उपवास द्वारा आत्म-ज्ञान प्राप्त करिए!

June 1955

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(दौलतराम कटरहा, दमोह)

शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास का महत्त्व अब सभी लोग समझने लगे हैं किंतु उपवास से कुछ आध्यात्मिक लाभ भी हो सकता है इस बात पर कम ही लोग विश्वास करते हैं। यदि आप उपवास कर रहे हों तो पढ़े लिखे कहे जाने वाले बहुत से लोग समझते हैं कि आपको कोई रोग होगा अथवा रोग होने की कोई संभावना होगी। उनकी समझ में वह बात नहीं आती कि उपवास से किसी प्रकार आत्म शक्ति भी प्राप्त हो सकती है।

मैं समझता हूँ कि उपवास अपने आपको अपनी देह से पृथक् समझने का सदा सुलभ उपाय है। आप यदि अपने आपको यह आत्म संदेश देना चाहें कि आप आत्मा हैं शरीर नहीं चैतन्य है, जड़ नहीं, तो इस भाव को अपने अन्तस्तल में बैठा देने के लिए उपवास उत्तम उपाय है। केवल विचार मात्र का सहारा लेकर केवल “चिदानन्द रुपःशिवोऽहम् शिवोऽहम्” का मनन कर आप ब्रह्म-बिहार करने में कदाचित् ही सफल हों। मन में बार बार ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इस वाक्य चिन्तन करके कदाचित् ही वह भाव आपके अन्तस्तल में पक्की तौर से जमे। अनेक वर्ष से मैं स्वयं इस विचार को अपने हृदय तल में बैठाने का प्रयत्न करता रहा हूँ किन्तु केवल वाचिक प्रयत्न से कोई अधिक सफलता नहीं मिली। जब असली परीक्षा का समय आता है तभी वह विचार चित्त से गायब हो जाता है। अतएव अभी तो कोरा वेदांती हूँ। किन्तु अब विचार करता हूँ कि “मैं शरीर से भिन्न हूँ” इस विचार का क्रियात्मक अनुभव जब तक न करूंगा तब तक यह विचार केवल कल्पना-मात्र ही रहेगा। मुझे जान पड़ता है कि उपवास इस विचार को सफलता पूर्वक चित्त में जमाने का एक उत्तम साधन है।

‘मैं आत्म हूँ, देह नहीं,’ यह भाव केवल त्याग द्वारा ही हृदय में बैठाया जा सकता है। उपवास भी एक प्रकार का त्याग है अतएव उपवास द्वारा इस भाव की संप्राप्ति संभव है। उपवास द्वारा आपका शरीर क्षीण होता है, कार्य करने की कुछ शक्ति भी घटती है, किन्तु फिर भी हृदय में भाव यही रहता है कि मैं क्षीण नहीं हो रहा, क्षीण होता है शरीर। इस प्रकार शरीर से लगाव (देहाध्यास) कम होता जाता है। और उपवास सहित किए गए ये विचार चित्त में फिर दृढ़ता पूर्वक जम जाते हैं। जब आप प्रसन्नता पूर्वक अपनी कही जाने वाली वस्तुओं को घटते हुए देखते हैं, जब आप अपना धन और मान घटा हुआ देखते हैं अपना शरीर क्षीण हुआ देखते हैं, तभी आपके हृदय में यह भाव समाता है कि ‘आत्मा हैं देह नहीं। बिना त्याग के किसी भी प्रकार आप अपने असली स्वरूप को समझने में सफल न होंगे। जब तक आप अपना ऊपरी आवरण नहीं उतार फेंकते तब तक आपका उस आवरण से ही अत्यधिक लगाव बना रहेगा और उसके हानि-लाभ में ही आप दुखी सुखी होते रहेंगे।

उपवास द्वारा आत्म-साक्षात्कार करने का यह मार्ग कोई नया मार्ग नहीं है। उपवास द्वारा पवित्र होकर भगवान बुद्ध उस परम तत्त्व को समझे। भगवान महावीर स्वामी ने भी उपवास और अन्य साधनाओं द्वारा ‘जिन’ पद पाया। और आज भी हम उपवास सहित अनेक साधनाएँ और व्रत सम्पन्न करते ही हैं।

लोग कहते हैं कि “भूखे भजन न होइ गुपाला” पर मैं समझता हूँ कि सच्चा भजन तो भूखे रह कर ही होता है। भरे हुए पेट से किया हुआ भजन उतना फल दायक नहीं होता जितना खाली पेट से किया हुआ भजन। जब पेट भरा हुआ रहता है तब चित्त वृत्ति बहिर्मुखी अधिक रहती है अतएव भरे हुए पेट से की हुई साधना उतनी फलवती नहीं होती जितनी खाली पेट से की हुई साधना। ठंडे लोहे को पीट पीट कर उसे मन चाहे आकार में परिवर्तित करना उतना सरल नहीं है जितना कि गर्म किए हुए लोहे को। ठंडे लोहे की उपमा हम भरे हुए पेट से दे सकते हैं और लाल गर्म लोहे की खाली पेट से। अतएव खाली पेट रहने पर हम अधिक प्रभाव-ग्राही होते हैं उस समय जो कुछ भी हम करते हैं उसका प्रभाव हम पर अपेक्षाकृत अधिक पड़ता है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा मन किन्हीं विशेष प्रकार के विचारों में रमने लगे तो हमें वे विचार उपवासी होकर पढ़ने चाहिए, उपवासी रह कर ही उन पर मनन करना चाहिए। ऐसा करने पर शीघ्र ही चित्त में उन विचारों से पूर्ण वातावरण की सृष्टि हो जायगी।

उपयुक्त विवेचन से उपवास की महत्ता स्पष्ट हो जायगी किन्तु इसका कोई यह अर्थ न लगाए कि हम सदा सबदा उपवासी ही बने रहें। इस सम्बन्ध में भी हमें ‘मध्यम मार्ग’ अपनाना होगा। भगवान कृष्ण ने ही कहा है कि योग न तो एक दम अधिक खाने वाले को ही सिद्ध होता है और न एक दम कम खाने व ले ही को। अतएव हमें इस सम्बन्ध में विवेक से काम लेना चाहिए। जैसे कि कोई राहगीर न तो एक दम चलता रह कर ही अपना सफर पूरा कर सकता है और न एक दम एक जगह बैठे रह कर ही, बल्कि उसे समय पर बीच बीच में विश्राम लेते हुए चलना पड़ता है और रास्ता है करना है उसी प्रकार अध्यात्म-पथ के पथिक को भी कभी उपवासी रहकर और कभी भोजन कर अपने मार्ग की अंतिम मंजिल को पहुँचना होगा। उपवास के सम्बन्ध में अतिवादी नहीं होना चाहिए। निरतिवाद अथवा मध्यम मार्ग ही हमारे लिए ग्राह्य प्रतीत होता है। अतएव जब कभी आप उपवास रखना चाहें तो यह भावना करिए और यह स्पष्ट उद्देश्य अपने सामने रखिए कि इस उपवास द्वारा मैं यह अनुभव करना चाहता हूँ कि मैं आत्मा हूँ, चैतन्य स्वरूप हैं, शरीर और मन आदि से पृथक सत्ता हूँ, तो इस संकल्प के द्वारा आप उपवास से प्राप्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ लाभ भी उठाएंगे और उपवास की अति से भी बच जाएंगे। आपकी यह भावना और संकल्प आपको अतिवादी होने से बचाएगी अन्यथा आप उपवास-जन्म छोटे मोटे लाभ प्राप्त कर ही रह जावेंगे और उपवास का सर्वश्रेष्ठ फल आपको प्राप्त न हो सकेगा।

कई बार उपवास करते समय मेरे मन में विचार उठते रहे हैं कि मैं उपवासों के कारण अपने शारीरिक बल को नहीं बढ़ा पाता हूँ, शरीर क्षीण हो जाता है और कार्य क्षमता भी घट जाती है अतएव उपवास छोड़ दूँ। किन्तु ज्यों−ही उपवास छोड़ने का यह प्रलोभन मुझे मिलता है, त्यों−ही हृदय में प्रति पक्षी विचार उठता है कि मैं बल नहीं चाहता, अमरत्व, नहीं चाहता, विद्या नहीं चाहता, तो चित्त की डाँवाडोल स्थिति मिट जाती है और मन दृढ़ बना रहता है।

जब आप उपवास करेंगे तो आपको विचलित करने के लिए आपका ही मन आपके सामने अनेक कारण व तर्कनाएँ उपस्थित करेगा जिससे कि आप उसे छोड़ दें, किन्तु अनेक प्रलोभनों को अस्वीकार कर देने पर ही तथा मन द्वारा प्रदर्शित भयों से भयभीत न होने पर ही आप अपने व्रत पर डटे रह सकेंगे अन्यथा इस मन ने बड़े बड़ों को धमकाया है, डराया है और प्रलोभन दिया है। महात्मा ईसा जिन दिनों उपवास कर रहे थे तो उनके मन ने ही शैतान के रूप में उन्हें राज्य आदि का लोभ दिखाया। भगवान बुद्ध को उनके मन ने ही ‘मार’ के रूप में उपस्थित होकर कठोर तपस्या से विरत होने के लिए डराया। किन्तु संसार के ये मुकुटमणि अडिग रहे और उन्हें अपने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त हुआ। अतएव उपवास करते समय अपने मन में उठने वाली अनेक कुतर्कनाओं से आप विचलित न होइये बल्कि मन से दृढ़ता पूर्वक कह दीजिए कि मैं बल नहीं चाहता, स्वास्थ्य नहीं चाहता, यश नहीं चाहता बुद्धि नहीं चाहता आदि। जो जो भी प्रलोभन मन दे, उन सबको नकारते जाइये, तभी आपकी जीत होगा, अन्यथा ‘शैतान’ या ‘मार’ आपको डिगा देगा।

मेरे सामने जब प्रलोभन आते हैं तब मुझे नचिकेता, उमा, सीता और हनुमान का स्मरण हो आता है। इन महान आत्माओं को अनेक प्रलोभन दिए गए किन्तु कोई भी प्रलोभन इन्हें लुभा न सका। मैं चाहता हूँ कि हम सब इन दृढ़ व्रतियों का आदर्श अपने सामने रखें और बढ़े चलें। हनुमान जी की दृढ़ता तो देखिए। सीता जी ने उन्हें आशीर्वाद देना चाहा और कहा कि हे तात, तुम बल और शील के निधान होओ, तुम अजर, अमर और गुणों के खजाने होओ। किन्तु सीता जी के इस आशीर्वाद से हनुमान का हृदय-कमल तनिक भी प्रफुल्लित नहीं हुआ। किन्तु जब सीता जी ने कहा कि तुम पर प्रभु कृपा करें, तुम राम-भक्त बनो तो हनुमान जी का हृदय नाच उठा। यद्यपि हनुमान जी बलवान थे किन्तु उनको बल की कामना नहीं थी, बुद्धिमान और शीलवान थे फिर भी बुद्धि और शील की कामना उन्हें नहीं थी। वे भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ वस्तु मानते थे और वही उन्हें मिली भी। नचिकेता से यमराज ने कहा कि नचिकेता तुम राज्य माँग लो, सौ वर्षों तक जीने वाले पुत्र, पौत्र माँग लो किन्तु मृत्यु का रहस्य, अमरत्व का गूढ़ तत्त्व मत पूछो। किन्तु नचिकेता अचंचल बना रहा और उसने कहा मुझे यह सब कुछ न चाहिए आप मुझे इसी तत्त्व का उपदेश करें। नचिकेता की वह परीक्षा थी। प्रलोभनों पर उसने विजय पाई और यमराज ने उसे उपदेश दिया और उसे वह ज्ञान मिला जिसे पाकर मनुष्य वस्तुतः अमर हो जाता है। इन कथाओं के उल्लेख से मेरा प्रयोजन यह है कि यदि आपका अंतिम लक्ष्य बल प्राप्त करना होगा, अथवा बुद्धिमान और विद्यावान होना होगा तो आप अपने व्रत को निभा नहीं सकेंगे। जहाँ इनका प्रलोभन मिला कि आप फिसल पड़ेंगे। अतएव अपने व्रत का अनुष्ठान करते समय संकल्प कीजिए कि मैं बल, विद्या,बुद्धि, स्वास्थ्य यश, ऐश्वर्य विजय, पराक्रम आदि कुछ नहीं चाहता, वरन् चाहता हूँ कि मैं यह अनुभव करूं कि मैं शुद्ध आनन्द-स्वरूप आत्मा हूँ, देह और इन्द्रिय से पृथक चैतन्य हूँ। तब अन्तिम विजय आपका चरण-चुंबन करेगी और आपका कल्याण होगा।


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