यज्ञ की महत्ता अपार है। प्राचीन काल में भारत के भौतिक और आध्यात्मिक विज्ञान का मध्यबिन्दु यज्ञ ही रहा है। जिस प्रकार आजकल विविध प्रयोजनों के लिए विज्ञान वेत्ता अनेक प्रकार के यज्ञों के प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार प्राचीन काल में यन्त्रों का कार्य मन्त्रों से लिया जाता था। जो कार्य आज भाप, तेल, पैट्रोल, बिजली आदि से शक्ति उत्पन्न करके किये जाते हैं वे काम उस समय यज्ञ कुण्डों में विविध समिधाओं,के द्वारा उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति से पूरे कर लिये जाते थे। यज्ञों द्वारा स्वास्थ्य, धन, अन्न, सन्तान, बल, यश, बुद्धि वाणी, दिव्य अस्त्र आदि भौतिक साधना ही नहीं अदृश्य वातावरण को बदले देने, अभीष्ट परिस्थितियाँ आश्चर्यजनक रूप से उत्पन्न कर देने, मनः क्षेत्रों और मस्तिष्कों की गति विधि बदल देने जैसी चैतन्य प्रक्रियाएं भी सम्पन्न की जाती थीं। स्वर्ग, मुक्ति, आत्म साक्षात्कार और ऋद्धि सिद्धियों के केन्द्र भी यज्ञ ही थे। ऋषियों ने यज्ञ का महत्व समझा था और वे यज्ञ को समाज का अतीव उपयोगी एवं आवश्यक कार्य समझ कर उनके विशाल आयोजन समय समय पर करते कराते रहते थे। ब्राह्मण के छह कर्मों में (1) यज्ञ करना और (2) यज्ञ कराना यह दो आवश्यक कर्म हैं। अर्थात् उसके जीवन की एक तिहाई भाग यज्ञ के निमित्त लगाना आवश्यक माना गया है। हिन्दू बालक का शरीर प्रसूति गृह में अखण्ड अग्नि स्थापना के साथ आरम्भ होता है और अन्त में अन्त्येष्टि यज्ञ की चित्ता में ही यह शरीर होम दिया जाता है। हमारा कोई भी व्रत, पर्व, त्यौहार, उत्सव,संस्कार, धर्म, कर्म, बिना यज्ञ के पूर्ण नहीं हो सकता। यज्ञ की महत्ता को समझने वाले दूरदर्शी ऋषियों ने हमारे जीवन में यज्ञ को ओत प्रोत कर दिया है।
खेद है कि आज गायत्री विद्या की भाँति यज्ञ विद्या का भी लोप सा हो गया है। इसके रहस्य मय विज्ञान की साँगोपांग गहरी खोज होने पर ही पूर्वकाल जैसे लाभ मिलने संभव हैं। फिर भी जो कुछ ज्ञान इस समय उपलब्ध है उसका ठीक प्रकार उपयोग किया जा सके तो वह भी इतना महान, है कि उससे आशा जनक सत्परिणाम उपलब्ध हो सकते हैं। गायत्री और यज्ञ का अनन्य सम्बन्ध है। गायत्री को द्विजत्व की माता और यज्ञ को पिता कहा गया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में पदार्पण करते हुए हमें इन दोनों का साहाय्य ग्रहण करना पड़ेगा।
आज मनुष्य जाति की व्यक्ति गत तथा सामूहिक रूप से जो विपन्न स्थिति हो रही है उससे सभी दुखी हैं। इस स्थिति में आवश्यक परिवर्तन एवं सुधार उत्पन्न करने के लिए शक्ति शाली यज्ञों की आवश्यकता अनुभव हुई है। तदनुसार दैवी प्रेरणा के आधार पर गायत्री तपोभूमि में एक ऐसे विशालकाय गायत्री महायज्ञ का संकल्प किया गया है जितना बड़ा महाभारत से लेकर अब तक नहीं हुआ। 125 करोड़ गायत्री महामंत्र का जप और 125 लाख आहुतियों का यज्ञ माघ सुदी 5 (वसन्त पंचमी) सं॰ 2011 तद्नुसार 28 जनवरी 54 से आरम्भ हो रहा है । यज्ञ की विशालता का हिसाब फैलाने पर मस्तिष्क चकरा जाता है। पर निराश होने का कोई कारण नहीं, जिस शक्ति के द्वारा संसार का सब कार्य चल रहा है उसके संकेत पर आरम्भ हुआ कोई कार्य असफल एवं अपूर्ण नहीं रह सकता।
इस यज्ञ के प्रमुख उद्देश्य यह हैं कि−(1) संसार में फैली हुई अशान्ति, अनैतिकता तथा अव्यवस्था को दूर करके सतोगुणी वातावरण उत्पन्न करना−विश्व शान्ति की स्थापना। (2) आगामी सन् 1957 की कठिन संभावनाओं को अभीष्ट दिशा में मोड़ना। (3) जिस स्थान पर यज्ञ होगा उस गायत्री तपोभूमि को प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से सुसम्पन्न बनाना। (4) इस यज्ञ के भागीदारों एवं कार्यकर्ताओं को सुविधा पूर्वक का महान पुण्य उपलब्ध कराना । इस यज्ञ की पूर्णता पर जो सत्परिणाम होने वाले है इनकी विस्तृत चर्चा करना अभीष्ट समय से पहले की बात होगी पर यह निश्चित है कि इसके द्वारा जो होगा वह बहुत कुछ होगा−असाधारण होगा।
24−24 करोड़ जप और 24−24 लक्ष यज्ञ के पाँच भागों में इसे बाँटा गया है। पूर्णाहुति का छटा आयोजन 5 करोड़ जप तथा 5 लक्ष यज्ञ का अन्त में होगा। इस प्रकार विराम लेते हुए −एक एक मंजिल पूर्ण करते हुए इस विशालकाय महायज्ञ की पूर्णता की जायगी। इसके अंतर्गत बीच−बीच में (1) चारों वेदों के सम्पूर्ण मंत्रों का पारायणयज्ञ (2) रुद्र यज्ञ (3) विष्णु यज्ञ (4) शतचण्डी यज्ञ (5) महामृत्युञ्जय यज्ञ (6) गणपति यज्ञ (7) सरस्वती यज्ञ (8) अग्निष्टोम (9) ज्योतिष्टोम आदि अनेकों यज्ञ होते रहेंगे।
इस यज्ञ का यजमान, संयोजक, पूर्णफल प्राप्त कर्ता कोई एक व्यक्ति नहीं है। यह संकल्प समस्त गायत्री उपासकों की ओर से किया गया है। इसलिए इसका श्रेय उन सभी को प्राप्त होगा जो इसमें जितने अंश के भागीदार बनेंगे। जिस प्रकार किसी लिमिटेड कम्पनी के अनेक शेयर होते हैं उसी प्रकार इस यज्ञ के भी दस हजार भागीदार होंगे।
24 हजार का जप तथा 240 आहुतियों के हवन का लघु अनुष्ठान ही इस यज्ञ का एक शेयर है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अनेकों शेयर खरीद सकता है उसी प्रकार कोई साधक इस यज्ञ के चाहे जितने भाग प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार नवरात्रि में 9 दिन का अनुष्ठान होता है उसी प्रकार उन्हीं नियमों में यह भी होंगे, दो नियम ढीले कर दिये गये है। (1) उपवास अनिवार्य नहीं है जो कर सकें करें न कर सकें न करें (2) जिन्हें अवकाश कम हो वे नौ दिन की अपेक्षा 15 दिन में 16 माला प्रतिदिन के हिसाब से या 24 दिन में 10 माला प्रतिदिन से भी कर सकेंगे।
भागीदार अपने निर्धारित जप को अपने अपने घरों पर कर सकेंगे पर उसका हवन गायत्री तपोभूमि की निर्धारित वेदी पर ही होना चाहिए। मथुरा के निकटवर्ती लोग अनुष्ठान के दिनों में ही एक दिन या दो दिन में 240 आहुतियों का हवन कर लिया करेंगे। बाहर के सज्जन अपने अनुष्ठान अपने स्थान पर करते रहें और एक वर्ष के भीतर जब भी अवसर मिले मथुरा आकर अपने कई अनुष्ठानों का हवन एक साथ भी कर सकते हैं 24 आहुतियों में 3 मासे प्रति आहुति के हिसाब से 12 छटाँक सामग्री, 1॥ मासे प्रति आहुति के हिसाब से 6 छटांक घी, 1 तोले की आहुति के हिसाब से 3 सेर समिधाएं (लकड़ी) लगती हैं। जिन अनुष्ठान कर्ताओं की इच्छा तथा सामर्थ्य हो वे अपना यह सामान देदें, जिनको कुछ कठिनाई हो, उनके लिए इस सब सामान की भी पूर्ति कर दी जायेगी। इस महान आयोजन के आरम्भ का शुभ मुहूर्त माघ सुदी 5 (बसंत पंचमी) सं॰ 2011 तदनुसार 28 जनवरी हैं।
यह आयोजन अत्यन्त ही विशद है। दस हजार अनुष्ठानकर्ता ढूंढ़ने के लिए लाखों व्यक्ति यों तक इसका संदेश पहुंचाना होगा। इस कार्य को हम अकेले नहीं कर सकते। इसके लिए बड़ी संख्या में सहयोगियों,स्वयं सेवकों एवं प्रचारकों की आवश्यकता होगी । जो घर घर जाकर इस यज्ञ का सन्देश पहुँचावें और भागीदार अनुष्ठान कर्त्ता तैयार करें । हमारी सभी गायत्री उपासकों से प्रार्थना है कि अपने अपने क्षेत्र में इस प्रकार का नियमित प्रयत्न करें। दो−दो चार−चार की टोली बना कर नित्य कुछ समय या छुट्टी का अधिक समय घर घर प्रचार करने में जाने के लिए लगावें। यह अनेकों धर्म कार्यों से अधिक पुण्य है। दूसरों की आत्मा को कल्याण मार्ग पर लगाने से बढ़कर और कोई पुण्य परमार्थ इस संसार में नहीं है। शुभ कार्यों में प्रेरणा देने वाले को उस कार्य का दशाँश पुण्य मिलना शास्त्रों में लिखा है। कम्पनियों के शेयर बेचने वालों तथा बीमा कम्पनी के एजेंटों को भी कमीशन मिलता है। गायत्री प्रचार की पुनीत सेवा एवं यज्ञ को पूर्ण करने के लिए की हुई प्रयत्न शीलता भी ऐसी साधना है जो जप, हवन, प्राणायाम आदि में समय लगाने से कहीं अधिक श्रेयष्कर सिद्ध होगी।
मथुरा गायत्री तपोभूमि में ऐसे स्वयंसेवकों की भी बड़ी आवश्यकता है जो स्थानीय व्यवस्था, यज्ञ का सहयोग करने के अतिरिक्त प्रचार करने की भी क्षमता रखते हों। किसी को वेतन दे सकना कठिन है पर भोजन, ठहरने आदि की समुचित व्यवस्था यहाँ रहेगा। तीन तीन महीने समय देने के लिए भी ऐसे सेवाभावी सज्जन आते रहें तो यहाँ का सब प्रबन्ध ठीक प्रकार चलता रह सकता है। प्रारम्भिक व्यवस्था में हमें भी विशेष अड़चन तथा आवश्यकता रहेगी। इसलिए यज्ञ के प्रारम्भिक काल में मथुरा आने के लिए ऐसे सत्पुरुषों को हम अनुरोध पूर्वक आमन्त्रित करते हैं।
यह यज्ञ असाधारण है। इससे असाधारण ही शक्ति उत्पन्न होगी इसके भागीदार भी ऐसे आधार अनुभव प्राप्त करेंगे जो साधारण साधनाओं से संभव नहीं। यह संकल्प अधिक महान संभावनाओं से ओत प्रोत है इसे पूर्ण करने में सच्चा सहयोग करने में सभी गायत्री प्रेमियों सभी धार्मिक प्रकृति के पुरुषों से हमारी हार्दिक प्रार्थना है।
जो सज्जन पारिवारिक जिम्मेदारियों से छुटकारा पा चुके हैं, नौकरी से रिटायर्ड हो चुके हैं,जिन के पास समय तथा सुविधा है वे अपना समय इस यज्ञ में भागीदार बनने में लगावें। तपोभूमि में आकर रहें, दो वर्ष तक इस महान यज्ञ में भागीदार रहें और यज्ञीय वातावरण से अपनी अन्तरात्मा को, अन्तःकरण मनोभूमि को परिष्कृत, पवित्र एवं विकसित करने सुयोग प्राप्त करें। यह दो वर्ष का तप अन्यत्र किये हुए दो सौ वर्ष के साधन के समान फलदायक होगा। जिन्हें कम अवकाश है वे छुट्टी या फुरसत के दिनों में थोड़े दिनों के लिए आकर सक्रिय भागीदार बन सकते हैं। सच्ची भावना से आये हुए साधकों में जो इतने निर्धन होंगे कि अपने भोजन का व्यय स्वयं न कर सकते होंगे उनके लिए तपोभूमि की ओर से व्यवस्था कर दी जायेगी। बाहर से आने वालों को अपना पूरा परिचय भेजकर पूर्व स्वीकृति अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए। बिना स्वीकृति के आने वालों के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था करने का उत्तर दायित्व हमारा न होगा। केवल ऐसे ही लोगों को तपोभूमि में स्थान मिलेगा जिनमें मधुर भाषण, स्वच्छता, श्रमशीलन, अनुशासन, कष्ट सहिष्णुता, उदारता अन्य सद्गुण संतोषजनक मात्रा में होंगे।
यज्ञ में हवन सामग्री, घृत, समिधा आदि वस्तुओं सहयोग देकर उतनी आहुतियों के यज्ञ के पुण्य फल को प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार यहाँ रहने वालों के लिए भोजन व्यय में कुछ देकर भी इतनी मात्रा में ब्रह्म भोजन का पुण्य प्राप्त किया जा सकता है।