श्रवण कुमार की अन्तर्वेदना

January 1956

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श्रवण कुमार के माता पिता जब बहुत वृद्ध हो गये, उनकी आँखों की ज्योति भी चली गई तो वे बहुत दुखी रहने लगे। उनकी इच्छा थी कि सभी तीर्थों की यात्रा करें, पर परिस्थितियों से मजबूर थे। वृद्धावस्था और अन्धता ने उनके शरीर को अशक्त कर रखा था, तीर्थयात्रा की अभिलाषा कैसे पूरी करते? मन ही मन वे अन्ध दम्पत्ति रोया करते, कभी-कभी उनकी वेदना आँखों और उसासों में होकर फूट भी पड़ती ।

माता पिता के चरणों के समीप पितृभक्त बालक सोया हुआ था। रात को अचानक उसकी आँख खुली तो उसने चुपचाप पड़े पड़े देखा सुना कि माता पिता की आँखें बरस रही हैं, वेदना सम्मिश्रित उनमें चल रही है। बालक कुछ देर इस दृश्य को देखता रहा, पर अधिक देर न देख सका, उठ बैठा। माता के चरणों को धीरे धीरे दबाने लगा और खिसक कर उसकी गोदी से सट गया। माता पिता को पता लग गया कि बच्चा जग गया है हमारी वेदना का परिचय पाकर बालक खिन्न न हो जाय यह सोचकर उन्होंने, अपने आपको संभाल लिया। आँखों से नीचे बहने के लिए आने वाले आँसू उन्होंने रोके और कठ में घूँट के साथ नीचे उतार लिए, साँसें जो वेदना के आताप से गरम हो रही थीं, किसी प्रकार ठंडी की और ऐसा उपक्रम बनाया कि बालक को कुछ पता न चले। बालक उन्हें प्राण प्रिय था, उसके कोमल हृदय पर किसी प्रकार की चोट पहुँचे यह उन्हें अभीष्ट न था।

बालक को जगे हुए बहुत देर हो गई थी वह सब कुछ देख सुन रहा था। पूछने पर भी जब माता पिता कारण न बताने लगे, हँसने हँसाने का उपक्रम करते हुए बात को टालने का उपक्रम करने लगे, ते बालक की अंतर्वेदना उमड़ पड़ी। वह सोचने लगा—मेरी अपात्रता ही इसका कारण हो सकती है कि माता पिता जो मुझे प्राण प्रिय स्नेह करते हैं, अपनी पीड़ा को मुझ से डडडडना उचित न समझें—छिपावें। आत्म ग्लानि में—अपनी अयोग्यता और अपात्रता की अनुभूति से बालक के नस नस में सहस्र बिच्छुओं के कारण पीड़ा होने लगी, यह पछतावा उसके रोम रोम में क्रंदन करने लगा कि— कदाचित् में माता पिता के कष्टों को निवारण करने में समर्थ न सही—उनकी व्यथा को समझने का भी अधिकारी अभी तक न बन सका। मातृ पितृ भक्ति का प्रथम सोपान भी में पार न कर सका, जल विहीन मछली की तरह वह छटपटाता हुआ धरती पर लोटने लगा।

माता पिता अन्धे अशक्त अवश्य थे पर वस्तुस्थिति को समझने की क्षमता उनमें जरा भी कम नहीं हुई थी। बालक के स्वभाव से परिचित थे, वह जाग चुका था, जगकर उनकी स्थिति को समझ चुका है, इसीलिए पूरी बात बताये बिना अब छुटकारा नहीं। न बताने में बालक को दुहरा दुख होगा इसीलिए उन्होंने धरती पर लोट-पोट करते और पैर पीटते हुए बालक को छाती से लगा लिया। धीरे धीरे उन्होंने अपने मन की व्यथा कहना शुरू करदी। आँखों की अन्धता, शरीर की अशक्तता, तीर्थयात्रा करने की अभिलाषा की विसंगतियों को उन्होंने बताया और कहा बेटा यह देव-दुर्विपाक ही है। तुम भी तो अभी बालक ही हो—खेलने खाने का ही यह तुम्हारा समय है तुम्हारा विकास उतना नहीं हो पाया है कि इन कठिन बातों में कुछ योग दे सको, इसी से हम लोग तुम्हें यह सब नहीं कहते थे। कोई अन्यथा बात न समझो। चलो—चुपचाप से जाओ अभी रात बहुत बाकी है।

फूँस की टूटी सी कुटिया के एक कौने में वे वृद्ध-पुरुष अपने शरीर को चिथड़ों से ढक कर सोने का उपक्रम करते हुए लुढ़क गये, बगल में बालक को सुला लिया तीनों ही सोने का बहाना बनाये पड़े थे ताकि एक दूसरे को उनके जगने की बात का पता न चले। पर भीतर ही भीतर तीनों के आँधी तूफान उड़ रहे थे। माता पिता सोचते, हमारा बच्चा यदि कुछ समर्थ हुआ होता—खेलने खाने की स्थिति को पार कर चुका होता तो हमारे कुछ काम आता बालक सोच रहा था मैं मानसिक दृष्टि से इतना छोटा न हुआ होता तो माता पिता को सन्तुष्ट करके अपने जीवन को धन्य बनाता शारीरिक अपूर्णता मेरी उतनी नहीं है, जिससे उनकी अभिलाषा पूरी न हो सके क्योंकि आर्य जाति के नन्हें नन्हें बालक अभिमन्यु, लवकुश, दुष्यन्त पुत्र भरत, ध्रुव, प्रहलाद आर्य के समान भारी भारी पराक्रम करते रहे हैं। अयोग्यता-अपात्रता मेरी मानसिक ही है जिसके अनुसार खेलने खाने में ही मेरा मन डोलता रहता है। बालक अपने को घृणापूर्वक धिक्कारता और तिलमिला कर ऐसा सोचता कि इस मन को अपना सिर तोड़कर अलग निकाल फेंकूँ और वैसा मन वहाँ बिठाऊँ जो खेलने खाने की तुच्छता से बहुत ऊँचा हो, कर्तव्य पालन का अधिकारी हो ।

सोच विचार में रात बीत गई किसी की भी आँख न लगी। प्रातःकाल हुआ। उठते ही रात की अधूरी बात पर फिर चर्चा होने लगी। माता पिता चाहते थे बालक रात की बात को भूल जाय। बालक चाहता था मातृ-पितृ भक्ति का उज्ज्वल उदाहरण पैदा करने के लिए उसके शरीर को- सर्वस्व को खप जाना चाहिए। नाना तर्क वितर्क की, नीच ऊँच समझने समझाने की, आग्रह आवेश की झड़ी लग गई। यह विवाद चला, बढ़ा, विकसित हुआ और कई दिन के निरन्तर मन्मथ के बाद एक निष्कर्ष निकला। बालक पूर्णतया कटिबद्ध हो गया कि वह खेलने खाने की स्थिति से ऊँचा उठकर माता पिता के दिये हुए शरीर का उन्हीं के निमित्त उपयोग करेगा। पिता की अन्धी आंखों में स्वर्णिम आभा नाचने लगी। आर्य जाति के बालक के ऐसे ही होते थे—हमारा बालक संसार के सामने एक अनुकरणीय आदर्श का उदाहरण बनेगा। अपने बच्चे की इतनी बड़ी महानता देखने का अवसर किन्हीं बड़भागी माता पिता को ही मिलता है। तीर्थयात्रा की इच्छा पूर्ति एक तुच्छ बात थी— इस बात की तुलना में कि श्रवण कुमार संसार का एक आदर्श हीरो बनने जा रहा है। तीर्थ यात्रा की तैयारी होने लगी।

झोंपड़ी का द्वार बन्द कर दिया गया। दोनों वयोवृद्ध अंधों को लाठी पकड़े-उनके गठरी पोटली सिर पर रखे श्रवणकुमार आगे आगे चलने लगा। यात्रा का श्रीगणेश आरम्भ हुआ। भिक्षा द्वारा भोजन प्राप्त करना बोझा लेकर चलना लाठी पकड़कर रास्ता बताते चलना उन्हें शौच स्नान शयन आदि कराना आदि सम्पूर्ण व्यवस्थाओं का बोझ श्रवणकुमार ने अपने कन्धे पर खुशी-खुशी ले लिया। उसे लगता मानों माता पिता का पूरा-पूरा उत्तरदायित्व उसी के कन्धे पर लदा है। माता पिता भी सब प्रकार की ऐसी सुविधा अनुभव करते मानो श्रवणकुमार के कन्धों पर ही बैठकर चल रहे हों। यात्रा बढ़ चली। एक-एक कदम करके सम्पूर्ण नदी, सरोवर, तीर्थधाम, पुरी पार होने लगी, तपोभूमियों का कोना-कोना उन्होंने पार कर लिया। कोई तीर्थ उनसे बचा नहीं। इस प्रकार तीर्थ यात्रा कराते-कराते श्रवणकुमार भी दशरथ के तीर विग्रह में मर खप गया—माता पिता तो तीर्थ रूप ही थे। वे तो सद्गति की साक्षात् प्रतिमा थे श्रवणकुमार का बलिदान परोक्ष रूप में रामराज्य का—प्रकारान्तर से असुरों के संहार और विश्वशान्ति का कारण बना। इस प्रकार उस नन्हे मुन्ने श्रवणकुमार बालक की छोटी सी कहानी का हजारों लाखों वर्ष पूर्ण पटाक्षेप हो गया। अब तो वह अतीत के एक स्मृति मात्र दी गई जिसकी झाँकी इतिहास के पृष्ठों पर और जनमन के एक विस्मृत गर्त में पड़ी हुई जब तक देख सकते हैं।

वह पुराना समय था—जब साधारण माता को ऐसे बालकों का सौभाग्य मिलाता था। आज तो स्थिति ही दूसरी है “खाने खेलने की स्थिति से कोई जरा भी ऊँचा उठना नहीं चाहता। माता पिता से अधिक लाभ- उचित अनुचित लाभ उठाने के अतिरिक्त उनके प्रति और भी कुछ कर्त्तव्य है यह कोई नहीं सोचता।

यज्ञ पिता और गायत्री माता भारतीय संस्कृति परिवार के जनक जननी हैं। वे आज बूढ़े हो गये हैं। समय के प्रभाव ने उनको उपेक्षा के गर्त में पटक दिया है। उनके नेत्रों की ज्योति क्षीण हो गई है। पर तीर्थ यात्रा करना चाहते हैं तेतीस कोटि देवों के डडडडड प्रत्येक भारतीय का निवास स्थान प्राचीन काल में एक तीर्थ होता था। इन तीर्थों में यज्ञ भगवान और गायत्री माता की प्रतिष्ठा होती थी। आज के तीर्थ श्मशानों में बदल गये हैं। आसुरी तत्वों के भूत पिशाच उन पर अट्टहास करते हुए नाचते रहते हैं। इन श्मशानों को पुनः देवालयों में तीर्थों में बदलने के लिए- यज्ञ भगवान और गायत्री माता की व्यापक तीर्थ यात्रा होनी चाहिये। पर अब ऐसे श्रवण कुमार कहाँ है? जो इन वृद्ध मात-पिताओं को कन्धे पर बिठा कर दूर दूर की धूलि छानने को तैयार हों। विनोबा के भूदान की तरह- यज्ञ प्रकार की पैदल यात्राओं की आवश्यकता आज सर्वोदय है। घर घर त्याग और ज्ञान- यज्ञ और गायत्री का सन्देश पहुँचाया जाए तो भारतीय संस्कृति का मरुस्थल पुनः हरा भरा हो सकता है।

यज्ञ प्रकार की पैदल यात्रा से गाँव गाँव में यज्ञ सम्मेलन करके गायत्री उपासना और यज्ञ अनुष्ठान के आध्यात्मिक नित्य कर्मों के अतिरिक्त- मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत लोक शिक्षण हो सकता है और जन साधारण की मनोभूमि को ज्ञान और त्याग के साथ सुसंबद्ध बनाया जा सकता है। लम्बी चौड़ी योजनाऐं बनाना व्यर्थ है। सब कार्यों के लिए कर्म निष्ठ, पुरुषार्थी परिश्रमी सच्चे और धुन के पक्के कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है ऐसे कार्यकर्ता हों तो उनका प्रत्येक कदम एक कार्यक्रम बन सकता है, अनुभव के आधार पर उन कार्यक्रमों में हेर फेर होता रह सकता है। मूल आवश्यकता अपने को तुच्छ स्वार्थों से ऊंचा उठाकर इस सांस्कृतिक आवश्यकता के लिए अधिक से अधिक मात्रा में अपना समय, मन, वचन, धन, साधन, योग्यता, चातुर्य, आदि लगा देने के लिए उत्सुक त्याग भावना की है।

श्रवण कुमार की युग कथा आज पुनरावृत्ति कर रही है। यज्ञ पिता और गायत्री माता का महत्व और सर्वथा क्षीणकाय हो चला है- मरणासन्न उपेक्षा की वृद्धता से जकड़े हुए शक्तिहीन हो रहे हैं। उनके नेत्र अन्धकारमय भविष्य देखकर ज्योति हीन हो रहे है। वे भारतीय के घरों को देवालय का तीर्थ रूप देखने के लिए व्यापक तीर्थ-यात्रा करना चाहते हैं पर कोई साधन नहीं दीखता। उनका बालक-भारतीय समाज-जन मानस-खेलने खाने में-स्वार्थ और भोग में-लिप्त हैं। इससे अधिक और कुछ नहीं करना चाहता, अन्धे, बूढ़े, अशक्त , क्षीणकाय माता पिता से वह नाना प्रकार के खेल खिलौने, पैसे, लड्डू, बताशे तो माँगता रहता है पर उसके मन में क्या कला है इसे कोई नहीं सुनना चाहता। अपने कन्धे पर उनका बोझ उठाने के लिए कोई तैयार नहीं होता।

श्रवण कुमार की आत्मा स्वर्ग में फुट-फूट कर रोती है- अब उसकी पुनीत परम्परा लुप्त होने जा रही है। यज्ञ पिता और गायत्री माता की पालकी कन्धे पर रखकर उनका बोझ उठाने के लिए कौन तैयार होता है? छप्पन लाख भिखमंगों की—साधु, पंडितों की सेवा अपनी पूजा प्रतिष्ठा कल्पित मुक्ति लूटने को सपने संजोये बैठी है। साधारण मनुष्य केवल माँगना जानते हैं देना नहीं सीखना चाहते। फिर श्रवण कुमार कौन बने?

कौन बने? कौन बने? कौन बने? यह प्रश्न अन्तरिक्ष में आज सर्वत्र गूँज रहा है। पर उत्तर किधर से भी नहीं आता। सर्वत्र सुनसान मरघट जैसा सन्नाटा साँय साँय कर रहा है। कौन बने? कौन बने? का अरण्य रोदन श्रवण कुमार और उसके माता-पिता स्वर्ग बैठे-बैठे सुनते हैं- और बिलख बिलख कर रोते हैं। गायत्री माता और यज्ञ पिता भी इसी अन्तर्वेदना में पड़े एक कौने में सिसक रहे हैं- पर श्रवण कुमार की छाया तो किधर के भी आती दिखाई नहीं पड़ती।


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