यज्ञ द्वारा विविध कामनाओं की पूर्ति

January 1956

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(श्री विश्वम्भर शास्त्री गौड़ काशी)

सहः यज्ञाः प्रजा सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेक प्रस विष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥

भ. गी. अ. 3-10

इस गीता के कथन से यह शिक्षा मिलती है कि लोक में जिस प्रकार माता पिता से आज्ञा प्राप्त कर पुत्र कहीं को जाता है, तो माता पिता प्रेम के वशीभूत होकर अपने पुत्र को पाथेय बाँध देते हैं, यह सर्वविदित है, ठीक इसी प्रकार प्रजापति ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित हमको उत्पन्न कर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होवे, यह यज्ञ तुम लोगों की कामनाओं को पूर्ण करने वाला कामधेनु के समान है, इस यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं के साथ में सम्बन्ध को प्राप्त होकर इस लोक में उन्नति करो और देवता लोग भी उन्नति को प्राप्त होवें।

विज्ञान से यह सिद्ध है कि स्थूल का संचालक सूक्ष्म हुआ करता है, जैसे शरीर का मन। इस रीति से हमारे संचालक वे हैं, जिनको हम देवता कहते हैं, जो हमसे सूक्ष्म हैं। देवताओं को भी भोजन न मिल सकता। इसलिए इन दोनों को परस्पर सम्बन्ध होना अत्यन्त आवश्यक है। यह निभ्रांत अंक निश्चित सिद्धान्त है। यह सम्बन्ध हमारा यज्ञ से स्थापित होता है।

मनुष्य जिस समय उत्पन्न होता है, उस समय माता के गर्भ स्थान की अशुद्धि का माता के रजन की अशुद्धि का एवं पिता के वीर्य की अशुद्धि का संसडडडड होने से अपवित्र माना जाता है, ऐसी अवस्था में मनुष्य को संस्कार रूप यज्ञ ही पवित्र करता है। यह वैदिक कर्मों के करने का अधिकारी बनाता है जैसा कि मनुजी ने लिखा है।

गर्भे होमेंर्जात कर्मचौड मौञ्जी निवन्धनैः। वैजिकं गाभिकं चैनो द्विजानामय मृज्यते।

मनु अ. 2-27

अन्नम ब्राह्मा वेद :—

वेद के सिद्धान्तानुकूल अन्न का एक नाम ब्रह्म, और जीवो बृह्मैव ना पर शंकराचार्य:– के कथनानुसार मानव का और अन्न का सम्बन्ध सुतराय सिद्ध है और अन्न के बिना मानव जीवन का चलना असम्भव है उस अन्न की भी उत्पत्ति का साधन एक मात्र यज्ञ ही है।

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्य मुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते बृष्टिवृष्ठेरन्नं ततःप्रजा॥ मनु अ. 3-76

जो कि इस श्लोक में बताया गया है। यज्ञ के द्वारा अन्न उत्पन्न होता है यही कारण है कि शास्त्र सस्येष्टी का विधान करता है।

सस्यान्ते नवसस्येष्टया तथर्त्वन्ते द्विजोऽध्वरैः। पशुना त्वयनस्यादौ समान्ते सौमिकै र्मखैः॥

म. अ. 4—26

ऐसे शुभ कार्य के लिए अत्यन्त पवित्रतम् स्थान कि आवश्यकता है क्योंकि पवित्रतम् का पवित्रतम् के साथ सम्बन्ध होने पर ही फलोत्पत्ति होती है, इसलिए मनुजी ने यज्ञार्हः देश की व्यवस्था की यथा—

कृष्ण सारस्तु चरति मृगौ यत्र स्वभावतः। स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छ देशस्त्वतः परः॥

म. अ. 2-23—॥

इसी देश के पवित्रतम् होने के कारण यज्ञ का विधान और यज्ञ का चाल हमारे भारतवर्ष में ही है।

इंग्लैंड इत्यादि देश यज्ञ के अनुकूल न होने से यज्ञ से वञ्चित हैं।

जैसा यज्ञ पवित्रतम् है और उस यज्ञ के लिए पवित्रतम् स्थान की व्यवस्था की गई उसी प्रकार कर्ता का भी पवित्रतम् होना अत्यन्त आवश्यक है, इसी प्रकार विज्ञान की भित्ति पर हमारी वर्ण व्यवस्था सुसज्जित है जैसा कि मनुजी के कथन से सारांश स्पष्ट होता है।

लोकानाँ तु विवृद्धयथे मुख वाहू रुपादत्तः। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तेयत्॥

म. अ. 1—31.

जब सभी पवित्रतम् है तो उसकी विधि को बतलाने वाले और उस यज्ञ के अधिष्ठात्रों के समीप यज्ञ की हवि को वाक्य योजना पूर्वक पहुँचाने वाला भी पवित्रतम् होना चाहिये यही कारण है, कि वेद को पवित्रतम् कहा गया है।

यथा मनुः—

पितृ देव मनुष्याणाँ वेदश्चक्षु सनातनम्। अशक्यं चाप्रमेयं च वेद शास्त्र मितिस्थितिः॥

म. अ. 12-94

इसी विज्ञान की भित्ति पर हमारे यहाँ वेद का अधिकारियों द्वारा पवित्रतम् अवस्था में पवित्रतम् आचार्य के समीप सः स्वर अध्ययन होता है दूसरे देशों में इसी कारण वेदपाठी नहीं मिल सकते भले ही इधर उधर करके अर्थ लगाने का स्वाँग रचें।

‘यज्ञ का नाम “कामधुक्” है, इसलिए इससे सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं, हमें वह दिन याद है कि जिस समय जर्मन देश में टेलीपैथी विज्ञान का आविष्कार हुआ था। परन्तु वे बेचारे 39 मील तक ही सफल हो सके जबकि हम यज्ञ द्वारा चन्द्रमा के ऊपरी भाग में भी मन को प्रतिदिन प्रेषित और आहूत करते हैं।

यथा वेद:—

मनो तु आह्वामहे नाराशसेन— स्तोमेन। पितृणाँ च मन्मभिः॥

शुल्क य. वे. अ. 3-53॥

अर्थ—जिन स्तोत्रों को मनुष्य श्रेष्ठ मानते हैं और पितरों से भी जो स्तोत्र माने गये हैं उनके द्वारा पितृलोक में गये हुए मन को हम शीघ्र बुला रहे हैं।

प्रत्येक कामनाओं में पार्थव्य होने से क्रियाओं का पार्थक्य भी नैसर्गिक है इसी कारण पृथक-पृथक कामनाओं की पूर्ति के लिए पृथक-पृथक यज्ञों का विधान है स्वराज्य के लिए वाजपेय यज्ञ का, स्वर्ग के लिए दर्शपौर्ण मास का, अग्नि साम का, ज्योतिष्टोम का, पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टी का, और शत्रु मारण के लिए श्येन यज्ञ का, विधान है यज्ञ के द्वारा विविध कामनाओं की पूर्ति होती है तभी तो यज्ञ का ‘कामधुक्’ नाम प्रजापति ने रखा है।

हम लेख विस्तार भय से अधिक न लिखकर इतना ही लिखना उचित समझते हैं कि यज्ञ से ही देवता लोग स्वर्ग को प्राप्त हुए, असुरों को दबाया। हम लोग भी यज्ञ के द्वारा देवता बन सकते हैं, अपनी आसुरी प्रवृत्तियों का शमन कर सकते हैं, शत्रुओं को मित्र बना सकते हैं क्योंकि यज्ञ में सब कुछ प्रतिष्ठित है जैसा कि वेद का उल्लेख है।

यज्ञ इति यज्ञेन हि देवा दिवंगता यज्ञेनासुरानपानुदन्त, यज्ञेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति, यज्ञे सर्वे प्रतिष्ठितं तस्माद्यज्ञं परमं वदन्ति॥

तैत्ति. आर. य. प्र पा. पृ. अनु 62॥


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