गायत्री से प्राण रक्षा

January 1955

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ऐतरेय ब्राह्मण में गायत्री शब्द का अर्थ कहते कहा गया है−

‘गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री।’

अर्थात् जो गय (प्राणों की) रक्षा करती है, गायत्री है।

प्राण कहते हैं चैतन्यता एवं सजीवता को । हमारे अन्दर जो गति, क्रिया, विचार शक्ति, विवेक एवं ध्यान धारण करने वाला तत्व है वह प्राण कहलाता है । इस प्राण के कारण हम जीवित हैं, जब प्राण निकल गया तो जीवन का अन्त ही समझिये, निष्फल देह से कुछ प्रयोजन नहीं सधता। उसे तो नष्ट करना ही हित कर समझा जाता है इसलिये उसे गाढ़ जला देते हैं। प्राण होने के कारण ही जीव प्राणी कहते हैं, बिना प्राण का पदार्थ तो जड़ होता है जब किसी प्राणी का प्राण निर्बल पड़ जाता है तो उसका वाह्य शरीर ठीक दिखाई देते हुए भी वह भीतर ही भीतर खोखला हो जाता है।

प्राणशक्ति के अभाव में मन का भी बुरा हाल हो जाता है,भय या अनिष्ट की आशंकायें अकारण मन में उठती रहती हैं,भीरुता एवं निराशा उसे घेरे रहती हैं। दुःस्वप्न, घबरा जाना, चिन्तातुर रहना धैर्य खो देना निराशा जनक भविष्य की कल्पनायें कर करते रहना नास्तिक सा बन जाना आदि बातें प्राण शक्ति की न्यूनता से होती हैं। निष्प्राण तो उसे कहते हैं जो पूरी तरह प्राण रहित हो जाता है,जड़ बन जाता है, पर न्यून प्राण उसे कहते हैं जो भीतर और बाहरी दृष्टि से निर्बल हो गया है और उन निर्बलताओं का दुख प्रतिक्षण भुगतता रहता है। क्योंकि न्यून प्राण की थोड़ी सी मात्र−भोजन पचाना निद्रा, रक्त भिसरण, श्वास प्रश्वास आदि में ही खर्च हो जाती है।


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