गायत्री से सद्बुद्धि और सुमति

January 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है। इस महामन्त्र में कुछ ऐसी विलक्षण शक्ति है कि उपासना करने वाले के मस्तिष्क और हृदय पर बहुत जल्दी आश्चर्यजनक प्रभाव परिलक्षित होता है । मनुष्य के मनः क्षेत्र में समाये हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, चिन्ता, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, पाप, कुविचार आदि चाहे कितनी ही गहरी जड़ जमाये बैठे हों, मन में तुरन्त ही हलचल आरम्भ होती है और उनका उखड़ना, घटना तथा मिटना प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगता है।

संसार में समस्त दुःखों की जननी कुबुद्धि ही तो है। जितने भी दुःखी मनुष्य इस विश्व में दीख पड़ते हैं, उनके दुःखों का एकमात्र कारण उनके आज के अथवा भूत काल के कुविचार ही हैं। परमात्मा का युवराज मनुष्य दुःख के निमित्त नहीं अपने पिता के इस पुण्य उपवन संसार में आनन्द की क्रीड़ा करने के लिये आता है। इस ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ धरती माता पर वस्तुतः दुःख का अस्तित्व नहीं है। कष्टों का कारण तो केवल ‘कुबुद्धि ‘ है। यही दुष्टा हमें आनन्द से वंचित करके नाना प्रकार के क्लेशों, भयों, एवं शोक सन्तापों में फँसा देती है। जब तक यह कुबुद्धि मन में रहती है तब तक कितनी ही सुख सामग्री प्राप्त होने पर भी चैन नहीं मिलता। कोई न कोई क्लेश सामने खड़ा ही रहता है। एक चिन्ता दूर नहीं हो पाती कि दूसरी सामने आ खड़ी होती है। इस विषम स्थिति से छुटकारा पाने के लिए कुबुद्धि को हटाकर सद्बुद्धि की स्थापना आवश्यक होती है। इसके बिना शान्ति मिलना किसी भी प्रकार संभव नहीं । सद्बुद्धि की अजल धारा गायत्री माता का पय पान करने से प्राप्त होती है। इसे पाकर मनुष्य आधिदैविक,आधिदैविक, आधिभौतिक त्रितापों से छुटकारा पाकर सच्ची शान्ति का अधिकारी बनता है।

‘विपत्ति निवारिणी गायत्री’ पुस्तक में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है कि गायत्री के चार चरणों से किस प्रकार चार प्रकार की कुबुद्धियाँ दूर होती हैं। (1) “ॐ भूर्भुवः स्वः” इस प्रथम पाद को हृदयंगम कर लेने से मनुष्य को घट 2 कण 2 में समाये हुए परमात्मा की झाँकी होती है, फलस्वरूप वह दुष्कर्म करने का साहस उसी प्रकार नहीं कर पाता जिस प्रकार कोतवाल को सामने खड़ा देख कर चोर को चोरी करने की हिम्मत नहीं पड़ती । सब में परमात्मा का अस्तित्व देखने वाले को स्वभावतः सब के साथ आत्मीयता, उदारता, प्रेम, ईमानदारी, सेवा सद्व्यवहार एवं मधुरता का व्यवहार करने की भावनाएँ उमड़ती है। सर्वत्र ईश्वर का दर्शन करते हुए बुरे कर्मों से बचना और सबके साथ स्नेह पूर्वक सद्व्यवहार करना यह नीति ऐसी है जिससे मनुष्य दुष्कर्मों के दण्डस्वरूप प्राप्त होने वाले राजदण्ड सामाजिक दंड एवं ईश्वरीय दंडों से बचा रहता हे और अपने सद्व्यवहार के कारण प्रत्युत्तर में संसार की ओर से भी सद्भाव, सहयोग, एवं स्नेह पाकर सुख शान्तिमय जीवन व्यतीत करता है।

(2) गायत्री का दूसरा चरण “ तत्सवितुर्वरेण्यं” साधक में विवेक, दूरदर्शिता, तत्व दृष्टि,दिव्यज्ञान, एवं सूक्ष्मावलोकन की क्षमता उत्पन्न करता है। इस तत्व को प्राप्त कर लेने पर सत् असत् का ज्ञान होता है और तुरन्त के हानि लाभ पर विचार न करके दूरवर्ती परिणामों पर सूक्ष्म दृष्टि से देखना आरम्भ कर देता है। फलस्वरूप क्षुद्र प्रलोभनों को ठुकरा कर वह चिरस्थायी सत्कार्यों को अपनाने का मार्ग ग्रहण करता है। क्षणिक इंद्रियां सुख, तात्कालिक लाभ,वासना, मोह, लोभ आदि के अज्ञान में फँसकर लोग पथ−भ्रष्ट होते हैं। गायत्री माता का दूसरा चरण साधक को पथ−भ्रष्ट नहीं होने देता और वह विवेक पूर्ण दूरदर्शिता के साथ सत्मार्ग पर चलता हुआ चिरस्थायी सुखों का अधिकारी बनता है।

(3) गायत्री का तीसरा चरण “भर्गो देवस्य धीमहि” मनुष्य को दैवी संपत्तियाँ प्रदान करता है। गीता के 16 वें अध्याय में जिन 26 सद्गुणों को दैवी संपत्तियां गिनाया गया है वस्तुतः मनुष्य का मूल्य,मान,महत्त्व,ऐश्वर्य, उन्हीं से बढ़ता है। रूप, यौवन, धन, सम्पत्ति आदि तो क्षणिक हैं। आज हैं तो कल इनका पता भी नहीं लगता । आज का अमीर कल दर दर का भिखारी हो सकता है। पर सद्गुणों की दैवी सम्पत्तियाँ ऐसी है कि यह ऐश्वर्य दिन−दिन बढ़ता ही चलता है और महानता के उच्च शिखर पर पहुँचकर पूर्णता के परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। सच्चरित्रता, परिश्रमप्रियता, उत्साह, साहस, प्रसन्नता, मधुरता, नम्रता, शिष्टाचार, नियमितता, संयम, मितव्ययिता, अनुशासन, जिम्मेदारी, वफादारी, जिज्ञासा, धैर्य, स्थिर मति आदि अनेकों सद्गुण उसमें बढ़ते हैं, फल स्वरूप उसका व्यक्ति त्व दिन 2 ऊँचा उठता जाता है और उसे सर्वत्र मान, सहयोग एवं सद्भाव ही प्राप्त होता है। ऐसे मनुष्य ही सच्चे अमीर कहे जाते हैं।

(4) गायत्री का चौथा चरण “धियो यो नः प्रचोदयात्” आत्म निरीक्षण, आत्म निरीक्षण, आत्म शुद्धि, आत्म साक्षात्कार करने की शक्ति उत्पन्न कर देता है। जैसे ही मनुष्य के अन्तः करण में गायत्री माता के चौथे चरण का पदार्पण होता है वैसे ही वह अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों को देना छोड़कर आत्म निरीक्षण आरम्भ कर देता है। अपने अन्दर जो त्रुटियाँ हैं उन्हें ढूंढ़ता है उनके लिये शोक एवं प्रायश्चित करता है। उन्हें हटाता है, आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाता है और संतुलित मस्तिष्क एवं शान्त चित्त से प्रत्येक बात के मूल कारण पर विचार करता हुआ ऐसी गति विधि ग्रहण करता है, जो अपने और दूसरों के कष्ट बढ़ाने में नहीं, उत्कर्ष में सहायक हो। उसका चित्त हर घड़ी प्रसन्न रहता है। उसके समीप रहने वाली भी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। कोई आपत्ति प्रारब्ध वश सामने आती है तो उसे भोग से निवृत्ति का सुअवसर समझकर धैर्य पूर्वक सहन कर लेता है। आत्मा में अब स्थिति दिन−दिन बढ़ते चलने से वह आत्मसाक्षात्कार करता है और प्रभु की कृपा का सच्चा अधिकारी बन उन्हीं में लीन हो जाता है।

इसी प्रकार मनुष्य के अन्तःकरण में जैसे−जैसे उसे अपने अन्दर दिव्य प्रकाश, दिव्य बल, दिव्य शान्ति एवं दिव्य उत्कर्ष अनुभव होता है। उसका जीवन निकृष्ट कोटि में न रहकर उच्च आध्यात्मिक भूमिका में विकसित होता जाता है । उसका जीवनक्रम बाहर से चाहे साधारण ग्रहस्य, साधारण व्यापारी, कर्मचारी जैसा ही दिखाई पड़ता हो पर भीतर से उसकी स्थिति उच्च कोटि के सन्तों एवं सत्पुरुषों जैसी हो जाती है।

संसार में जितने दुःख हैं कुबुद्धि के कारण हैं। लड़ाई, झगड़ा, आलस्य, दरिद्रता, व्यसन, व्यभिचार, आवारागर्दी, कुसंग, कटु भाषण, चोरी, स्वार्थपरता, ज्वारी, छल, निष्ठुरता, अन्याय, अत्याचार, असंयम आदि के पीछे मनुष्य की कुबुद्धि ही काम करती है। इन्हीं कारणों से रोग, शोक, अभाव, चिन्ता, कलह आदि का प्रादुर्भाव होता है और इन्हीं से नाना प्रकार की पीड़ाएँ, व्यथाएँ, यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। कर्म का फल निश्चित है। बुरे कर्म का फल बुरा ही होता है। कुबुद्धि से ही बुरे विचार बनते हैं। इसलिए कुबुद्धि को पापों की जननी कहा गया है । पूर्व जन्मों के प्रारब्ध गत पाप भी पूर्व जन्मों की कुबुद्धि के परिणाम हैं। इसलिये यही मानना पड़ता है कि जो भी कठिनाई हमारे सामने है उसमें वर्तमान काल की व भूतकाल की कुबुद्धि ही मूल कारण है। गायत्री मन्त्र का प्रधान कार्य इस कुबुद्धि को हटाना है। उपासना के फलस्वरूप मस्तिष्क में सद्विचार और हृदय में सद्भाव उत्पन्न हो जाते हैं, जिसके कारण मनुष्य का जीवन क्रम ही बदल जाता है। सद्भावना की वृद्धि के साथ−साथ उसे अनायास ही अनेक प्रकार के सुख सौभाग्य उपलब्ध होते हैं, साथ ही उसके समीप रहने वाले पड़ौसी एवं सम्बन्धी भी उसकी समीपता से सुख तथा सन्तोष लाभ करते हैं। ऐसे व्यक्ति जहाँ भी रहते हैं वहाँ सुखद वातावरण उत्पन्न करते हैं।

जिनकी स्मरण शक्ति शिथिल है, बुद्धि मन्द है, मस्तिष्क जल्दी थक जाता है उन्हें गायत्री उपासना करके थोड़ी ही समय में इस महाशक्ति के चमत्कार देखने को मिलते हैं। कीमती दवाएँ जो कार्य नहीं कर सकती वह इससे पूरा होता है। ब्राह्मी तेल लगाने और बादाम पाक सेवन से मस्तिष्क को उतना बल नहीं मिल सकता जितना इस उपासना से मिलता है। सिर में दर्द, चक्कर आना, निद्रा में कमी, आये दिन नाना प्रकार के शिरो−रोगों की शिकायतें जिन्हें बनी रहती हैं उन्हें गायत्री उपासना का अवलम्बन लेना चाहिये। इससे मस्तिष्क के सभी कल पुर्जे बलवान सजीव चैतन्य और निरोग बनते हैं। बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी जिनके मनः क्षेत्र में प्रवेश करेंगी उसका मानसिक विकास होना स्वाभाविक है। मस्तिष्क के अंतर्गत जो नाना प्रकार की शक्तियाँ सन्निहित हैं उनका धीरे धीरे विकास होता है और मनुष्य बुद्धिमान, विवेकशील एवं प्रतिभा वान बनता चलता है।

जिनके घर में कुबुद्धि का साम्राज्य छाया रहता है, आपस में द्वेष, असहयोग, मनमुटाव, कलह, दुराव, एवं दुर्भाव रहता है, आये दिन झगड़े रहते हैं, आपाधापी और स्वार्थपरता में प्रवृत्ति रहती हैं, गृह व्यवस्था को ठीक रखने, समय का सदुपयोग करने, योग्यताएँ बढ़ाने, कुसंग से बचने, श्रमपूर्वक आजीविका कमाने, मन लगाकर विद्याध्ययन करने में प्रवृत्ति न होना आदि दुर्गुण कुबुद्धि के प्रतीक हैं। जहाँ तक यह बुराइयाँ भरी रहती हैं वे परिवार कभी भी उन्नति नहीं कर सकते, अपनी प्रतिष्ठा को कायम नहीं रख सकते, इसके विपरीत उनका पतन आरम्भ हो जाता है। बिखरी हुई बुहारी की सींकों की तरह छिन्न भिन्न होने पर वर्तमान स्थिति भी स्थिर नहीं रहती । दरिद्रता, हानि, घाटा, शत्रुओं का प्रकोप, मानसिक अशान्ति की अभिवृद्धि बातें दिन दिन बढ़ती हैं और वे घर कुछ ही समय में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। कुबुद्धि ऐसी अग्नि है कि वह जहाँ भी रहती है वहीं की वस्तुओं को जलाने और नष्ट करने का कार्य निरन्तर करती रहती है।

जहाँ उपरोक्त प्रकार की स्थिति हो वहाँ गायत्री उपासना का आरम्भ होना एक अमोघ अस्त्र है। अँगीठी जलाकर रख देने से जिस प्रकार कमरे की सारी हवा गरम हो जाती है और उस में बैठ हुए सभी मनुष्य सर्दी से छूट जाते हैं उसी प्रकार घर के थोड़े से व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से माता की शरण लेते हैं तो उन्हें स्वयं तो शान्ति मिलती है, साथ ही उनकी साधना का सूक्ष्म प्रभाव घर भर पर पड़ता है और चिन्ता जनक मनोविकारों का शमन होने तथा सुमति, एकता, प्रेम, अनुशासन तथा सद्भाव की परिवार में बढ़ोतरी होती हुई स्पष्ट रूप से दृष्टि−गोचर होती है। साधना निर्बल हो तो प्रगति धीरे−धीरे होती हैं पर होती अवश्य है।

परिवार ही नहीं, पड़ौसियों, सम्बन्धियों तथा सहकर्मियों तक पर इसका प्रभाव पड़ता है। सुगन्धित इत्र कपड़ों से लगा हो तो जो कोई भी अपने समीप आवेगा उस ही सुगन्धि मिलेगी गायत्री तपस्या की दिव्य सुगन्ध साधक की आत्मा में से सदैव उड़ती रहती है वह जहाँ भी जाता है, जहाँ भी बैठता है वहीं वह सद्बुद्धि की शक्ति तरंगें छोड़ता है और वहाँ की अशान्ति मिट कर शान्ति स्थापित होती है।

कहा गया है कि − भगवान जिस पर प्रसन्न होते हैं उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। इस पारस मणि को पाकर उसके चारों ओर की लोहे जैसी कलुषित वस्तुएँ तथा परिस्थितियाँ सोने जैसी बहुमूल्य एवं शोभायमान बन जाती हैं। जिन परिस्थितियों के कारण हमें क्लेश एवं असन्तोष रहता है उनका मूल हेतु हमारी नासमझी एवं गलत कार्य पद्धति को अपनाना ही है। जब हम अपने दृष्टिकोण को सुधार लेते हैं, तब अनेकों कठिनाइयाँ तो कठिनाइयाँ दिखाई ही नहीं पड़तीं, वरन् जीवन को शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल, हलका, बनाने एवं उपयोगी अनुभवों से परिपूर्ण कर देने वाली अमूल्य शिक्षाएँ एवं परीक्षाएँ दिखाई पड़ती हैं। उन्हें मनुष्य हँस खेल कल काट लेता है। जो थोड़े से अटल प्रारम्भ भोग, बिना भोगे टल नहीं सकते, उन्हें सद्बुद्धि युक्त मनुष्य धैर्य, साहस, विवेक और सन्तोष पूर्वक सहन कर लेता है। अविवेकी व्यक्ति उस थोड़े से कष्ट के लिए जितनी हाय हाय मचाते हैं,उसका सौवाँ भाग भी परेशानी उसे नहीं होती । संसार की नाशवान वस्तुओं एवं बदलती रहने वाली परिस्थितियों का क्रम उसे मालूम होता है । इसलिए अप्रिय घटनाएँ भी उसके लिए एक कौतूहल एवं मानसिक हेर फेर मात्र ही दिखाई पड़ती हैं।

सद्बुद्धि एक शक्ति है जो जीवन क्रम को बदलती है। उस परिवर्तन के साथ−साथ मनुष्य की परिस्थितियाँ भी बदलती हैं। रेडियो की सुई घुमा देने से कोई दूसरा प्रोग्राम सुनाई पड़ने लगता है। कुबुद्धि के मीटर से सद्बुद्धि की ओर सुई घुमाई जाती है तो पहिले गाने बन्द होकर मंगलमय नवीन सन्देश सुनाई पड़ते हैं। गायत्री माता की ओर उन्मुख होने वाला व्यक्ति सद्बुद्धि तथा सुख शान्ति का वरदान प्राप्त करता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118