प्रतिस्पर्द्धा की भावना से हानि

June 1955

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)

जीवन गति है। जीवन-धारा एक सरिता के प्रवाह की भाँति सतत् गतिशील है। जैसे एक ही स्थान पर टिका या रुका हुआ होने के कारण जल दूषित हो जाता है, जीवन प्रवाह में संतोष भी हानिकारक सिद्ध हो सकता है। पूर्ण परिश्रम करने पर जो कुछ प्राप्त हो हमें उससे संतोष करना चाहिए-यह ठीक है किन्तु उतावलापन, सदा आगे बढ़ने और अपनी गति, सामाजिक स्थिति, पद, घर बार सौंदर्य इत्यादि को सदा दूसरों से मिलाना, तुलनात्मक दृष्टि से अपने को नीचा पाना, फिर रात दिन उसी फिक्र में पड़े रहना—प्रतिस्पर्द्धा की यह भावना सीमा का अतिक्रमण करने से घातक दुष्परिणामों को उत्पन्न कर मनुष्य का जीवन अशान्ति से भर देने वाली है।

हमारा अमुक मित्र उन्नति की दौड़ में हमसे आगे निकल गया, अमुक को उच्च पद प्रतिष्ठा, गौरव प्राप्त हो गया, अमुक की पत्नी कितनी सुन्दर है, अमुक का निवास स्थान कितना भव्य है, पुत्र पुत्री कितने सभ्य हैं आदि आदि प्रतिस्पर्द्धा जनक भावनाएँ मानसिक तनाव की सृष्टि कर पाचन शक्ति को निर्बल कर देती हैं। नसों के तने रहने से सुख शान्ति प्राप्त नहीं होते और मनुष्य सदा अपने विरोधी विचारों, दूषित कल्पनाओं, को ही मन में पोसता रहता है।

प्रतिस्पर्द्धा से चिन्ता और ईर्ष्या उत्पन्न होती हैं और पेट में कब्ज अपच तथा अल्सर की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, त्वचा की बीमारियाँ फूटती हैं और शरीर का समग्र स्नायु मंडल अनियंत्रित हो जाता है। भूख नहीं लगती और मनुष्य दुबला होता जाता है।

श्री एडवर्ड विगम अपनी पुस्तक “आनन्द प्राप्ति के नए उपाय” में लिखते हैं—

जब आपको जीवन यापन की भौतिक सुविधाएँ प्राप्त हो जायं, भोजन, वस्त्र, मकान अच्छा स्वास्थ्य इत्यादि-तो आपकी प्रसन्नता या दुःख बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि आप किस प्रकार अपने आप को दूसरों से मिलाते या तुलना करते हैं। यदि आप उनसे एक बात में अपने आप को पूरा या ऊँचा उठा हुआ पाते हैं, तो किसी दूसरे तत्त्व में गिरा हुआ, अविश्वासी या निर्धन पाते हैं। आप अपने व्यक्तित्व के इस गिरे हुए पक्ष पर निरन्तर चिन्तन कर मन को चिन्ता और कल्पित वेदना के भार से भर लेते हैं। यदि आप अपने गुण सुविधाओं और समृद्धियों अर्थात् अपने उन्नत पक्ष से दूसरों का मिलान करते रहें और अपने प्रति हितैषी बने रहें, तो आप जीवन के प्रति संतत एक चाव, नई रुचि, उत्साह और उन्नति की ओर लगे रहेंगे। आप की योग्यताएँ उत्तरोत्तर बढ़ती रहेंगी और विवेक परिपक्व हो जायगा।

मनुष्य सर्व प्रथम आत्म-स्थायित्व चाहता है अर्थात् मरना नहीं चाहता। वह अपने शरीर को रोग और मृत्यु से सुरक्षित रखना चाहता है। इसी सिद्धान्त को गहराई से देखें तो हम कह सकते हैं कि हम अपने अहं की रक्षा चाहते हैं, अपने व्यक्तित्व पर आक्रमण करने वालों से बचना चाहते हैं, अपने को अपकीर्ति से बचाना चाहते हैं। दूसरे हमारे विषय में क्या सोचते हैं, यह बात हमारे विषय में उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं जितनी यह बात कि स्वयं अपने ही विषय में उनके माध्यम से सोची गई घृणित या गिरी हुई मान्यताएं। इसी बात को यों कहिये कि हम भ्रमवश यों ही सोचने लगते हैं कि अमुक हमें गरीब समझता होगा! अमुक हमें मूर्ख, मंदमति कहता होगा। इनमें से अधिकाँश हमारी झूठी कल्पनाएं ही होती हैं, क्योंकि इस विशाल जन समाज को इतना अवकाश कहाँ कि केवल हमारी ही टीका टिप्पणी करता रहे उसे अन्य बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य हैं।

मनुष्य समस्त कार्यों के मूल में दूसरों द्वारा अपने कार्यों की प्रशंसा प्राप्त करना हैं। जब हम समझते हैं कि कोई हमें नहीं पसन्द कर रहा है, तो हम अपने आपको हीन कमजोर और अरक्षित-सा समझने लगते हैं। जौनडिवि कहते हैं, ‘मानव प्रवृत्ति की सब से उत्कट अभिलाषा महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त करना ही है। लोग महत्ता प्राप्त करने के लिए भूखे रहते हैं पर उत्तमोत्तम वस्त्र, आलीशान मकान मोटर बंगला इत्यादि दिखावटी चीजें एकत्रित करते हैं। “तनिक विचार करें केवल वस्त्रों ही पर आप कितना अपव्यय केवल महत्ता प्राप्ति के लिए व्यय कर देते हैं। अच्छे वस्त्र या आभूषण पहिन कर आप प्रतिस्पर्द्धा में मन ही मन ऊँचे उठ जाते हैं और एक मिथ्या दर्प से फूल उठते हैं। ‘मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ, ऊँचा हूँ, मेरी बराबरी का कोई नहीं है (चाहे वह वस्त्राभूषण जैसी क्षुद्र बात में ही सही) इस प्रकार का एक भी गुण मिलते ही इस अन्य गुणों में भी अपने आपको दूसरों के समान मान बैठते हैं। इस कल्पित श्रेष्ठता और उच्चता की भावना से हमारे अहं भाव की क्षणिक तृप्ति होती है। स्पर्द्धा द्वारा अपने को श्रेष्ठ या निकृष्ट-ऊँचा उठा हुआ अथवा नीचा गिरा हुआ समझना मानव प्रकृति का एक निगूढ़तम रहस्य है। इसके भले बुरे उपयोग पर हमारे जीवन का सुख या दुःख निर्भर है। यदि हम इस तुलनात्मक वृत्ति का सदुपयोग करें तो सुखी अन्यथा दुःखी बने रहेंगे।

अपने आपको इसलिए मत धिक्कारिये कि आप अपने को हीन पाते हैं। समझदारी से यदि आप अपनी तुलना दूसरों से करें, और सत्यता से परखें, तो आपको सौंदर्य, स्वास्थ्य, धन, प्रतिष्ठा, स्थिति आदि की नीचाई से उत्पन्न ग्लानि उत्पन्न होगी। वास्तव में आ। गलती यह कर बैठते हैं कि अपने व्यक्तित्व की दुर्बलताओं को दूसरों के व्यक्तित्व की अच्छाइयों या विशिष्टताओं से मिलाने लगते हैं। आपमें कुछ कमजोरियाँ हैं, तो स्मरण रखिये जिन्हें आप श्रेष्ठ समझते हैं, उन व्यक्तियों में भी निर्बलताएं हैं। उनकी अच्छाइयाँ देखते हैं तो कृपया अपने व्यक्तित्व को सहानुभूति से परख कर अपनी विशिष्टताएँ भी खोजिये। आपको अवश्य कुछ न कुछ अच्छाइयाँ मिलेंगी जो आपको आगे बढ़ने, सद्गुणों का विकास करने की प्रेरणा देंगी।

आत्म विश्वास स्वयं एक भावना ग्रन्थि है, एक स्वस्थ मानसिक आदत है तो दूसरी ओर आत्महीनता अर्थात् अपने विपक्ष में सोचना और अपने को दूसरों से नीचा समझना एक दूसरी ग्रन्थि हैं, एक अस्वस्थ मानसिक आदत हैं। तुलनात्मक दृष्टि से दूसरी अस्वस्थ आदत के गुलाम बनना दुखी जीवन बिताने की तैयारी करना है। गलत चीजों की तुलना से मनुष्य के जीवन में भारी असन्तोष छा जाता है। या तो आप अपनी अच्छाइयों को दूसरों की अच्छाइयों से मिलाइये अथवा मिलान का प्रश्न की न उठाइये।

अपनी तुलनात्मक दृष्टि का विश्लेषण कीजिए। थोड़ी देर के लिये यह सोचिये कि आखिर वह कौन−सी बातें हैं जिनसे आप अपना दूसरों से मिलान करने बैठे हैं? धन, प्रतिष्ठा, प्रभुता, महत्ता, पत्नी, सौंदर्य, स्वास्थ्य,बुद्धि अवश्य इनमें से कोई भावना आपके मन में विद्रोह मचा रही है। प्रारम्भ में तो यही मानिये कि ईश्वर न उपरोक्त सब गुणों में सब को सब चीजें समान मात्रा में प्रदान नहीं की हैं। किसी में कुछ अधिक हैं तो किसी में दूसरी बढ़ी हुई हैं। एक व्यक्ति बुद्धिमान विद्वान है, तो उसमें शारीरिक सौंदर्य बिल्कुल नहीं हैं, दूसरा रुपये पैसे वाला है तो उसे समाज से आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं। तीसरे के पास सौंदर्य है, तो चरित्र नहीं है संक्षेप में प्रत्येक का अपना अपना क्षेत्र पृथक पृथक है। जीवन एक दौड़ है। इस दौड़ में हम सब अपने ढंग से दौड़ रहे हैं। कोई आगे, तो कोई पीछे है।

एडवर्ड एल. थौर्नडाइक कहते हैं, “हम सदा किसी न किसी व्यक्ति से आगे निकलते जा रहे हैं। हमारे आगे दो व्यक्ति भाग रहे हैं, तो दस व्यक्ति पीछे भी तो छूटे जा रहे हैं। फिर हम उन पीछे वाले व्यक्तियों को देखकर थोड़ा सा संतोष क्यों न लें और नई प्रेरणा से आगे चलने वाले दो व्यक्तियों को हराने की हिम्मत क्यों न करें।”

वास्तव में हमें चाहिए कि अपनी विद्या बुद्धि धन आदि को समूचे समाज की विद्या बुद्धि धन आदि से तुलना न करें। एक सुन्दर स्त्री को चाहिए कि वह यह सोच कर दुःखी न रहे कि हाय! मैं सब से सुन्दर स्त्री क्यों न हुई। उसे अपने मुहल्ले ग्राम या प्राँत की साधारण सौंदर्य वाली स्त्रियों से मिलान कर ही सुख संतोष करना चाहिए। गलत मिलान करने की प्रवृत्ति प्रायः बचपन में उत्पन्न होती है। माता पिता एवं शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि उचित दिशाओं, स्थितियों अच्छाइयों को अच्छाइयों से ही मिलाइये और उत्साह पूर्वक उनकी अभिवृद्धि प्रयत्न कीजिए। यह समझ कर हतोत्साहित न हो जाइये कि यह कठिन या कष्ट साध्य है। गलत चीजों की तुलना करना और अपने को कमजोर पा कर चिन्तित होना हीनत्व की भावना ग्रन्थि उत्पन्न करना है। सावधान!


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