गायत्री का अधिकार

January 1955

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गायत्री प्रत्येक द्विज का एक आवश्यकीय धर्म कृत्य हैं। द्विज वैसे ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य को कहते हैं। जो लोग यज्ञोपवीत धारणा कर सकते हैं। वे द्विज हैं। ऐसे सभी लोगों को गायत्री का अधिकार है द्विज वह है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो । एक जन्म माता के पिता के रज वीर्य से सभी का होता है, इस लिए मनुष्य और पशु समान है। दूसरा आध्यात्मिक जन्म गायत्री माता और यज्ञ पिता के संयोग से होता है। गायत्री अर्थात् सद्बुद्धि रूपी माता और यज्ञ अर्थात् परमार्थ रूपी पिता को जिन्होंने अपना अध्यात्मिक माता पिता समझ लिया है। जीवन को खाने पीने मौज उड़ाने की वस्तु न समझ कर, परमार्थ एवं आत्म कल्याण का साधन स्वीकार किया है वस्तुतः वे ही द्विज हैं। गायत्री उपासक इसी श्रेणी के होते हैं जिनका ऐसा दृष्टिकोण होता है वे गायत्री उपासना में संलग्न होते हैं या जो गायत्री उपासना में लगते हैं वे ऐसे हो जाते हैं। इस प्रकार गायत्री और द्विजत्व एक साथ रहते हैं। इसी एकता को संस्कृत में ‘अधिकार’ कहा गया है। जिनमें इस प्रकार की एकता न हो वे अनधिकारी कहे जाते हैं। उच्च भावना और गायत्री का सम्बन्ध बनाये रखने के लिये “अधिकार” की प्रतिष्ठा की गई है।

यज्ञोपवीत को गायत्री की मूर्ति−एक प्रतिमा कहना चाहिए। गायत्री को ही हर बड़ी छाती से लगाये रखना, हृदय पर धारण किये रहना यज्ञोपवीत धारणा का उद्देश्य है। जनेऊ में तीन तार हैं− गायत्री में तीन चरण हैं। उपवीत में नौ लड़ें है−यज्ञोपवीत में नौ शब्द हैं। यज्ञोपवीत में तीन मध्य ग्रंथियाँ और एक ब्रह्म ग्रन्थि होती है− गायत्री में तीन व्याहृतियाँ और एक प्रणव है। अन्य देवताओं की मूर्तियाँ पत्थर धातु आदि की बनाई जाती हैं पर उनके पूजन और ध्यान तो उपासना गृह में ही हो सकता है। किन्तु गायत्री देवता तो मनुष्य का जीवन प्राण ही है उसके पूजन किसी नियत समय पर किसी नियत स्थान पर कर देने से काम नहीं चल सकता । यह देवता तो ऐसा है जिसका सोते जागते, चलते फिरते, खाने नहाते, हर घड़ी साथ रखना है एक क्षण के लिए भी अपने को अलग नहीं होने देना है। इसलिये उसकी प्रतिमा धातु या पत्थर की न बना कर सूत की बनाई गई है। यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है। इसको प्राण प्रिय समझ कर हर घड़ी छाती पर, कंधे पर, हृदय पर, धारण किए रहने के लिये यज्ञोपवीत पहना जाता है। गायत्री उपासक के लिए यज्ञोपवीत धारण करना एक उचित कर्तव्य है।

गायत्री मन्त्र के शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं

ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) मर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करें)

अर्थात् − उस प्राण स्वरूप दुख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को अन्तरात्मा में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सत्मार्ग पर प्रेरित करे।

इस अर्थ में ईश्वर के जिन गुणों का वर्णन किया गया, उनको अपने लिये आवश्यक समझ कर अपने को प्राणवान बनाना, दुखदायी कुकर्मों से बचना,सुखदायी सत्कर्मों पर संलग्न होना, श्रेष्ठ विचारों को अपनाना तेजस्वी बनना, पापों से लड़ना, अपने स्वभाव में देवत्व भरना यह सब प्रयत्न निरन्तर चलते रहने चाहिए, अपनी बुद्धि को सात्विक, सन्मार्ग गामी बनाने के लिए सचेष्ट रहना यह गायत्री मन्त्र की शिक्षा है। इन शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में समावेश करने के लिए पूरी तत्परता से कार्य करना यही यज्ञोपवीत धारण करने का लक्ष है। यज्ञोपवीत को सूत्र भी कहते हैं। सूत्र ‘डोरे’ को भी कहते हैं और उस ‘शब्द रचना’ को भी कहते हैं जो स्वयं बहुत संक्षिप्त होते हुए भी अपने अन्दर एक विस्तृत अर्थ छिपाये होते हैं। अष्टाध्यायी, षट् दर्शन, गृह्य सूत्र आदि ऐसे ही ग्रंथ है यज्ञोपवीत में लिपि और भाषा का प्रयोग नहीं हुआ है तो भी यह ‘ब्रह्मसूत्र’ ग्रंथ है। इसके एक एक धागे में जीवन को महान् बनाने वाली शिक्षाएं भरी हुई है। इन शिक्षाओं का हर घड़ी ध्यान रखने के लिए ही यज्ञोपवीत पहना जाता है और उसे पहनने पर इतना जोर दिया जाता है।

गायत्री को गुरु मन्त्र कहा गया है। प्राचीन काल में बालक जब गुरु कुल में विद्या पढ़ने जाते थे तो उन्हें वेदारंभ संस्कार के समय गुरु मन्त्र के रूप में गायत्री की ही दीक्षा दी जाती थी, वेद का आरंभ वेदमाता गायत्री से ही होता है। आज के नाम धारी गुरु नाना प्रकार के ऊटपटाँग मन्त्र गढ़ कर गुरु दीक्षा की लकीर पीटते हैं पर प्राचीन काल में गायत्री मन्त्र के अतिरिक्त और दीक्षा मन्त्र न था। भारतीय धर्म में ब्रह्मा विष्णु,महेश के प्रतीक तीन जीवित देवता भी माने गये है, 1 माता, 2 पिता, 3 गुरु । जिस प्रकार किसी व्यक्ति का माता और पिता होना आवश्यक है। उसी प्रकार उसका गुरु भी होना आवश्यक है। कोई व्यक्ति अपनी माता का पता न बता सके तो या अपने पिता के संबंध अपरिचित कहे तो उसकी उत्पत्ति अनैतिक मानी जायेगी। इसी प्रकार कोई कोई व्यक्ति गुरु रहित हो उसे भी असंस्कृत कहा जायेगा। “निगुरा” एक प्रकार की गाली है। जिसका गुरु नहीं उसकी अध्यात्मिक सुव्यवस्था संदिग्ध मानी जाती है। गायत्री दीक्षा या गुरु दीक्षा एक ही बात है।

ऐसा उल्लेख मिलता है कि− “गायत्री मंत्र कीलित है। इसको वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋषियों का शाप लगा हुआ है। जो उस शाप का उत्कीलन कर लेता है उसी की साधना सफल होती है।” इस अलंकारिक वर्णन में विधिवत् गायत्री साधना करने, उसकी शास्त्रीय प्रक्रिया को समझने एवं अनुभवी पथ प्रदर्शक के संरक्षण में साधना क्रम को आगे बढ़ाने का आदेश दिया गया है। ‘वशिष्ठ’ कहते हैं−विशेष रूप से श्रेष्ठ का । प्राचीन काल में जो व्यक्ति सवा करोड़ गायत्री जप कर लेते थे उन्हें वशिष्ठ की पदवी दी जाती थी। रघुवंशियों के कुलगुरु सदा ऐसे ही वशिष्ठ पदवी धारी होते थे। रघु, भज, दिलीप, दशरथ, राम, लव− कुश इन छह पीढ़ियों के गुरु एक वशिष्ठ नहीं, अलग अलग ऋषि थे पर उन सभी ने उपासना के आधार पर वशिष्ठ पद पाया था। ‘वशिष्ठ शाप मोचन’ का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के किसी अनुभवी उपासक से गायत्री साधना की शिक्षा लेना चाहिए उसे अपना पथ प्रदर्शक नियुक्त करना चाहिए । विश्वामित्र का अर्थ है− संसार की भलाई करने वाला परमार्थी, और सच्चरित्र एवं कर्तव्य निष्ठ । गायत्री का शिक्षक केवल वशिष्ठ गुण वाला होना ही पर्याप्त नहीं उसे विश्वामित्र भी होना चाहिए। तपस्वी और परमार्थी दोनों ही गुण जिनमें हों उन्हें वशिष्ठ एवं विश्वामित्र श्रेणी का व्यक्ति कहा जा सकता है। ऐसे ही लोगों से गायत्री की विधिवत शिक्षा दीक्षा लेने पर इस महामंत्र में वह लाभ उठाना संभव होता है। अपने आप मन चाहे तरीके से कुछ न कुछ करने लगाने से अधिक प्राप्त नहीं हो सकता । जिसने उपयुक्त पथ प्रदर्शक प्राप्त कर लिया उसे साधना की आधी मंजिल पार करली, ऐसा समझना चाहिए। यह शाप मोचन एवं उत्कीलन है। गायत्री जैसी विश्व जननी महाशक्ति को कोई भी सत्ता शाप देने में समर्थ नहीं हो सकती । गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करने के लिए ही अलंकारिक रूप में शाप लगने की बात कही गई है।

यज्ञोपवीत धारण करना, गुरु दीक्षा लेना, विधिवत् मंत्र ग्रहण करना यह तीनों बातों गायत्री उपासना में सहायक, लाभ दायक आवश्यक एवं मंजिल को पार करने में बड़ी सरलता उत्पन्न कर देने वाली हैं। फिर भी अनिवार्य नहीं है। इन बातों के बिना साधना न हो सकती हो या गायत्री उपासना न की जा सकती हो सो बात नहीं है। ईश्वर की वाणी, वेद ऋचा, भगवती महाशक्ति गायत्री को अपनाने में कोई प्रतिबंध नहीं हैं। शास्त्र विधान के अनुसार ब्राह्मण बालक का 10 वर्ष, क्षत्रिय का 12 वर्ष, वैश्य का 14 वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत होना चाहिए । इससे अधिक आयु हो जाने पर जल्दी की दृष्टि से बिना किसी विशेष समारोह के, किसी भी यज्ञ आदि के शुभ अवसर पर साधारण रीति से यज्ञोपवीत धारण किया जा सकता है। पर जिनको ऐसी सुविधा भी न हो उन्हें यज्ञोपवीत के लिए गायत्री उपासना रोकने की आवश्यकता नहीं है। अवसर आने पर वे पीछे भी जनेऊ ले सकते हैं। इसी प्रकार यदि अपने स्थान पर ठीक पथ प्रदर्शक गुरु प्राप्त न हो तो किसी दूरस्थ व्यक्ति से संपर्क स्थापित करके काम चलाया जा सकता है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति को गुरु मान कर अपने ‘निगुरापन’ को दूर कर लिया था। गुरु का दर्जा आध्यात्मिक पिता का है पुरुष और स्त्री दोनों ही के माता पिता होते हैं, इसी प्रकार गुरु भी दोनों के होते हैं। यज्ञोपवीत पुरुष पहनते हैं। स्त्रियाँ उसके स्थान पर कंठी पहन लेती हैं। गायत्री उपासना स्त्रियों और पुरुषों के दोनों के लिए ही आवश्यक है। यदि उसे उचित शिक्षा दीक्षा, एवं विधि व्यवस्था के आधार पर किया जाय तो निश्चित रूप से अधिक सत्परिणाम प्राप्त होते हैं।

पुरुषों की ही भाँति स्त्रियाँ भी गायत्री उपासना से लाभान्वित हो सकती हैं। कई आध्यात्मिक तत्ववेत्ताओं का यह कहना है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को गायत्री उपासना का लाभ अधिक मिलता हे क्योंकि माता को स्वभावतः पुत्र की अपेक्षा कन्या का अधिक ध्यान रहता है, वह अपनी पुत्रियों के लिये अधिक उदारता का परिचय देती हैं।

प्राचीन काल में अनेक महिलाएँ उच्चकोटि की साधिकाएँ हुई हैं। अध्यात्म कार्य में वे पुरुषों से कभी भी पीछे नहीं रही हैं। नारी का तप ही उसकी कुक्षि से महान् आत्माओं को प्रसव करने में समर्थ होता है। तपस्विनी अदिति ने वामन भगवान को जन्म दिया। कौशिल्या की गोदी में राम खेले। देवकी ने कृष्णचन्द्र को जन्म दिया, रोहिणी और यशोदा के आँगन में उन्हें बाल−क्रीड़ा करनी पड़ी । समस्त देवताओं की जननी अदिति माता है! भगवती कात्यायिनी असुरों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हुई। माता शतरूपा के गर्भ से मानव प्राणी का उद्भव हुआ है। ब्रह्मवादिनी घोषा काक्षीवान ऋषि की कन्या थी, उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। तप करके उन्होंने अश्विनीकुमार देवता को प्रसन्न किया और निरोगिता एवं विद्या का विपुल भण्डार प्राप्त किया। महर्षि कर्दम की धर्मपत्नी देवहूति ने तपस्वी जीवन बिताकर भगवान कपिल को जन्म दिया। महर्षि मेघातिथि की कन्या अरुन्धती ने तापसारण्य वन में तप करके वशिष्ठ जैसे योगी को अपने पति रूप में पाया और वे सशरीर अजर−अमर बनीं।

महर्षि अत्रि के वंश में उत्पन्न ब्रह्मवादिनी महाविदुषी विश्ववारा ऋग्वेद के पाँचवें मण्डल के द्वितीये अनुवाद के अट्ठाईसवें षट ऋकों की मन्त्र दृष्टा हैं। उन्होंने अपनी तपस्या के बल से ऋषि पद पाया था। तपस्विनी अपाला पतिगृह में असाध्य रोग में ग्रसित हो गई तो उन्होंने तप करके इन्द्र को प्रसन्न किया और खोया हुआ स्वास्थ्य तथा ब्रह्म−ज्ञान पाया। यह अपाला भी ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के 91 वें सूक्त की 1 से 7 तक की ऋचाओं की दृष्टा हैं। सती तपती की आयु बहुत बड़ी हो गई थी, उनका विवाह न हो सका था। तपती की तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं सूर्य नारायण ने उनसे विवाह किया। अभृण ऋषि, की कन्या वाक प्रसिद्ध ब्रह्मवादिनी हुई हैं। ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के 125 वें देवी सूक्त के आठ मन्त्रों की ऋषि यह वाकदेवी ही हैं। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 85 सूक्त की ऋचाओं की ऋषि होने का श्रेय ब्रह्मवादिनी सूर्य को प्राप्त है। बड़े रोमों वाली भावभव्य ऋषि की धर्मपत्नी रोमेशा ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के126 वें सूक्त की सात ऋचाओं की दृष्टा ऋषि हुई है। बृहदारण्यक उपनिषद् में वचक्त ऋषि की पुत्री गार्गी और याज्ञवल्क्य के शास्त्रार्थ का विस्तृत वर्णन है। महातपस्विनी गार्गी ने राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य के छक्के छुड़ा दिये थे। ब्रह्मज्ञानिनी सुलभा ने राजा जनक जैसे तत्वज्ञानी की अनेक भ्रान्तियों का निवारण किया था। राजा आसंग की पत्नी शाश्वती ऋग्वेद के आठवें मण्डल में प्रथम सूक्त की 34 वीं ऋचा की ऋषि हैं। इसी प्रकार उशिज इसी मण्डल के 116 से 121 वें तक के मन्त्रों की ऋषि हैं। दशम सूत्र की ऋषि ब्रह्मवादिनी ममता है।

जो व्यक्ति कहते हैं कि−” स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं, क्योंकि गायत्री वेद मन्त्र है। वेद मन्त्र स्त्रियों को नहीं पढ़ने चाहिए।” ऐसे लोग तनिक विचार करने का कष्ट करें कि यदि स्त्रियों को वेद का अधिकार न होता तो वेद मन्त्रों की दृष्टा, व्याख्याता, विशेषज्ञा, अधिपति यह उपरोक्त स्त्रियाँ किस प्रकार रही होतीं? प्राचीन काल में घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला उपनिषद्, जुहू, अदिति, इन्द्राणी, सरमा, रामशा, उर्वश, लोपा−मुद्रा, यमी, शाश्वती, सूर्या, सावित्री आदि अनेकों ब्रह्मवादिनी वेद व्याख्याता हुई हैं।

मनु की पुत्री ‘इड़ा’ नामक एक महिला का वर्णन है जो ‘यज्ञान् काशिनी’ उपाधि से विभूषित थी। उसने अपने पिता तक के लिए यज्ञ कराये थे। भारद्वाज की पुत्री श्रतावती, तपस्विनी सिद्धा, शाँडिल्य की पुत्री श्रीमती, वेद विद् शिवा, ब्रह्मवादिनी सुलभा, स्वधा की पुत्रियाँ वद्यना और धारिणी आदि अनेक वेदज्ञ महिलाओं का वर्णन महाभारत में हैं। यदि उन्हें वेदों का अधिकार न होता तो किस प्रकार वे वेदज्ञ होतीं। शंकर दिग्विजय में भारती देवी नामक एक ऐसी महिला का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में शंकराचार्य के दाँत खट्टे कर दिये थे।

विवाहादि संस्कारों में स्त्री को अपने मुख से अनेक वेद मन्त्र उच्चारण करने पड़ते हैं। यज्ञों में स्त्रियाँ सदा पति के साथ रहती हैं। स्त्री के बिना यज्ञ सफल नहीं होता। रामचन्द्रजी को सोने की सीता बनाकर यज्ञ पूर्ण करना पड़ा था। यज्ञ बिना वेद मन्त्रों के होते नहीं, यदि स्त्रियों को वेद का अधिकार न होता तो उन्हें यज्ञ में सम्मिलित होने का अथवा विवाहादि संस्कारों में मन्त्रोच्चारण का विधान किस प्रकार होता ?

व्योम संहिता में कहा गया है कि− स्त्रियों को वेद का अध्ययन तथा वैदिक कर्मकाण्ड करने का वैसा ही अधिकार है जैसे के उर्वशी, यमी, शची, आदि को प्राप्त था। “ यम स्मृति में लिखा है− “स्त्रियों को वैदिक कर्म−काण्डों की भाँति ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का भी अधिकार है। वाल्मीकि रामायण में कौशिल्या, कैकेयी, सीता, तारा आदि नारियों द्वारा स्वयं संध्या, हवन करने तथा स्वस्तिवाचन आदि वेद मन्त्रों का पाठ करने का वर्णन है। वशिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि− “यदि स्त्री के मन में पति के प्रति दुर्भाव आये तो उस पाप का पश्चाताप करने के लिए 108 गायत्री मन्त्र जपने से वह पवित्र होती है।”

सनातन धर्म के कर्णधार महामना पं॰ मदनमोहन जी मालवीय ने देश के उच्चकोटि के एक पण्डितों की एक समिति नियुक्त की, जिसका यह कार्य सौंपा गया कि वह शास्त्रों के आधार पर यह खोज करे कि स्त्रियों को वेद मन्त्रों का अधिकार है या नहीं। कमेटी ने लम्बे समय तक भारी खोज की और 22 अगस्त सन् 1946 का उस समिति की रिपोर्ट के आधार पर मालवीयजी ने घोषणा की कि स्त्रियों को भी पुरुषों की ही भाँति वेद पढ़ने का अधिकार है। तब से हिन्दू विश्वविद्यालय में स्त्रियों को भी पुरुषों की भाँति वेद पढ़ाये जाते हैं।

गायत्री ईश्वर की सर्वोत्तम प्रार्थना है। वेद भगवान की अमृतमयी वाणी है। ऐसे उपयोगी तत्व से स्त्रियों का वंचित रखा जाना न्याय के, विवेक के, तथा भारतीय संस्कृति की मूल भूत भावना के प्रतिकूल है। इसलिये इस प्रकार के भ्रमों में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्राचीन काल की भाँति आज भी असंख्यों भारतीय महिलायें ऐसी हैं जो गायत्री मन्त्र द्वारा उपासना करती हैं, और उसके महत्व पूर्ण आध्यात्मिक और सांसारिक लाभों को प्राप्त करती हैं।

पतियों का सुधार स्त्रियाँ गायत्री उपासना द्वारा कर सकती हैं। इस तपस्या से अनेकों स्त्रियों ने अपने पतियों के बुरे स्वभाव और बुरे आचरणों को सुधारा हैं। झगड़ालू, रूखे, निष्ठुर स्वभाव को बदल कर मधुर भाषी, सहानुभूति, सद्भाव, एवं स्नेह वाला बनाया है। उनकी कुसंगति छुड़ाने एवं व्यभिचार आदि को बुराइयों से बचने में भी स्त्रियाँ गायत्री उपासना को रामबाण की तरह प्रयोग कर सकती हैं।

गायत्री उपासना करने वाली स्त्रियों के पेट में जो सन्तान होती है उस पर माता के विचारों का बड़ा उत्तम प्रभाव पड़ता है। उसमें विद्या, बुद्धि, विवेक, तेज प्रतिभा, सदाचार आदि गुणों की कमी नहीं रहती । माताएँ बालकों को दूध पिलाते समय यदि मन ही मन गायत्री मन्त्र जपती रहें, तो वह दूध बालक के शरीर और मन को शुद्ध बनाने के लिए अमृत रूप हो जाता है। बच्चों की निरोग, हँसमुख, सुन्दर, तेजस्वी, बुद्धिमान, गुणवान और दीर्घजीवी बनाने में माताएँ गायत्री महामन्त्र से आशा जनक लाभ उठा सकती हैं।

कई बार प्रारब्ध के कठोर विधान बड़े कठिन होते हैं, उनका पूर्ण रूप से हटाना सरल नहीं होता, तो भी उनमें गायत्री उपासना से सुधार अवश्य होता है। प्रायः सभी परिवारों पर समयानुसार बुरे दिनों और अशुभ घड़ियों की कुदशा आती है। ऐसे संकटों एवं अनिष्टों की भयंकरता कम करने के लिये स्त्रियाँ गायत्री माता की शरण ले सकता है। घर का अर्थ संकट, दारिद्र, राजदण्ड का भय, मुकदमा, रोग, शत्रु भय आदि आपत्तियाँ जब सिर पर मंडरा रहीं हों तो इस महामन्त्र की सहायता से बहुत सहारा मिलता है। सन्तान का न होना, होकर मर जाना, केवल कन्याएँ ही होना, गर्भपात होते रहना आदि व्यथाओं में बहुधा पूर्व जन्मों के अशुभ संस्कार कारण होते हैं, तो भी उनका निवारण गायत्री द्वारा होना असम्भव नहीं। जिन घरों में भूत, प्रेत का प्रकोप रहता है, वहाँ यदि गायत्री की पूजा होने लगे, तो किसी प्रेत पिशाच का ठहरना वहाँ नहीं हो सकता । किसी तान्त्रिक, ओझा आदि ने अपने ऊपर या अपने बालकों के ऊपर कोई कुप्रयोग किया हो, तो उसका अनिष्ट भी गायत्री माता की कृपा से शान्त हो जाता है।

विधवाओं के लिए गायत्री साधना का बहुत भारी महत्व है। वे आत्म संयम, सदाचार, विवेक, ब्रह्मचर्य पालन, इन्द्रिय निग्रह एवं मन को वश में करने के लिए गायत्री साधना को ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग कर सकती हैं। जिस दिन से वे यह साधना आरम्भ करती हैं उसी दिन से मन में शान्ति, स्थिरता, सद्बुद्धि और आत्मसंयम की भावना पैदा होती है। वैधव्य उनके लिए तप साधना जैसा शान्ति प्राप्त करती हैं जिसकी तुलना में सधवा रहने का सुख भी नितान्त तुच्छ दिखाई पड़ता है।

कुमारी कन्याएँ अपने विवाहित जीवन में सब प्रकार की सुख शान्ति प्राप्त करने के लिए भगवती की उपासना कर सकती हैं। सधवा बहिनों को अपने पति, पुत्र तथा दोनों कुलों को सुखी समृद्ध, स्वस्थ, सम्पन्न एवं दीर्घजीवी, बनाने के लिए गायत्री उपासना करनी चाहिए। इसी प्रकार अन्य कठिनाइयों के निवारण एवं सुख शान्ति की वृद्धि के लिए भगवती का आश्रय लेना सब प्रकार मंगलमय होता है।

गायत्री माता का आश्रय लेना स्त्रियों के लिए सब प्रकार उत्तम हैं। पिता की अपेक्षा माता अपनी कन्या पर अधिक प्यार करती है। गायत्री माता परम कल्याणमयी हैं, उनका हृदय वात्सल्य से परिपूर्ण हैं। अपनी गोदी हमें चढ़ने वाली किसी पुत्री को वे निराश नहीं करतीं।


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