गायत्री एक अत्यन्त ही उच्च कोटि का अध्यात्मिक विज्ञान है। इसके द्वारा अपने मानसिक दोष दुर्गुणों को हटाकर अन्तःकरण को निर्मल बनाना हर किसी के लिए बहुत ही सरल है। इसके अतिरिक्त यदि गहरे अध्यात्मिक क्षेत्र में उतरा जाय तो अनेक प्रकार की चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियाँ उपलब्ध हो सकती हैं। भौतिक दृष्टि से सकाम कामनाओं के लिए साँसारिक कठिनाइयों का समाधान करने तथा सुख सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए भी महत्व पूर्ण सहायता ली जा सकती है। ताँत्रिक विधि से वाममार्गी क्रियाएँ करने पर इससे बड़े रोमाँचकारी परिणाम भी हो सकते हैं।
इस प्रकार की अनेकों साधनाओं में से जो सर्व साधारण के लिए उचित एवं आवश्यक समझी हैं वे गायत्री महाविज्ञान ग्रंथ के तीनों खण्डों में लिख दी हैं। जिनका प्रकट करना सर्व साधारण के लिए उपयुक्त नहीं समझा है, उन्हें बताना किन्हीं विशेष अधिकारी व्यक्ति यों की पात्रता पर निर्भर रहता है। उतनी बारीकियों में न जाया जाय तो साधारणतः इतना ही जान लेने से भी काम चल सकता है कि शरीर को स्नान से शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिए, किसी विवशता ऋतु प्रतिकूल या अस्वस्थता की दशा में हाथ मुँह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछ कर भी काम चलाया जा सकता है। आसन बिछा कर पालती मार कर सीधे साधे ढंग से स्थिर चित्त से बैठना चाहिए। माला तुलसी या चंदन की लेनी चाहिए। प्रातः काल सूर्योदय के दो घंटे पूर्व से लेकर सायंकाल सूर्य अस्त होने के एक घंटे बाद तक दिन में कभी भी उपासना की जा सकती है पर प्रातः सायंकाल का समय अधिक उत्तम है। यदि अधिक रात्रि हो जाये या चलते फिरते जप करना हो तो मन ही मन मौन मानसिक जप करना चाहिए। यदि मन्दिर या स्थिर उपासना गृह में नहीं बैठे हैं तो सूर्य को गायत्री का प्रतीक मान कर प्रातःकाल पूर्व को,मध्याह्न उत्तर को, सायंकाल पच्छिम को मुख करके बैठना चाहिए। माला जपते समय सुमेरु (माला के आरंभ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी होने पर उसे मस्तक से लगा कर पीछे को ही उलट देना चाहिए। तर्जनी उंगली का जप के समय उपयोग नहीं होता ।
मल मूत्र त्याग अनिवार्य कार्य के लिए बीच में उठना पड़ेगा। हाथ मुँह धोकर तब दुबारा बैठना चाहिए। जप नियमित संख्या में तथा नियत समय पर करना उचित है। यदि कभी बाहर जाने या अन्य कारणों से जप छूट जाय तो आगे थोड़ा थोड़ा करके उस छूटे हुए जप को पूरा कर लेना चाहिए। और एक माला प्रायश्चित स्वरूप अधिक करना चाहिए। जप इस प्रकार करना चाहिए कि कंठ से ध्वनि होते रहे, होंठ हिलते रहें परन्तु पास बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से उसे सुन न सके। साधक का आहार विहार सात्विक रहना चाहिए। पर जिनसे वैसा नहीं बन पड़ता वे भी उपासना कर सकते हैं। क्यों कि उपासना के प्रभाव से तन की बुराइयाँ बहुत जल्दी अपने आप ही सुधरती हैं और साधक स्वयं ही कुछ दिन की अनेक बुराइयों को छोड़ कर शुद्ध सतोगुणी बनने लगता है। जप प्रारम्भ करने से पूर्व पवित्रीकरण, आचमन,शिखा बन्धन प्राणायाम,न्यास करने का नियम है। यह पाँचों कार्य केवल गायत्री मन्त्र में हो सकते हैं। जिनको यह सब न आता हो वे गायत्री माता के चित्र को प्रणाम पूजन करने या मानसिक ध्यान करके जप प्रारंभ कर सकते हैं। जप के समय जल और धूप बत्ती रखनी चाहिए। इस प्रकार जल, और अग्नि को साक्षी रखना उत्तम है। कम से कम 1 माला (108 मन्त्र जपना आवश्यक हैं। अधिक सुविधा हो तो 3, 5, 7, 9, 11 आदि विषय संख्याओं में मालाएं जपनी चाहिए। जप के समय सूर्य के समय तेजस्वी मंडली में गायत्री माता का ॐ का ध्यान करते रहना चाहिये। जप के आदि में आवाहन का प्रणाम और अन्त में विसर्जन का प्रणाम करना चाहिए तथा पूजा के समय रखा हुआ जल सूर्य की ओर चढ़ा देना चाहिए।
कुछ विशेष साधनाएं:-
1 उपवास −रविवार का दिन गायत्री के उपवास का दिन है। निराहार केवल जल रहना या दूध, फल, छाछ शाक आदि फलाहारी वस्तुओं पर रहने का निर्णय अपनी शारीरिक स्थिति देखकर करना चाहिए। जो कठिन उपवास नहीं कर सकते वे एक समय बिना नमक का अन्नाहार लेकर रह सकते हैं।
2 मन्त्रलेखन − जप की अपेक्षा, मन्त्र लेखन का पुण्य फल सौ गुना अधिक माना गया है। क्योंकि इसमें श्रम और मनोयोग अधिक लगता है। चित्त की एकाग्रता और मन को वश में करने के लिए भी मन्त्र लेखन बहुत सहायक होता है। स्कूली साइज की कापी में, किसी भी स्याही से, शुद्धता पूर्वक गायत्री मन्त्र लिखे जा सकते हैं। इसके लिए कोई विशेष नियम या प्रतिबन्ध नहीं है। जब 2400 मन्त्र पूरे हो जायँ तो वह कापी ‘गायत्री तपोभूमि मथुरा’ के पते पर भेज देनी चाहिए। यह मन्त्र गायत्री तपोभूमि मथुरा में प्रतिष्ठापित किये जाते हैं और सदैव इनका विधिवत् पूजन होता रहता है। ऐसी मन्त्र लेखन श्रद्धांजलियां गायत्री मन्दिर में माता के सन्मुख उपस्थित करना एक बहुमूल्य भेंट है।
3 हवन −जिन्हें सुविधा हो वे नित्य अथवा रविवार को अथवा अमावस्या पूर्णमासी को अथवा जब सुविधा हो तब गायत्री मन्त्र से हवन कर लिया करें। जप के साथ हवन का संबन्ध है। अनुष्ठानों में तो जप का दशाँश या शताँश हवन करना आवश्यक होता है पर साधारण साधना में वैसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है फिर भी यदा कदा हवन करते रहना गायत्री उपासकों का कर्तव्य है। हवन की विस्तृत विधि ‘गायत्री यज्ञ विधान’ ग्रन्थ में है। उसके आधार पर अथवा अन्य किसी हवन पद्धति के आधार पर अग्नि होत्र कर लेना चाहिए। न्यूनतम 24 आहुतियों का हवन होना चाहिए। 108 या 240 आहुतियों का हवन हों सके तो और भी उत्तम है।
4 अभियान −एक वर्ष तक गायत्री की नियमित उपासना का व्रत लेने को ‘अभियान साधना’ कहते हैं। इसका नियम इस प्रकार है −
प्रतिदिन 10 माला का जप, (2) प्रतिदिन रविवार को उपवास (जो फल दूध पर न रह सकें वे एक समय बिना नमक का अन्नाहार लेकर भी अर्ध उपवास कर सकते हैं) (3) पूर्णिमा या महीने के अन्तिम रविवार को 108 या कम से कम 24 आहुतियों का हवन । सामग्री न मिलने पर केवल घी की आहुतियाँ गायत्री मन्त्र के साथ देकर कर सकते हैं, (4) मन्त्र लेखन− प्रतिदिन कम से कम 24 गायत्री मन्त्र एक कापी पर लिखना, (5) स्वाध्याय−गायत्री साहित्य का थोड़ा बहुत स्वाध्याय नित्य करके अपने गायत्री सम्बन्धी ज्ञान को बढ़ाना, (6) ब्रह्म संदीप− दूसरों को गायत्री साहित्य पढ़ने की तथा उपासना करने की प्रेरणा एवं शिक्षा देना। अपनी पुस्तकें दूसरों को पढ़ने को देकर उनका ज्ञान बढ़ाना एवं नये गायत्री उपासक उत्पन्न करना। इन छः नियमों को एक वर्ष नियम पूर्वक पालन किया जाय तो उसका परिणाम बहुत ही कल्याणकारक होता है। वर्ष के अन्त में यथा− शक्ति हवन एवं दान पुण्य करना चाहिये।
5 अनुष्ठान − अनुष्ठान विशेष तपश्चर्या है। इससे विशेष परिणाम प्राप्त होता है। लघु अनुष्ठान 24 हजार जप का,मध्यम अनुष्ठान सवा लक्ष जप कर तथा पूर्ण पुरश्चरण 24 लक्ष जप का होता है। साधारणतः लघु अनुष्ठान 9 दिन में,मध्य अनुष्ठान 40 दिन में और पूर्ण अनुष्ठान लगभग 1॥ वर्ष में पूरा होता है। आश्विन और चैत्र की नवरात्रियाँ लघु अनुष्ठान करने के लिये अधिक उपयुक्त अवसर हैं। सुविधानुसार अनुष्ठानों को कम या अधिक समय में भी किया जा सकता है। प्रतिदिन हो सकने वाले जप की संख्या और अनुष्ठान की जप संख्या का हिसाब लगाकर अवधि निर्धारित की जा सकती हैं। जप संख्या नित्य समान संख्या में होनी चाहिए। जप का सौवाँ भाग (शताँश) हवन भी होना चाहिए। अनुष्ठान के दिनों में ब्रह्मचर्य उपवास, मौन, भूमि, शयन, अपनी शारीरिक सेवा दूसरों से ने लेना, आदि तपश्चर्याएं अपने से जितनी बन सकें उतनी करने का प्रयत्न करना चाहिए। अनुष्ठान विद्वान वेदपाठी पण्डितों से भी कराये जा सकते हैं।
6 अनुज्ञान − गायत्री उपासना जैसे महान कल्याण कारक साधन को लोग भूल बैठे हैं इसका मूल कारण गायत्री के महत्व, महात्म्य एवं विज्ञान की जानकारी न होना है जानकारी को फैलाने से ही पुनः संसार में गायत्री माता का दिव्य प्रकाश फैलेगा और असंख्यों हीन दशा में पड़ी हुई आत्माएँ महापुरुष बनेंगी । इसलिए गायत्री ज्ञान का फैलाना भी अनुष्ठान की भाँति ही महान् पुण्य कार्य है। इस प्रचार साधना का नाम ‘अनुज्ञान’ है। जैसी यह सस्ती पुस्तक आपके हाथ में है वैसी ही या अन्य किन्हीं गायत्री पुस्तकों को अपनी श्रद्धानुसार 24,108,240,1008,2400 की संख्या में धार्मिक प्रकृति के मनुष्यों को पढ़वाना, दान देना या खरीदवाना “अनुज्ञान” है। मकर संक्रान्ति पर, नवरात्रियों में,गायत्री जयन्ती, गंगा दशहरा,अपना जन्म दिन, पूर्वजों के श्राद्ध,पुत्र जन्म,विवाह, सफलता, उन्नत,व्रत त्यौहार,उत्सव आदि के शुभ अवसरों पर ऐसे “अनुज्ञान”करते रहना एक उच्च कोटि की माता को प्रसन्न करने वाली श्रद्धाञ्जलि है। अन्नदान की अपेक्षा ब्रह्मदान का फल हजार गुना अधिक माना गया है।
7 पर्ण पाठ −गायत्री सहस्रनाम या गायत्री चालीसा के पाठ करना भी फलप्रद है। गायत्री सहस्र नाम के 9 दिन में 108 पाठ और गायत्री चालीसा के 9 दिन में 240 पाठ करने को पूर्ण पाठ कहते हैं। इनके अन्त में भी हवन तथा दान करना चाहिये।
बहुधा आसुरी शक्तियाँ यज्ञों, अनुष्ठानों एवं पाठ को असफल बनाने के लिये बीच−बीच में विघ्न फैलाती हैं। तथा कभी−कभी साधन करने वालों से कोई त्रुटि रहने से भी साधना सफल नहीं हो पाती। इन विघ्नों से बचने के लिए किसी सुयोग्य अनुभवी साधक को अपनी साधनाओं का संरक्षण नियुक्त किया जाता है जो विघ्नों संरक्षण तथा त्रुटियों का दोष परिमार्जन करता रहे जिन्हें ऐसी संरक्षण प्राप्त करने में कठिनाई होवे गायत्री तपोभूमि मथुरा से इस प्रकार की सेवा सहायता प्राप्त कर सकते हैं।
अनेकों प्रयोजनों के लिये अनेक प्रकार की अलग−अलग साधनाएँ की जाती हैं। कठिन से कठिन रोगों के निवारण के लिए, मन्द बुद्धि लोगों की बुद्धि को तीव्र बनाने के लिए सर्प आदि प्राण घातक विषैले जन्तुओं का विष निवारण करने के लिए, राजकीय अदालती कार्यों में सफलता के लिए दरिद्रता नाश के लिए, मनोवांछित सन्तान प्राप्त करने के लिए, शत्रुता का संहार करने के लिए, भूत बाधा की शाँति के लिए, पथ भ्रष्टों को रास्ते पर लिए आवुमण की संभावना−से आत्म रक्षा के लिए विभिन्न रीतियों से अनेक बीज मन्त्र एवं सम्पुट लगा कर गायत्री साधना की जाती है।
गायत्री की उपासना की वृद्धि के साथ साथ आत्मबल बढ़ता है और अपने भीतर शक्ति यों और सिद्धियों का विकास होता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। जिस समय सिद्धियों का उत्पादन एवं विकास हो रहा हो,वह समय बड़ा ही नाजुक और बड़ी ही सावधानी का हैं। जब किशोर अवस्था का अन्त और नवयौवन का आरम्भ होता है उस समय वीर्य का शरीर में नवीन उद्भव होता है इस उद्भव काल में मन बड़ा उत्साहित काम क्रीड़ा का इच्छुक एवं चञ्चल रहता है,यदि उस मनोदशा पर नियन्त्रण न किया जाये तो कच्चे वीर्य का अपव्यय होने लगता है और वह नवयुवक थोड़े ही समय में शक्ति हीन, वीर्यहीन, यौवनहीन होकर सदा के लिए निकम्मा बन जाता है। साधना में भी सिद्धि का प्रारम्भ ऐसी ही अवस्था है जब साधक अपने अन्दर एक नवीन आत्मिक चेतना अनुभव करता है और उत्साहित होकर प्रदर्शनों द्वारा दूसरों पर अपनी महत्ता की छाप बिठाना चाहता है। यह क्रम चल पड़े तो वह कच्चा वीर्य प्रारंभिक सिद्धि तत्व−स्वरूप काल में ही अपव्यय होकर समाप्त हो जाता है और साधक को सदा के लिए छूँछ एवं निकम्मा हो जाना पड़ता है, इसलिए नवीन साधकों को उचित है कि अपनी सिद्धियों को गुप्त रखें, किसी पर प्रकट न करें, किसी के सामने प्रदर्शन न करें। उनका दुरुपयोग न करें। और साथ ही जा दैवी चमत्कार दृष्टिगोचर हों उन्हें विश्वस्त अभिन्न हृदय मित्रों के अतिरिक्त और किसी से न कहें।