(पं. तुलसीराम शर्मा, वृन्दावन)
चरित्रवान पुरुष भगवान के बराबर है।
अन्य दुखेनयोदुखीयोऽन्यहर्षेणहर्षितः।
स एव जगतामीशोनररूपवरो हरिः॥ 69॥
(नाद पु. पूर्वखंड अ.)
अन्य के दुख से जो दुखी है, अन्य के हर्ष से जो हर्षित है वह जगत का ईश नर रूप धारी भगवान है।
पुण्योपदेशीसदयः कैतवैश्चविवर्जितः। पाप मार्गविरोधी च चत्वारः केशवोपमाः॥17॥
(पद्म पु. क्रिया योगासार खंड 7 वाँ आ. 117)
धर्मोपदेश, दयावान, छल कपट से शून्य, पाप मार्ग के विरोधी ये 4 भगवान के तुल्य हैं।
ज्ञान रत्नैश्च रत्नैश्च पर सन्तोषकृन्नरः।
सज्ञेयः सुमतिर्नूनं नर रूप धरोहरिः॥19॥
(पद्म पु. 7 वाँ क्रिया योगसार खंड अ.1)
ज्ञान रूप रत्नों से, और द्रव्यादि से जो सत्पुरुषों को संतोष करता है ऐसे पुरुष को मनुष्य रूपधारी भगवान् समझना चाहिए।
द्वचं यस्यवशे भूयात् स एवस्पाज्जनार्दनः॥29॥
(वैशाख माहात्म्य 22)
शिश्न और जिह्वा ये दो जिसके वश में हैं वह भगवान् है।
अनाढ्यामानुषेवित्ते आढ्यावेदेषुयेद्विजाः। तेदुर्द्धर्षादुष्प्रकम्प्या विद्यात्तान् ब्रह्मणात्स्तनुम॥
(म॰ भा.उ अ. 43।39)
जो द्विज मानुषी धन (स्त्री पुत्र सुवर्णादि) के धनी नहीं हैं और वैदिक धन (हिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, शाम, दम) के धनी है वे विवेकियों के मत में ब्रह्म के शरीर हैं वे बड़े तेजस्वी और दुष्प्रकम्प्य हैं।
श्री शंकराचार्य जी ने इस वचन के भाष्य में लिखा है कि—‘वेदेषवेद प्रतिपाद्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य शमादि साधनेषु’ अर्थात् वेद में कहे अहिंसा, सत्य आदि में लगा हुआ पुरुष ब्रह्म का शरीर है।
चरित्रवान् ही पंडित व बुद्धिमान् है।
न पण्डितोमतो राम बहु पुस्तक धारणात्।
परलोक भयं यस्य तमाहुःपण्डितं बुधाः॥13॥
(विष्णुधर्मोत्तर पु. खं. 2 अ. 51)
हे! राम बहुत पुस्तक पढ़ने से पण्डित नहीं माना जाता, जिसको परलोक का भय है उसको बुद्धिमान् जन पण्डित कहते हैं॥13॥
निषेवतेप्रशस्तानिनिन्दितानिन सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डित लक्षणम्॥16॥
(स. भा.उद्योग. अ. 33)
जो उत्तम कर्मों का सेवन करता है निन्दित कर्मों से बचता है आस्तिक है (यहाँ के किये कर्मों का फल अवश्य परलोक में भोगना पड़ेगा) गुरु व शास्त्र में विश्वास है ऐसा पुरुष पण्डित है॥
वृत्तस्थमविचाराडालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥193॥
(पद्म पु. सृष्टि खण्ड अ. 47)
चरित्रवान् चाण्डाल को देवता ब्राह्मण समझते हैं।
शूद्रोऽपिशील सम्पन्नो ब्राह्मणादधिको भवेत्।
ब्राह्मणो विगताचारः शूद्राद्धीनतरोभवेत् ॥31॥
(भविष्य पु. अ. 44)
सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है दुराचारी ब्राह्मण शूद्र से गया हुआ है।
चतुर्वेदोपि दुर्वृतः सशूद्रादतिरिच्यते॥111॥
(म. भा.वन.अ.313)
चारों वेदों का जानकार ब्राह्मण यदि दुराचारी है तो वह शूद्र से गया बीता है।
नकुलंवृत्तहीनस्य प्रमाण मिति मे मतिः।
अन्त्येष्वपिहिजातानां वृत्तमेव विशिष्यते॥14॥
(म. भा. 3034)
मेरी समझ में अच्छे कुल में उत्पन्न होने पर भी जो मनुष्य दुराचारी है वह आदरणीय नहीं। यदि नीच कुल में उत्पन्न हुआ भी सदाचारी है तो वह मान्य है कारण कि सदाचारी ही उत्तमता का हेतु है।