गायत्री की मान महत्ता

January 1955

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अथर्ववेद 19-71-1 में गायत्री की स्तुति की गई है जिसमें उसे आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है।

विश्वामित्र का कथन है-गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मन्त्र नहीं है। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप, गायत्री मन्त्र की एक कला के समान भी नहीं हैं।

भगवान मनु का कथन है-’ब्रह्माजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र निकाला । गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री का जप करता है वह ईश्वर को प्राप्त करता है। जो द्विज दोनों सन्ध्याओं में गायत्री जपता है वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त करता है। अन्य कोई साधना करें या न करे केवल गायत्री जप से ही सिद्धि पा सकता है। नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है जैसे केंचुली से सर्प छूट जाता है। जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता वह निन्दा का पात्र है।

योगिराज याज्ञवल्क्य कहते है−’गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तोला गया । एक और षट− अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री को रखा गया। तो गायत्री भारी निकली वेदों का सार उपनिषद् हैं, उपनिषदों का सा व्याहृतियों समेत गायत्री है। गायत्री वेदों को जानना है, पापों का नाश करने वाली है, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, गायत्री से श्रेष्ठ मन्त्र न हुआ न आगे होगा। गायत्री जान लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता और श्रेष्ठ श्रोत्रिय हो जाता है। जो द्विज गायत्री परायण नहीं वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है। जो गायत्री नहीं जानता ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है।

पाराशर जी कहते हैं−’समस्त जप सूक्तों तथा वेद मन्त्रों में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है। भक्ति पूर्वक गायत्री जपने वाला परम मुक्त होकर पवित्र बन जाता है। वेद,शास्त्र,पुराण इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है उसे ब्राह्मण न समझना चाहिए।

शंख ऋषि का मत है− ‘नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है। गायत्री का ज्ञाता निस्संदेह स्वर्ग को प्राप्त करता है।’

शौनिक ऋषि का मत है− अन्य उपासनाएँ करे चाहे न करे, केवल गायत्री जप से द्विज जीवन मुक्त हो जाता है। साँसारिक और पारलौकिक समस्त सुखों को पाता है। संकट के समय दस हजार जप करने से विपत्ति का निवारण होता है।

अत्रि ऋषि कहते है− गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। उसके प्रभाव से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है। जो मनुष्य गायत्री तत्व को भली प्रकार समझ लेता है उसके लिए इस संसार में कोई दुख शेष नहीं रह जाता ।

महर्षि व्यास जी कहते हैं−’जिस प्रकार पुष्पों का सारा शहद, दूध का सार घृत है उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। सिद्ध की हुई गायत्री काम धेनु के समान है। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र होती है। जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासनाएं करता है वह पकवान छोड़ कर भिक्षा माँगने वाले के समान मूर्ख है। काम्य सफलता तथा तप की सिद्धि के लिए गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं हैं ।

भारद्वाज ऋषि कहते हैं− ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं। गायत्री से रहित व्यक्ति शूद्र से भी अपवित्र है।

चरक ऋषि लिखते हैं− जो ब्रह्मचर्य पूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजे

फलों का सेवन करता है वह दीर्घ जीवी होता है।

नारद जी की उक्ति है− गायत्री भक्ति का ही रूप है, जहाँ भक्ति रूपा गायत्री है वहाँ श्री नारायण का निवास होने से कोई सन्देह नहीं करना चाहिए।

वशिष्ठजी का मत है− मन्दमति, कुमार्गगामी और अस्थिर मति भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं फिर सद्गति होना निश्चित है। जो पवित्रता और स्थिरता पूर्वक गायत्री की उपासना करते हैं वे आत्मलाभ करते हैं।

गौतम ऋषि का मत है कि− योग का मूल आधार गायत्री है। गायत्री से ही सम्पूर्ण योगों की साधना होती है।

महर्षि उद्दालक कहते हैं− गायत्री में परमात्मा का प्रचंड तेज भरा हुआ है। जो इस तेज को धारण करता है उसका वैभव अतुलनीय हो जाता है।

देव गुरु बृहस्पति जी का मत है− देवत्व और अमृतत्व की आदि जननी गायत्री है। इसे प्राप्त करने के पश्चात और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता ।

शृंगी ऋषि की उक्ति है− ज्ञान विज्ञान का आदि स्रोत गायत्री ही है। उससे अधिक संसार में और कुछ नहीं है।

उपरोक्त अभिमतों से मिलते जुलते अभिमत प्रायः सभी ऋषियों के हैं। इससे स्पष्ट है कि कोई भी ऋषि अन्य विषयों में चाहे आपस का मत भेद रखते रहे हों पर गायत्री के बारे में उन सब में समान श्रद्धा थी, और वे सभी अपनी उपासना में उसका प्रथम स्थान रखते थे। शास्त्रों में,धर्मग्रन्थों में स्मृतिय में पुराणों में गायत्री की महिमा तथा साधना पर प्रकाश डालने वाले सहस्रों श्लोक भरे पड़े है। इन सबका संग्रह किया जाय तो एक बड़ा भारी गायत्री पुराण ही बन सकता है।

वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक तथा दार्शनिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्वदर्शी ऋषियों ने किया था । आज का युग बुद्धि ओर तर्क प्रत्यक्ष वाद का युग है।

महात्मा गान्धी कहते हैं−’गायत्री मन्त्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्माओं की उन्नति के लिए उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्ति हृदय से किया हुआ जप आपत्ति काल के संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।’

लोकमान्य तिलक कहते हैं− ‘जिस बहुमुखी दासता के बन्धनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है उसका अन्त राजनीतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायगा। उसके लिए आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना होगा जिससे सत् और असत् का विवेक हो, कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। गायत्री मन्त्र में यही भावना विद्यमान है।

महामना मदनमोहन मालवीयजी ने कहा था− ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिये हैं उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री ऐसा ही जिससे बुद्धि पवित्र होती है। ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है। इस प्रकाश से असंख्य आत्माओं को भव बन्धन से त्राण मिला है। गायत्री में ईश्वर परायणता में श्रद्धा उत्पन्न करने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है। जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता वह अपने कर्तव्य धर्म छोड़ने का अपराधी होता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते है− भारतवर्ष को जगाने वाला जो मन्त्र है वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है। वह है−गायत्री मन्त्र। इस पुनीत मन्त्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक ऊहापोह, किसी प्रकार के मत भेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजाइश नहीं है।

योगी अरविंद घोष ने कई जगह गायत्री जप करने का निर्देश किया है। उन्होंने बताया है कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है जो महत्व पूर्ण कार्य कर सकती है। उन्होंने कइयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बताया है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है−”मैं लोगों से कहता हूँ कि लम्बे लम्बे साधन करने की उतनी जरूरत नहीं है। इस छोटी सी गायत्री का जप करके देखो । गायत्री का जप करने से बड़ी बड़ी सिद्धियाँ मिल जाती हैं। यह मन्त्र छोटा है पर इसकी शक्ति भारी है।”

स्वामी विवेकानन्द का कथन है −’राजा से वही वस्तु माँगी जानी चाहिए जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमात्मा से माँगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार से सुख मिलते हैं। जो सत् की ओर बढ़ रहा है उसे किसी प्रकार के सुख की कमी नहीं रहती । गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है। इसलिए उसे मन्त्रों का मुकुटमणि कहा गया है।’

जगद्गुरु शंकराचार्य जी कथन है− ‘गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है। बुद्धि का शुद्ध होना इतना बड़ा कार्य है जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती । आत्मबल प्राप्त करने की विश्व दृष्टि शुद्ध बुद्धि से प्राप्त होती हे उसका प्रेरक गायत्री मन्त्र है। उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और ऋत के अभिवर्धन के लिए हुआ है।

स्वामी रामतीर्थ ने कहा है−”राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम। गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम रुचि से हटा कर राम रुचि में लगा देना है। जिसकी बुद्धि पवित्र होगी वही राम को प्राप्त करने का काम कर सकेगा। गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिए कि वह काम को राम से बढ़कर न समझे।”

महर्षि रमण के उपदेश के अंतर्गत है मन्त्र विद्या बड़ी प्रबल है, मन्त्रों की शक्ति से अद्भुत सफलताएं मिलती हैं। गायत्री मन्त्र ही है, जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं।’

स्वामी शिवानन्द जी कहते हैं −ब्राह्ममुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है। शरीर निरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है। उसके द्वारा आत्म दर्शन हो सकता है।

सर राधाकृष्णन कहते हैं−’यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें तो हमें मालूम होगा कि हमें वास्तव में कितना ठोस लाभ देती है। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है।’

आर्यसमाज के जन्मदाता श्री स्वामी दयानन्द जी गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे। ग्वालियर के राजासाहब से स्वामी जी ने कहा था कि भागवत सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण अधिक श्रेष्ठ हैं। जयपुर के सच्चिदानन्द, हीरालाल रावल घोड़लसिंह आदि को उन्होंने गायत्री जप की विधि सिखाई थी। मुलतान में उपदेश के समय स्वामीजी ने गायत्री मन्त्र का उच्चारण किया और कहा कि− यह मन्त्र सबसे श्रेष्ठ है। चारों वेदों का मूल यहीं गुरु मन्त्र है। आदि काल में सभी ऋषि मुनि इसी का जप किया करते थे। स्वामी जी ने कई स्थानों पर विशाल गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिनमें चालीस तक की संख्या में विद्वान ब्राह्मण बुलाए गये। यह जप पन्द्रह दिन तक चले थे। स्वामी दयानन्द के गुरु प्रज्ञाचक्षु विरजानन्द जी आँखों से अन्धे होते हुए भी वेद शास्त्रों के उद्भट विद्वान थे। उन्होंने दीर्घकाल तक गंगा तट पर गायत्री उपासना करके ऐसी प्रज्ञा पाई थी ।


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