौ साठ, और 100 एक हजार सुत्या वाले जो अनेकों सोमयाग हैं, उन्हें ‘सत्र’ कहते हैं।

श्रौतयज्ञ में सोलह ऋत्विक् होते हैं, जिन के नाम और परिचय ये हैं:-

1. ब्रह्म-यज्ञ कर्म में ऋत्विक् और यजमान के समस्त कार्यों का जो सावधानी से निरीक्षण करता है और प्रायश्चित्तादि का उपदेश करता है; उसे ब्रह्म-यज्ञ कहते हैं।

2. उद्गाता- साम मन्त्र पढ़ कर स्तुति करने वाले को ‘उद्गाता’ कहते हैं।

3. होता- देवताओं को बुलाने वाले को ‘होता’ कहते हैं। (यह ऋग्वेदी होता है।)

4. अध्वर्यु- प्रारम्भ से अन्त तक यज्ञ करने वाले को ‘अध्वर्यु’ कहते हैं। (यह यजुर्वेदी होता है।)

5. ब्राह्मणाच्छंसी- ब्रह्म के सहायक ऋत्विक् को ‘ब्राह्मणाच्छंसी’ कहते हैं।

6. प्रस्तोता:- प्रत्येक सामगान के पाँच भाग होते हैं। उसके प्रथम भाग को ‘प्रस्ताव’ कहते हैं। हम प्रस्ताव को पढ़ने वाले उद्गाता के सहायक ऋत्विक् को ‘प्रस्तोता’ कहते हैं।

7. मैत्रीवरुण (प्रशास्ता):- मित्र वरुण देवता वाले मन्त्रों को पढ़ने वाले होता के सहायक ऋत्विक् को, ‘मैत्रीवरुण’ कहते हैं।

8. प्रतिप्रस्थाता विशेष का यजमान की पत्नी से सम्बन्ध रखने वाले कार्यों के करने वाले अध्वर्यु के सहायक को ‘प्रतिप्रस्थाता’ कहते हैं।

9. पोत:- सोम रस को वस्त्रादि से छानकर पवित्र करने वाले ब्रह्मा के सहायक ऋत्विक् को ‘पोता’ कहते हैं।

10. प्रतिहर्त्ता:- साम के तृतीय भाग के पढ़ने वाले उद्गाता के सहायक ऋत्विक् को ‘प्रतिहर्त्ता’ कहते हैं।

11. अच्छवाक्:- होता के सहायक ऋत्विक् को ‘अच्छवाक्’ कहते हैं।

12. नेष्टा:- ‘अध्वर्यु’ के सहायक ऋत्विक् को ‘नेष्टा’ कहते हैं।

13. अग्नात्:- अग्नि के प्रदीप्त करने वाले ब्रह्म एवं अध्वर्यु के सहायक को ‘अग्नात्’ कहते हैं।

14. सुब्रह्मण्य:- सुब्रह्मण्य नामक ऋषि से इन्द्र देवता की स्तुति करने वाले उद्गाता के सहायक को ‘सुब्रह्मण्य’ कहते हैं।

ग्रावस्तुत्:- होता के सहायक को ‘ग्रावस्तुत’ कहते हैं।

उन्नेता:- यज्ञ पात्रों में सामरस को भरने वाले को उन्नेता कहते हैं।


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