दमा और उसका इलाज

June 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री हीरालाल)

दमा एक प्रकार का श्वाँस रोग है जिसके सम्बन्ध में जनसाधारण की धारणा है कि वह दम के साथ ही जाता है। वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। उचित ढंग पर चिकित्सा द्वारा इसका निर्मूलन हो सकता है। पर अभी तक इस रोग की जो चिकित्साएँ प्रचलित हैं उन में रोग के कारण पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता। रोग के कारण पर विचार करके उसका सुगमता से निवारण किया जा सकता है।

आयुर्वेद वाले इस रोग के मुख्यतः दो कारण बताते हैं—1−प्रत्यक्ष 2−अप्रत्यक्ष।

प्रत्यक्ष—ऐसा भोजन करना जो दाह पैदा करे,अजीर्ण पैदा करे, जो गर्मी या सर्दी पैदा करे, एकदम ठण्डा जल या भोजन।

अप्रत्यक्ष—व्यायाम, अधिक भार ढोना, मलमूत्र की हाजत रोज भोजन करते समय तृप्त न होना।

तात्कालिक प्रत्यक्ष साधारण धुएँ या धूल में रहना है। एलोपैथ इसे स्नायविक रोग कहते हैं। उनका कहना है कि दमा श्वांस पर रोगी के हृदय और फेफड़े में कोई दोष नहीं पाया जाता। इसी आधार पर सुइयाँ तथा अन्य दवाइयाँ उन्होंने ईजाद की हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा का मत—

प्राकृतिक चिकित्सा में सब रोगों की जड़ एक ही मानते हैं ‘गलत आहार व्यवहार’ और उसे ठीक कर लेना ही सब रोगों की दवा है। उनका कहना है कि प्राकृतिक जीवन बिताने मात्र से अन्य रोगों की तरह दमा भी जड़ से ठीक हो सकता है। अन्य रोगों में तो इतनी गुंजाइश होती है कि एकाध बार गलती हो जाने पर भी संभल जाता है लेकिन इसमें तो जरा भी रियायत नहीं होती दमा रोग के रोगी को आजीवन प्राकृतिक जीवन बिताने का व्रत लेना चाहिये।

पोषण के लिए शरीर में दो प्रधान कार्य होते हैं। 1—समीकरण 2—बहिष्करण। इन दोनों क्रियाओं के सहयोग से ही जीवन−क्रिया पूर्ण होती है। समीकरण अवयवों में जीर्णमण्डल का प्रमुख स्थान है। फेफड़े के साथ−साथ हृदय भी समीकरण अवयव कहा जाता है। जीर्णमण्डल के अन्दर ठोस और द्रव पदार्थ की पाचन क्रिया होती है। हृदय प्राण वायु ग्रहण करता है और हृदय ही शरीर के प्रत्येक भाग में रक्त पहुँचाता है। रक्त पहले दिमाग में, तब बाजू में और सीने में और अन्त में शरीर के निचले भाग में आता है। इस प्रकार सारे शरीर को भोजन मिलता है।

बहिष्करण—इस क्रिया द्वारा शरीर में पैदा हुआ कचरा बाहर निकलता है। इसके निम्नलिखित मार्ग हैं 1—मलाशय, मूत्राशय, त्वचा, श्वाँसनली। इन क्रियाओं में खराबी पैदा होने पर रोग का जन्म होता है। जब पेट ठीक−ठीक साफ नहीं होता तो नीचे की पसलियाँ पूरी तरह काम नहीं करतीं। नतीजा यह होता है कि हमें साँस लेने में कठिनाई का अनुभव होता है और अन्दर−ही अन्दर गन्दगी सड़ान पैदा करती है। उस समय गन्दगी के निकालने का सारा काम त्वचा पर आ पड़ता है और अन्त में अधिक काम करते−करते त्वचा मन्द होकर अपने कार्य में शिथिल हो जाता है।

धुंआ या धूल साँस के साथ जाने से उसमें जो छोटे−छोटे कण होते हैं वे श्वाँस नली में जम जाते हैं जिससे साँस लेने में कठिनाई होती है। नम हवा में साँस लेने से श्वाँसनली सिकुड़ जाती है और साँस लेना दुश्वार हो जाता है। ठंडी हवा लगने के बाद शरीर में गरमी न पैदा होने से रोम−कूप सिकुड़ जाते हैं जिससे दूषित पदार्थ शरीर से बाहर न निकल रक्त में मिल जाता है और गुरदे के द्वारा बाहर निकलने की कोशिश करता हे लेकिन गुरदे के ऊपर अधिक कार्य का बोझ पड़ जाने से वह भी खराब हो जाता है। इस प्रकार किसी एक के शिथिल पड़ जाने से उसका बोझ बाकी तीनों भागों पर पड़ता है। नतीजा यह होता है कि अन्त चारों मार्ग निष्क्रिय हो जाते हैं।

हमारे भोजन में जब सब तत्व−श्वेतसार, प्रोटीन, वसा, विटामिन, प्राकृतिक लवण और फुजला−उचित मात्रा में नहीं होते हैं तब अनेक अभाव जन्य रोगों के साथ कब्ज शुरू हो जाता है, जो सब रोगों का जन्मदाता कहा जाता है।

भोजन में आधिक माँस, मछली, दाल, अंडे आदि अम्ल खाद्य रहने से अधिक मात्रा में यूरिक एसिड पैदा होता है। यूरिक एसिड पैदा हो जाने से रक्त गाढ़ा होकर संचालन शिथिल पड़ जाता है और मूत्रेन्द्रिय उसे निकालने में असमर्थ हो जाती है। इस अम्ल के कारण ही दमा का जन्म होता है।

प्राकृतिक उपचार—

रोग के इन कारणों को प्राकृतिक उपचारों द्वारा सुगमता से दूर किया जा सकता है और प्राकृतिक नियमों का पालन कर स्वास्थ्य लाभ किया जा सकता है। अस्तु, जब कभी रोग का उभार हो उस समय—1—जब तक उमाड़ रहे केवल गरम पानी में नीबू कागजी या कोई भी निचोड़ दिन भर में दो तीन सेर पानी 10−12 बार में पाव−पाव भर की मात्रा में पीना चाहिये।

2—गुनगुने पानी का सुबह शाम एनिमा लेना चाहिये।

3—सीने और पीठ पर गरम सेंक दिया जाय।

4—यदि सुविधा हो तो दोनों बगल में गरम पानी की बाल्टी रख कर उसमें 15 मिनट तक दोनों हाथ डालें। पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि हाथ और श्वास नली का क्या संबंध है? हाथ और श्वास नली का सब से निकट संबन्ध है।

5—पैरों को गरम पानी में 20−30 मिनट तक रखना और ऊपर से कम्बल ओढ़ लेना। पसीना निकल आने पर बदन ठण्डे तौलिये से रगड़ लेना चाहिये।

6—यदि प्रबन्ध हो तो आदम−कद टब में 67−100 डिग्री गरम पानी में आधे घण्टे से एक घण्टे तक लेटना।

7—पूरे शरीर की गीली पट्टी। किसी महीन कपड़े को ठण्डे पानी में भिगोकर निचोड़ लेना चाहिये। उसे शरीर में लपेट कर ऊपर से दो तीन कम्बल लपेट देना चाहिये। सुलाने के पहले एक गिलास गरम पानी पिला देना चाहिये। यदि पसीना न हो तो बीच−बीच में भी गरम पानी पिलाते रहना चाहिये।

स्थायी रोग में एनिमा, पेडू तथा मेहन नहान, उचित आहार−विहार, सूर्य स्नान, उचित व्यायाम आदि नियमपूर्वक चलना चाहिये।

भोजन—

भोजन ऐसा होना चाहिये कि जिसमें शरीर के लिये आवश्यक सभी तत्व मिल जायें और साथ ही अधिक क्षारमय हो। भोजन इस प्रकार रखें।

40 प्रतिशत फल—सेब, केला, नीबू, सन्तरा, नाशपाती, किशमिश, मुनक्का, अंगूर, शहतूत, अनानास, खरबूजा, तरबूजा,बेर, रसभरी, सरदा, गुलाब जामुन आदि। लेकिन खाते समय यह स्मरण रहे कि केले अथवा खजूर को रोटी की ही जगह पर खाना चाहिए और साथ में अलग से चोकर भी। फलों का मीठा और रसदार दोनों का होना आवश्यक है।

मेवा—किशमिश, अंजीर, मुनक्का आदि। इन मेवों को खाने के बारह घण्टे पहले पानी में भिगो देना चाहिये और खाते समय पानी पीकर उसे खा लेना चाहिये।

40 प्रतिशत तरकारी—पात गोभी, चुकन्दर, गाजर, शलजम फूलगोभी, ककड़ी, खीरा, प्याज, मूली, टमाटर, लहसुन, पालक, हरी अजवाइन, हरी धनिया, शलजम की पत्ती, करमकल्ला, हरी मटर, लौकी, करेला, कुँभड़ा, परवल, नेनुआ, तोरई, चिंचिड़ी, टिंडा, सहजन, इनमें जिनका मौसम हो उसे पकाकर खाना चाहिये लेकिन यह ख्याल रहे कि कोई न कोई पत्तीदार सब्जी भोजन में जरूर होनी चाहिये।

सलाद की पत्ती, हरी अजवाइन, टमाटर, खीरा, ककड़ी, पातगोभी, करमकल्ला आदि प्रत्येक पत्तीदार साग का इस्तेमाल सलाद में हो सकता है। सलाद के स्वाद को बढ़ाने के लिये उसमें हरी गरी के बारीक लच्छे, किशमिश अथवा मकोय आदि कोई भी चीज मिला सकते हैं प्याज थोड़ी मात्रा में होनी चाहिये। प्याज और लहसुन स्वादिष्ट बनाने हैं।

10 प्रतिशत गेहूँ, चावल, ज्वार, बाजरा, मकई या कोई भी अन्न। लेकिन उनका कन और चोकर अलग नहीं करना चाहिये।

10 प्रतिशत दूध और दूध जनित पदार्थ तथा गरी, खजूर आदि काष्ठज फल।

ऊपर के अनुपात को ध्यान में रख कर भोजन इस प्रकार रखना चाहिये—

नाश्ता—कोई भी रसदार फल—टमाटर, मकोय,संतरा,मौसमी। यदि इन फलों का अभाव हो तो अमरूद या किशमिश को भिगोकर खाना चाहिये। अच्छा होगा यदि नाश्ता न किया जाय।

दोपहर—चोकर समेत आटे−की रोटी या करण समेत चावल का भात, मिली हरी सब्जी कुछ कच्ची और कुछ पकी।

शाम को हो सके तो फल और दूध नहीं तो दोपहर का ही भोजन करना चाहिये।

भोजन खूब चबा चबाकर खाना चाहिये। खाते समय पानी नहीं पीना चाहिये। सोने के एक घण्टे पहले और दो तीन घण्टे बाद पानी पीना चाहिये।

स्नान—

पेडू नहान—टब में पानी इतना भरना चाहिए कि उसमें बैठने पर नाभि के नीचे तक रहे। नहान लेते समय पैर बाहर रखना चाहिए। इसके लिए जाड़े के दिनों में तो कुएँ अथवा नल का ताजा पानी, लेकिन गर्मी के दिन में शाम को मिट्टी के घड़े में पानी को भरकर बालू पर रख दिया जाय और उसे सुबह इस्तेमाल किया जाय। इसी प्रकार सुबह के भरे हुए पानी को शाम को इस्तेमाल किया जाय।

पानी में बैठकर गफ तौलिये से पुट्ठे पेडू को दांये सिरे से बांये सिरे तक−पानी में रहने वाले अंग−रगड़कर फिर हथेली से सुखा लेना चाहिए। यह नहान शक्ति के अनुसार 10−15 मिनट तक लेनी चाहिये। यदि रोगी बहुत ही कमजोर हो तो केवल 3−4 मिनट के नहान से ही शुरू करना चाहिये और फिर धीरे−धीरे बढ़ाना चाहिए।

मेहन नहान—टब में एक चौकी रख कर उसमें चौकी से 1−1॥ इंच ऊपर पानी भरें और चौकी पर बैठ कर और पैर बाहर रखकर नहान लेना चाहिए।

जननेन्द्रिय के घूँघट को बांये हाथ के पहले तीन अँगुलियों से पकड़कर दूसरे हाथ में कपड़ा लेकर हलके रगड़ना चाहिए। इसी प्रकार स्त्रियों को भी जननेन्द्रिय के चारों ओर हलके हाथों रगड़ना चाहिए। पेडू नहान की तरह इस नहान का समय भी धीरे−धीरे बढ़ाकर बीस मिनट तक बढ़ाया जा सकता है।

स्नान लेने के पहले सारे शरीर को हथेली से रगड़ना चाहिए और बाद में भी। नहान लेकर शक्ति के अनुसार नित्य 5−6 मील तेजी से गहरी साँस लेते हुए टहलना चाहिए। यदि टहल न सकें तो स्त्रियों को चक्की चलानी चाहिए और पुरुषों को खुले मैदान में अन्य कोई श्रम−कार्य चुनना चाहिए।

सूर्य स्नान—सुबह टहलकर आने के बाद नित्य 15−20 मिनट तक धूप में रहने के बाद तुरंत ठण्डे जल से रगड़−रगड़कर नहाना चाहिए।

उपवास—प्रत्येक रविवार या सप्ताह में किसी एक दिन केवल पानी में नीबू मिलाकर पीकर रहना चाहिए। दूसरे दिन गुनगुने पानी का एनीमा लेना चाहिए। उपवास के दिन एक पतली चद्दर ओढ़ कर धूप में एक गिलास गरम पानी पीकर सो जाना चाहिए।

जो भाई टब का इन्तजाम करने में असमर्थ हों उन्हें मिट्टी की पट्टी पेडू पर लेनी चाहिए। मिट्टी को 5−6 घण्टे भिगो देना चाहिए। फिर दस इंच लम्बी 5 इंच चौड़ी और 1 इंच मोटी पट्टी दिन में दो बार—सुबह शाम रखनी चाहिए।

सीना पट्टी—किसी महीन कपड़े को पानी में भिगो कर निचोड़ लेना चाहिए। सीने के चारों तरफ तीन चार बार लपेट कर ऊपर कोई ऊनी कपड़ा लपेटना चाहिए। इस पट्टी को आधे घण्टे से 1 घण्टे तक रखना चाहिए।

इन नियमों पर चलकर अमीर−गरीब सभी लोग लाभ प्राप्त कर सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: