कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग—यज्ञ

January 1956

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(पं. धर्मदेव विद्यावाचस्पति गुरुकुल काँगड़ी)

वेदों और शास्त्रों में सर्वत्र यज्ञ की महिमा गाई गई है और उसे लोक कल्याण और परमेश्वर की प्राप्ति का एक मुख्य साधन बतलाया गया है। वैदिक धर्म को यदि यज्ञ धर्म के नाम से कहा जाए तो भी अत्युक्ति न होगी क्योंकि वेदों में यज्ञों का विस्तृत अर्थ में (जिसमें आत्मकल्याण और लोक हित के लिये किये गये सब उत्तम कर्मों का समावेश हो जाता है) प्रतिपादन करते हुए स्पष्ट कहा है कि—

‘यज्ञेनयज्ञमयजन्त देवास्तानिधर्माणि प्रथमान्यासन्। तेहनाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ ऋ. 10।90।16 यजु. 31।16

अर्थात् सत्यनिष्ठ विद्वान लोग (सत्य संहिता वै देवाः ऐत. 1।6 सत्य मया उ देवा;। कौषीतकी 2।8 विद्वांसो हि देवा; शतपथ 3।7।3।10 इत्यादि ब्राह्मणग्रन्थोंक्त प्रमाणों के आधार पर देव का यह अर्थ स्पष्ट है) यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ अर्थात् पूजनीय परमेश्वर की (यज्ञोवैविष्णुः) पूजा करते हैं। यज्ञ के अंतर्गत वे धर्म देवपूजा, संगतिकरण और दान प्रथम अथवा प्रथम सर्वोत्कृष्ट हैं। इनका अनुष्ठान करते हुए सत्यनिष्ठ विद्वान् लोक महामहिमा शाली बन कर मोक्ष तक को प्राप्त कर लेते हैं जहाँ सब ज्ञानी पहुंचते हैं।

इस प्रकार के मन्त्रों में यज्ञ के द्वारा परमेश्वर की पूजा का भाव स्पष्ट है। यज्ञ को सर्वोत्तम धर्म कहने का कारण यह है कि इसमें मनुष्य के अपने बड़ों के लगभग समान कोटि के लोगों और अपने से किसी भी अवस्था में छोटों के प्रति कर्तव्यों का देव पूजा संगतिकरण और दान के रूप में समावेश हो जाता है। यज्ञ को अध्वर के नाम से भी वेदों के सैंकड़ों मन्त्रों में कहा गया है जिसका अर्थ निरुक्त कार महर्षि यास्काचार्य के अनुसार ‘अध्वर इति यज्ञ नाम ध्वरतिहिंसा कर्मातत्प्रतिषेधः।

अर्थात्—हिंसा रहित शुभ कर्म है। ऐसे कर्म के सम्बन्ध में यह वैदिक प्रार्थना है कि—

‘भद्रोनो अग्निराहुतो भद्राएतिः सुभग भद्रोनोअध्वरः। भद्रा उत प्रशस्तयः॥ ऋ. 8।19।19 यजु. 15।37 साम 115

अर्थात् (आहुतः अग्निः नः भद्रः) यह अग्नि जिसमें हमने सुगन्धित, रोग नाशक, पुष्टिदाश्क पदार्थों की आहुतियाँ दी हैं हमारे लिये कल्याण तथा बुद्धि की शक्ति बढ़ती है। बहुत बार मैंने देखा है कि जिन गूढ़ मन्त्रों का आशय साधारणतया स्वाध्याय करते हुए स्पष्ट नहीं हो तो हवन यज्ञ करते हुए वायु मण्डल की पवित्रता के कारण बुद्धि तीव्र होने से उनका अर्थ समझ में आने लगता है। अग्निभिन्धानो मनसा धियं सचेत मर्त्यः। अग्निभीधे विवस्वभिः॥ ऋ. 8।102।20 साम म, 19 के अनुसार जब हवन की अग्नि को प्रदीप्त करते हुए उसके साथ मन और बुद्धि को जोड़ दिया जाता है और अपने अन्दर ज्ञान की अग्नि को जलाने का प्रयत्न किया जाता है तो उससे आध्यात्मिक उन्नति में भी बड़ी सहायता मिलती है यह मेरा अनुभव सिद्ध विश्वास है। इस आध्यात्मिक लाभ और चित्त शुद्धि के लिए ही विशेष रूप से वेद मन्त्रों का हवन के समय में उच्चारण किया जाता है।

जब परिवार के सब लोग वेद के आदेशानुसार ‘समन्त्रोअग्निं सपर्यतारा नाभिनिवाभितः॥ अथ. 33।6॥ अग्नि कुण्ड के चारों ओर रथ नाभि के चारों ओर आरों के समान बैठ कर अग्निहोत्र और स्वाध्याय करते हैं तो उनके पारिवारिक के प्रेम की भी वृद्धि होती तथा उन्हें अपने कर्तव्यों का ठीक-2 ज्ञान होता है इसमें सन्देह नहीं।

यज्ञ का एक अर्थ संगतिकरण है अतः यज्ञों और संस्कारों में परिवार के तथा दूर-2 के लोग एकत्र होते हैं जिससे उनमें परस्पर प्रेम, सहयोग और सहानुभूति की वृद्धि होती है। ब्रह्म परायण यज्ञ जैसे वृहदयज्ञ से इस प्रकार का लाभ विशेष रूप से मेरे तथा अन्य विद्वान् मित्रों के अनुभव में आया है।


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