एकाग्रता और संकल्प शक्ति

June 1955

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(श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती)

नित्य अभ्यास द्वारा जब तक हमारे कुविचार पूर्ण नष्ट न हो जायं, हमें एक समय एक ही सत्य पर अपने मन को एकाग्र करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए। तभी हमारा मन एकाग्रता को प्राप्त करेगा और तत्काल विचार-समूह नष्ट हो जायगा। पातंजली ने भी अपने योग सूत्र में कहा है—

“तत्प्रतिषेवार्थमेकतत्त्वाभ्यासः”।

मन के संकल्प स्वयं ही दुःख हैं। संकल्प का अभाव ही ब्रह्मानन्द है। संकल्प की कालिमा को विवेक और दृढ़ प्रयत्नों द्वारा नष्ट एवं दिव्य ज्योति को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द के सागर में गोते लगाओ।

प्रत्येक विचार का एक मानसिक मूर्त-रूप होता है। विचार आदत बन जाते हैं। आदत ही परिस्थिति का रूप ग्रहण करती है। यदि एक बार भी अपने कार्य के विचार का ध्यान किया तो मन उस दिशा में अवश्य सोचना प्रारम्भ कर देगा। धीरे-धीरे वही आदत बन जायगी। आपके मन की सम्पूर्ण शक्ति उसी ओर प्रवाहित होने लगेगी। बार-बार सोचने के लिये आप मजबूर होंगे, अतः नित्य विचार, नित्य भावना और नित्य उद्गार को वश में करने की आवश्यकता है।

विचार एक महान् शक्ति है। “जैसा सोचोगे, वैसा बनोगे।” सोचो कि आप शक्ति हीन हैं, आप शक्ति हीन हो जाएंगे। अपने को मूर्ख समझो, सचमुच आप मूर्ख हो जाएंगे। ध्यान करो कि आप स्वयं परमात्मा हो, यथार्थ में आप परमात्मा का रूप प्राप्त कर लेंगे। प्रतिपक्ष-भावना का अभ्यास करो। क्रोध की हालत में प्रेम की भावना करो। निराशा में मन को आनन्द और उत्साह से भरो।

अन्ततः दुनिया केवल एक भावना अथवा विचार ही है। मन के संकल्प रहित होने पर दुनिया हवा हो जाती है और मन अवर्णनीय आनन्द में डुबकियाँ लगाता है। मन ने ज्यों ही विचार किया कि दुनिया तत्काल उसकी आँखों में झूल जाती है, और उससे पीड़ा का साम्राज्य शुरू हो जाता है।

कुविचार कैसे दूर किये जा सकते हैं? उन्हें भूल कर। कैसे भूलना चाहिए? उसमें पुनः न डूब कर। पुनरावृत्ति को कैसे रोका जा सकता है? अधिक आनन्ददायक दूसरी बात का ध्यान कर दुःख की उपेक्षा करो, भूलो। अधिक आनन्ददायक विषय का चिन्तन करो। यह महान् साधना है। गीता के दिव्य विचारों को मन में जमाओ। उपनिषद् और योगवाशिष्ठ के उन्नत विचारों का ध्यान करो। आत्मा में उन्मुख बन कर आन्तरिक ध्यान करो, विचार करो, तर्क करो। साँसारिक विचार, घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, क्रोध काम आदि भावनाएँ तत्काल नष्ट हो जायेंगी।

विचार और विचारक दोनों भिन्न हैं। इस बात को सदा याद रखो। यह इस बात का प्रमाण है कि ‘आप’ और मन पृथक् पृथक् हैं। आप तो केवल मनोत्पन्न भावनाओं के मौन प्रेक्षक हैं। आप तो कूटस्थ ब्रह्म हैं। आप प्रत्यागात्मा हैं।

जिस प्रकार गंगोत्री से निकलकर गंगा नित्य सागर की ओर बहती है, उसी प्रकार वासनामय मनोगत संस्कारों के उद्गम से निकल कर विचार-लहरें भी जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में नित्य विषयों की ओर दौड़ती है। पहियों के अधिक गरम होने पर इंजन को भी इंजन शेड में भेज देते हैं, पर यह मन-रूपी रहस्यमय इंजिन तो सदा विचार-चक्र पर चलता ही रहता है। मस्तिष्क आराम चाहता है, पर मन नहीं। मनोनिग्रही योगी सदा जागता है। ध्यान ही में उसे विश्राम मिलता है। मन ही आत्म शक्ति है।

साधारण लोगों को एक ही समय चार-पाँच प्रकार के विचार आ घेरते हैं, यथा घर-गृहस्थी, व्यापार, आफिस, शरीर, खान-पान, आशा, धनोपार्जन, प्रतिशोध आदि के विचार। यदि आप 3-30 बजे ध्यान से किसी पुस्तक को पढ़ रहे हैं तो 4 बजे क्रिकेट मैच देखने का विचार तत्काल आकर आपके चित्त को चंचल कर देता है। केवल योगी ही, जिसने मन को एकाग्र कर लिया है, एक समय में एक ही विचार को रख सकता है।

मानसिक क्रियाएं ही सच्ची क्रियाएं हैं। विचार ही सच्ची क्रिया है। विचार प्रबल शक्ति है। छूत की तरह फैलता है। क्रोध का विचार आसपास के लोगों में भी क्रोध की भावना जाग्रत करेगा। इसी तरह सहानुभूति और आनन्द आदि के विचार दूसरों में भी इन्हीं भावनाओं को जाग्रत करेंगे। अतः विचार सदा दिव्य एवं उच्च रखो। बुरे विचार स्वयँ मर जाएंगे। दिव्य विचार बुरे विचारों को रोकने के लिए अचूक औषधि है।

साँसारिक प्राणी सदा काम के विचार तथा घृणा, क्रोध एवं प्रतिशोध के विचारों का शिकार होगा। उसका मन इन दोनों में ही फिरता है। इनका वह गुलाम है। उसे नहीं सूझता कि इनसे बच कर किस प्रकार अन्य विचारों पर मन केन्द्रित हो। मन की आंतरिक क्रियाओं से वह अनभिज्ञ रहता है। अपने अथाह ऐश्वर्य एवं विश्वविद्यालयों में प्राप्त थोथे ज्ञान के होते हुए भी उसकी दशा अत्यन्त शोचनीय है। विवेक से वह दूर रहता है। सन्त, शास्त्र और ईश्वर में उसे श्रद्धा नहीं है। दुर्बल इच्छा शक्ति के कारण वह बुरी भावना, लालसा एवं मोह के तूफान को रोकने में असमर्थ है। उसका उपाय तो सत्संग ही है।

किसी एक भौतिक जीवन की विभिन्न मानसिक मूर्तियों का सारभूत अंश मानसिक धरातल पर तोला जाता है। उसी की आधार-शिला पर दूसरे भौतिक जीवन का महल खड़ा है। प्रत्येक जन्म में जिस प्रकार नवीन शरीर बनता है, वैसे ही उसमें बुद्धि और मन का भी निर्माण होता है।

नित्य-उत्तेजित यह मन, अनंत ब्रह्म से उत्पन्न होकर अपने संकल्प के अनुसार जगत का निर्माण करता है। संकल्प ही संसार है, और उसका नाश मोक्ष है गीता में कहा भी है—“सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते।” सारे संकल्पों को छोड़ कर ही योग में आरूढ़ हो सकते हो।

विचार एक जीवित बल है- संसार में सर्वोच्च, गंभीरतम अटूट बल है। विचार जीवित पदार्थ हैं। उनमें गुरुत्व है। आप भले मर जायँ, पर आपके विचार कभी न मरेंगे। उनमें रूप, आकृति, रंग गुण, तथ्य, शक्ति और भार है। विचार के द्वारा हम सृजन-शक्ति प्राप्त करते हैं। विचार चंचल होते हैं। जड़ जगत की प्रत्येक वस्तु सर्व प्रथम विचार में उत्पन्न होती है। फिर वह रूप ग्रहण करती है, जैसे दुर्ग, मूर्ति, चित्र, मशीन। तात्पर्य यह कि प्रत्येक चीज की उत्पत्ति सर्वप्रथम उसके निर्याता के मन में होकर फिर बाह्य अभिव्यक्ति या रूप ग्रहण करती है।

विचारों के शक्तिकण कथित शब्दों के रूप में ही किसी एक दिशा में केन्द्रित होते हैं। मन में आकर्षण शक्ति है। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है। यह संसार का नियम है। आप स्वयं अपनी ओर नित्य आकर्षित होते रहते हैं, यह आकर्षण-तत्वों विचारों एवं दशाओं के दृश्य एवं अदृश्य दोनों रूपों से होता है।

आपका मनोगत प्रथम विचार ‘अहं’ था। अंतिम विचार जो ब्रह्म में लीन होने के पूर्व आप में उत्पन्न होगा, वह ब्रह्माकार वृत्ति है, जो आपकी ब्रह्म-भावना से पैदा होता है।

संकल्पों की अमर्यादित निर्झरिणी हितकारक नहीं है। यह तो दुर्भाग्य की धारा है। एक क्षण के लिए भी साँसारिक पदार्थों पर ध्यान न दो। इस संकल्प से छुटकारा पदार्थों पर ध्यान न दो। इस संकल्प से छुटकारा पाने के लिए अधिक शक्ति का व्यय न करो। सम्पूर्ण विचारों को रोकने पर मन स्वयं नष्ट हो जायगा। फूल को मसलने में भी कुछ प्रयत्न करना होता है पर संकल्प के नाश के लिए इसकी भी आवश्यकता नहीं है। विचारों के निग्रह से संकल्प नष्ट हो जाता है। आन्तरिक संकल्प से बाह्य संकल्प को और शुद्ध मन से अशुद्ध मन को नष्ट कर आत्म-ज्ञान में दृढ़ होकर रम जाना चाहिये। मोह, ममता, भ्रम, ईर्ष्या काम, स्वार्थ एवं क्रोध से रहित मन ही परमात्मा का नित्य स्मरण कर सकता है।

साँसारिक विषयों का चिन्तन मन का साधारण स्वभाव है। ईश-स्मरण के बजाय वह गंदे विचारों में तत्काल फँस जाता है। नित्य प्रयत्न और त्याग द्वारा ही परमात्मा की ओर उसे मोड़ना चाहिए। स्वभाव के प्रतिपक्षी होने पर भी उसे इस ओर शिक्षित करना होगा। साँसारिक दुख-दर्दों से बचने के लिए और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

साधारण जनता गंभीर चिन्तन को नहीं समझती। उसकी मानसिक मूर्तियाँ बिखरी हुई होती हैं। केवल विचारक, दार्शनिक एवं योगियों की मानसिक कल्पनाएँ सुव्यवस्थित एवं स्पष्ट होती हैं। एकाग्रता और ध्यान के अभ्यासियों की भावनाएँ दृढ़ एवं सुघड़ होती हैं।

संसार की सहायता के लिए संन्यासियों का प्लेटफार्म पर आना आवश्यक नहीं है। वह तो हिमालय की गुफा में रहता हुआ भी दुनिया की मदद कर सकता है, और उसे अपनी विचार-लहरों से पवित्र करता है। उसका जीवन स्वयं ही शिक्षा का प्रतीक है। परमात्मा को पाने के इच्छुक लोगों के लिए वह जीवित आशा है। भारतीयों ने भी पश्चिमी प्रचार-वृत्ति को अपना कर यह कहना शुरू कर दिया है कि हमारे संन्यासियों को बाहर आकर सामाजिक एवं राजनैतिक हलचलों में भाग लेना चाहिए। यह भयंकर भूल है। एक संन्यासी या योगी किसी संस्था का प्रधान अथवा किसी भी सामाजिक व राजनैतिक आँदोलन का नेता नहीं हो सकता। संन्यासी का कर्तव्य तो शंकर के अद्वैत वेदान्त के आध्यात्मिक ज्ञान को फैलाना है।

विचारों में तूफान चलता रहता है। कभी-2 मन चक्कर खाने लगता है। आपको इन्हें एकाग्र कर एक विशेष स्वरूप देना चाहिए। तभी दार्शनिक विचार भी दृढ़ होंगे। विचार, मनन और ध्यान अव्यवस्थित विचारों को दृढ़ आधार पर ला खड़ा करेंगे।

मान लो कि आपका मन पूर्ण शान्त है, उसमें कोई विचार वर्तमान नहीं है। फिर भी ज्यों ही विचारों का उद्भव होने लगता है, वह तत्काल नाम और रूप ग्रहण कर लेता है। प्रत्येक विचार का एक नाम और रूप है।

वह मस्तिष्क से निकल कर यत्र-तत्र घूमता रहता है। वह दूसरों के दिमाग में भी घुसता है। हिमालय पर रहने वाला साधु अमेरिका के कोने में अपने प्रबल विचारों को भेज सकता है। जो गुफा में अपने आपको पवित्र करता है वह यथार्थतः संसार को पवित्र कर सम्पूर्ण दुनिया का भला करता है। उसके पवित्र विचारों को कोई नहीं रोक सकता। मन आकाश की तरह विभु है। अतः विचार-विनिमय संभव है।


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