गायत्री उपासना के सामूहिक आयोजन

January 1955

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गायत्री से व्यक्ति गत उन्नति होती है पर वस्तुतः इस महामंत्र का मूल आधार सामूहिक है। “धियो योनः” पद में जो ‘नः’ शब्द है वह बहुवचन−सामुदायिक अर्थ का बोधक हैं। केवल अपने लिए ही नहीं वरन् हम सब के कल्याण के लिए−विश्व हित के लिए यह साधना की जाती है। वस्तुतः सब के हित में ही अपना हित छिपा हुआ है। परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ है। गायत्री साधना के साथ यज्ञ का, दान का,ब्रह्म भोज का संबंध इसीलिए जोड़ा गया है कि कोई व्यक्ति चुपचाप जप करके एक कोने में न बैठा रहे,वरन्−संसार की वायु शुद्धि एवं शुभ वातावरण के निमित्त हवन भी करें, दान देकर समाज की कुछ भलाई भी करें, सच्चे लोक सेवकों परमार्थ प्रसार के ब्राह्मणों को भोजन आदि से तृप्त करके उन्हें सहयोग दें उनकी सामर्थ्य बढ़ावे। यह सब बातें सामूहिक लाभ के लिए लोकहित के लिए “नः” शब्द का भावना के अनुसार करनी पड़ती हैं, जिससे हम केवल स्वार्थ की बात ही न सोचते रहें दूसरों की भलाई के लिए भी कुछ न कुछ अनिवार्य रूप से करते रहें।

शास्त्रों में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति दूसरों को शुभ या अशुभ कर्मों को प्रेरणा दे तो उन कार्यों के पाप पुण्य में वह प्रेरणा देने वाला व्यक्ति दसवें अंश का भागीदार होता है। जैसे आपकी प्रेरणा से कोई व्यक्ति 10 गौदान करता है तो प्रेरणा देने का यह शुभ प्रयत्न आपके लिए भी 1 गोदान की बराबर पुण्य फलदायक हो जाता है। बीमा कम्पनी के एजेंट जितने बीमे करा देते हैं उसी हिसाब में एक वार्षिक कमीशन चुपचाप उन एजेंटों के घर ही हर साल पहुँचता रहता है। इसी प्रकार दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने,से उनके द्वारा जो जप तप होता है उसका एक दसवां अंश उस प्रेरणा से देने वाले को प्राप्त हो जाता है। यदि आपकी प्रेरणा दश व्यक्ति गायत्री उपासना आदि किसी शुभ कार्य में लग गये है तो एक व्यक्ति की उपासना का पुण्य फल आपको स्वयमेव सदैव बिना कुछ दिये भी प्राप्त होता रहेगा। चूँकि प्रत्येक साधक किसी की प्रेरणा से साधना से प्रवृत्त होता है इसलिए उसकी दशाँश साधना उस प्रेरक के लिए कटती रहती है। उसकी पूर्ति तभी हो सकती है जब वह नये साधक बनाकर अपने लिए उतना पुण्य फल प्राप्त करे। कुछ लोग अपने आड़े वक्त के लिए कुछ जमीन जायदाद खरीद लेते हैं ताकि उसके ब्याज भाड़े से आसानी से खर्च निकलता रहे। अनेक उपासक बना देना एक प्रकार से आध्यात्मिक जायदाद खरीद लेने के समान है जिसका पुण्य फल अपने को सदा ही निरन्तर प्राप्त होता रहता है। इस प्रकार दूसरों को गायत्री उपासना के मार्ग में लगाने, गायत्री का मंत्र का ज्ञानदान देने के शुभ कार्य में जहाँ अनेक आत्माओं का कल्याण,एवं संसार की महान सेवा है वहाँ अपने लिए अत्यन्त पुण्य फल का संचय भी है। गायत्री का ‘नः’ अक्षर हम सब को यह प्रेरणा देता है कि इस महान उपासना में जितने अधिक व्यक्ति यों का लगाना, या प्रेरणा देना संभव है उसके लिए पूरी तत्परता से प्रयत्न करना चाहिये।

इसके लिए कुछ कार्यक्रम नीचे उपस्थित किये जाते हैं−

(1) किसी अवकाश के दिन धार्मिक प्रकृति के अपने मित्रों को इकट्ठे कीजिये। शुद्धता पूर्वक उनसे गायत्री जप कराइए तथा हवन में सबको क्रमशः सम्मिलित कीजिए। सबका मिलाकर एक 24 हजार का या सवालक्ष का अनुष्ठान हो सकता है।

(2)जहाँ अधिक शुद्धता, एवं हवन व्यवस्था न हो सके वहाँ गायत्री चालीसा के सामूहिक पाठ कराने की व्यवस्था करनी चाहिए। गायत्री चित्र पूजन, आरती, कीर्तन,कलश स्थापना, धृत दीप आदि क्रियाएँ ऐसे अवसरों पर आसानी से की जा सकती हैं।

(3)अपने पास पूरा गायत्री साहित्य रखिए। धार्मिक प्रकृति के सज्जनों के नाम तलाश करते रहिए। उनके घरों पर जा जा कर अपनी गायत्री सम्बन्धी पुस्तकें दीजिए और वापिस लाइए। इस प्रकार गश्ती गायत्री पुस्तकालय चलाने की धर्म सेवा में अपना कुछ समय नित्य लगाइए। सम्पन्न व्यक्ति इस कार्य के लिए कोई व्यक्ति नियुक्त भी कर सकता है।

(4)मंत्र लेखन साधना का अपने क्षेत्र में व्यापक प्रचार कीजिए। धार्मिक प्रकृति के पढ़े लिखे लोगों को गायत्री मंत्र लिख लिख कर तपोभूमि भेजते रहने की साधना में लगाइए। कभी चर्खा कतई यज्ञ की तरह गायत्री मंत्र की लिखाई के सामूहिक आयोजन भी किये जा सकते हैं।

(5)जहाँ कुछ मजबूत साधना वाले व्यक्ति मिल सकें वहाँ 10 दिन में या 15 दिन में 24 हजार का लघु अनुष्ठान अपने अपने घरों पर करने को तैयार कीजिए। अन्तिम दिन हवन सबको शामिल कराइए। प्रवचन कीर्तन, भजन आदि का प्रबंध भी कीजिए। इस प्रकार 1। लक्ष या 24 लक्ष के सामूहिक पुरश्चरण कराये जा सकते हैं।

(6)नित्य एक समय पर एकत्रित होकर गायत्री चालीसा के सामूहिक उच्चारण पूर्वक पाठ हो सकते हैं इस प्रकार 240,2400,24000,या 125000 पाठ हो सकते हैं।

(7)जप, हवन, की भाँति ब्रह्मभोज भी गायत्री उपासना का एक अंग है। जप का शताँश हवन, हवन का शतांश ब्रह्मभोज कराया जाता है। सच्चे ब्रह्म कर्म में जीवन लगाये हुए नैष्ठिक ब्राह्मणों को भोजन कराना भी ब्रह्मभोज कहलाता है। पर वस्तुतः ब्रह्म (आत्मा) को भोज (खुराक) देना ही सच्चा ब्रह्म भोज है। गायत्री ज्ञान दान को सही अर्थों में ब्रह्म भोज कहा जा सकता है। अन्नदान से ज्ञान दान का पुण्य सौ गुना अधिक माना गया है।

अखंड ज्योति का गायत्री ज्ञान अंक,एवं उसी का दूसरा रूप, सर्व शक्ति मान गायत्री असली लागत चार आना की अपेक्षा बहुत घाटा उठाकर प्रचारार्थ दो आने में ही दी जा रही है। आप इस ब्रह्मभोज को व्यापक बनाइए। विवाह,पुत्र जन्म, उन्नति, व्यापार लाभ, अनुष्ठान की पूर्ति,तीर्थयात्रा, पुण्य पर्व आदि के अवसरों पर इस साहित्य को सत्पुरुषों में वितरण कीजिए दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा दीजिये। थोड़ा थोड़ा अनेक व्यक्ति यों से धन संग्रह करके 108, 140, 1080, की संख्या में इन पुस्तकों के दान का सामूहिक ब्रह्मभोज भी हो सकता है।

यह तो कुछ थोड़े से सुझाव हैं। अपनी परिस्थिति सुविधा एवं अन्तः प्रेरणा के अनुसार और भी ऐसे ही आयोजन किये जा सकते हैं जिससे लोगों को गायत्री की समुचित जानकारी प्रेरणा एवं अभिरुचि प्राप्त हो। महिलाओं को भी इस आयोजनों में अवश्य सम्मिलित करना चाहिये। लुप्तप्राय आदि सनातन वेदोक्त उपासना गायत्री विद्या को पुनः भारत भूमि में प्रतिष्ठापित करने की− आज की परिस्थिति में अत्याधिक आवश्यकता है। यह कार्य सामूहिक आयोजनों से ही हो सकता है। गायत्री विद्या के महत्व को समझने वाले धर्म प्रेमियों को इस दिशा में कुछ सक्रिय कार्य करने की आवश्यकता है।


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