धर्मों का मूल आदर्श एक है।

December 1952

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(श्री स्वामी सत्यभक्त जी)

जुदे-जुदे धर्मों में जो हमें परस्पर विरोध मालूम होता हैं वह अनेकान्त, स्याद्वाद या सम-भाव के न प्राप्त करने का फल है। मैं यह नहीं कहता कि प्रत्येक धर्म का प्रत्येक सिद्धान्त वैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। मनुष्य प्रकृति का विचार करके हर एक धर्म में वैज्ञानिक असत्य को स्थान मिला है। परन्तु वह असत्य भी धर्म के लिए ही लाया गया है, अधर्म के लिए नहीं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण माला उपस्थित करने की आवश्यकता होगी।

पहिले ईश्वर कर्तृत्व के विषय को लीजिए।

एक सम्प्रदाय कहता है कि जगत्कर्त्ता ईश्वर है, दूसरा कहता है कि जगत्कर्त्ता ईश्वर नहीं है। निःसन्देह इन दोनों में से कोई एक असत्य है। परन्तु इन दोनों बातों का लक्ष्य क्या है? ईश्वर-कर्तृत्ववादी कहता है कि अगर तुम पाप करोगे तो ईश्वर तुम्हें दण्ड देगा, नरक में भेजेगा, अगर तुम पुण्य करोगे तो वह खुश होगा, तुम्हें सुख देगा, स्वर्ग में भेजेगा। ईश्वर-कर्तृत्व विरोधी जैन कहेगा कि अगर तुम पाप करोगे तो अशुभ कर्मों का बन्ध होगा, खाये हुए अपथ्य भोजन के समान उसका तुम्हें दुःखमय फल मिलेगा, तुम्हें बुरी गति में जाना पड़ेगा। अगर तुम पुण्य करोगे तो तुम्हें शुभ कर्मों का बन्ध होगा, खाये हुए पथ्य भोजन के समान उससे तुम्हारा हित होगा, आदि। एक धर्म लोगों को ईश्वर-कर्तृत्ववादी बनाकर जो काम करना चाहता है, दूसरा धर्म लोगों को ईश्वर-कर्तृत्व का विरोधी बनाकर वही काम कराना चाहता है। यहाँ धर्म में क्या भिन्नता है? भिन्नता उसके साधनों में है। परन्तु भिन्नता होने से विरोध होना चाहिए, यह नहीं कहा जा सकता। विरोध वहाँ होता है जहाँ दोनों का उद्देश्य एक दूसरे का विघातक हो, परन्तु यहाँ दोनों का उद्देश्य एक ही है। इसलिए हम इन्हें विरोधी धर्म नहीं कह सकते। उनमें से अगर हम ईश्वर-कर्तृत्ववाद को वैज्ञानिक दृष्टि से असत्य मान लें, तो भी वह अधर्म नहीं कहा जा सकता। जो भावुक हैं उनके लिए ईश्वर-कर्तृत्ववाद अधिक उपयोगी है। वे यह सोचते हैं कि ईश्वर के भरोसे सब छोड़ देने से हम निश्चिन्त हो जाते हैं, हममें कर्तृत्व का अहंकार पैदा नहीं होता, पुण्य पाप का विचार रहता है। जो बुद्धि पर अधिक जोर देते हैं, वे तर्क सिद्ध न होने से ईश्वर को नहीं मानते। वे सोचते हैं कि ईश्वर को कर्त्ता न मानने से हम स्वावलम्बी बनते हैं—हम ईश्वर को प्रसन्न करने की कोशिश करने की अपेक्षा कर्त्तव्य को पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं, हमारे पापों को कोई माफ करने वाला नहीं है, इस विचार से हमें पाप से भय पैदा होता है। जिस धर्म ने ईश्वर को माना है, उसने भी इसीलिए माना है कि मनुष्य पाप न करे। जिसने ईश्वर नहीं माना, उसने भी इसीलिए नहीं माना कि मनुष्य पाप न करे। दोनों का लक्ष्य एक है और दोनों ही प्राणियों को सुखी बनाना चाहते हैं, और एक अंश में उन्हें सफलता भी मिली है। इतना ही नहीं परलोक को न मानने वाले नास्तिकों ने भी परलोक को नहीं माना, उसका कारण सिर्फ यही था कि मनुष्य समाज सुखी रहे। जब परलोक के नाम पर एक वर्ग लूट मचाने लगा और भोले-भाले लोग ठगे जाने लगे, विवेक शून्य होकर दुःख सहने को जब लोग पुण्य समझने लगे, तब नास्तिक धर्म पैदा हुआ। इस प्रकार आस्तिकता की सीमा पर पहुँचे हुए ईश्वर कर्तृत्ववादी और नास्तिकता की सीमा पर बैठे हुए परलोक भाववादी, अपने-अपने धर्म का प्रचार सिर्फ इसीलिए करते थे कि मनुष्य निष्पाप बने, एक प्राणी दूसरे प्राणी को न सतावे। यह हो सकता है कि इनमें से कोई धर्म कम सफल हो कोई अधिक, कोई अल्पकालिक हो कोई चिरकालिक, परन्तु यह निश्चित है कि अपने-अपने देश काल में सब धर्मों ने मनुष्य समाज को सुखी बनाने की और समाज के दुःख मूलक विकारों को दूर करने की चेष्टा की है।

अब हिंसा-अहिंसा के प्रश्न को लीजिये। जैन धर्म और बौद्ध धर्म में अहिंसा पर बहुत जोर दिया गया है। परन्तु जिन धर्मों ने हिंसा का विधान किया है, वे अपने समय में भी इतने ही अनुचित थे जितने आज हैं—यह नहीं कहा जा सकता। जिस समय यहाँ जंगलों की बहुलता थी, जंगली जानवरों से कृषि की रक्षा असम्भव थी, उस समय पर मनुष्य समाज की रक्षा के लिए हिंस्र तथा कृषि विघातक जानवरों का यज्ञ तथा शिकार आदि से नाश किया गया, यह अगन्तव्य नहीं है। यह बात दूसरी है, कि पीछे से इस हिंसा की आवश्यकता न होने पर भी लोगों ने नामवरी के लिए या व्यसन के लिए ये कार्य किये। आज हजारों वर्ष से यहाँ कृषि कार्य हो रहा है, इसलिए उस समय के कष्ट की हम कल्पना भी नहीं कर सकते जब लोगों को कृषि-रक्षा के लिए या आत्मरक्षा के लिए इस प्रकार हिंसा का विधान करने पड़े। आज यह हिंसा विधान कई हजार वर्षों से अनावश्यक है, इसलिए वर्तमान काल की दृष्टि से हमें हक है कि हम उसे अनुचित कहें, और अनुचित और पाप में तो सिर्फ शब्द-मात्र का अन्तर है।

इस तरह यह हिंसा विधायक धर्म भी एक समय के लिए आवश्यक था। किन्तु हमारा सबसे बड़ा पाप तो यह है कि एक समय के लिए जो आवश्यक था वह सब समय के लिए आवश्यक मान लेते हैं। जिस समय कृषि कार्य अच्छी तरह से चलने लगा, जंगली पशु भी पालतू पशु हो गये यहाँ तक कि हम उनका दूध तक पीने लगे, इस तरह वे हमारे सहयोगी होकर नागरिक बन गये, उस समय इन मित्रों की हत्या करना क्या उचित था? जब हम उसकी हिंसा किये बिना जीवित रह सकते थे, तब क्या हमें उनकी रक्षा न करनी चाहिए थी? क्या यह तामसिकता हमारे अधःपतन का कारण न थी? यही सोचकर महात्मा महावीर और महात्मा बुद्ध ने हिंसा के विरुद्ध क्रान्ति की। एक समय जो उचित था या क्षम्तव्य था, दूसरे समय में वही अनुचित था, पाप था, इसलिए उसके दूर करने के लिए जो क्रान्ति हुई वह धर्म कहलाई।

हिंसा-अहिंसा के प्रश्न के साथ गो-वध के प्रश्न को ले लीजिए। निःसन्देह किसी भी निरपराध प्राणी की हत्या करना बड़ा भारी पाप है और हिन्दुस्तान में गोवध करना तो बड़े से बड़ा पाप है। परन्तु मुसलमान धर्म जब और जहाँ पैदा हुआ वहाँ की दृष्टि से हमें विचार करना चाहिए। महात्मा मुहम्मद के जमाने में अरब की बड़ी दुर्दशा थी। मूर्तियों के नाम पर वहाँ मनुष्य-वध तक होता था। इसको दूर करने के लिए उनने मूर्ति को हटा दिया। “न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी”—न मूर्तियाँ होंगी, न उनके नाम पर बलि होगी। परन्तु इतनी विशाल क्रान्ति, लोग सह नहीं सकते थे। पात्रता के अनुसार ही सुधार होता है। इसलिए मनुष्य-बलि बन्द हुई और गो-वध आया। हिन्दुस्तान में गो-वंश कृषि का एक मात्र सहायक होने से यहाँ उसका मूल्य अधिक है। इसीलिए गो-माता सरीखे शब्द की उत्पत्ति यहाँ हुई है। परन्तु अरब में कृषि के लिए गो-वंश की आवश्यकता नहीं है—वहाँ ऊँटों से खेती होती है। यदि बलि आदि को, रोकने के लिए मुहम्मद साहब ने मूर्तियाँ हटा दीं, मनुष्य-वध रोकने के लिए गो वध का विधान किया, तो “सर्वनाश उपस्थित होने पर आधे का त्याग कर देना चाहिए” इस नीति के अनुसार उस काल को देखते हुए यह अनुचित नहीं कहा जा सकता। जैन शास्त्रों में एक कथा प्रचलित है कि मुनि के उपदेश देने पर भी जब एक भील किसी तरह माँस छोड़ने को राजी न हुआ, तो उन्होंने उससे काक माँस का ही त्याग कराया। इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य माँसों का विधान कराया गया, सिर्फ शक्यानुष्ठान की दृष्टि से यह बात भी उचित समझी गई। इस दृष्टि से मुहम्मद साहब के समय में अरब की स्थिति पर विचार करके इस्लाम की आलोचना करनी चाहिए। परन्तु भूल है उनकी, जो मुहम्मद साहब के अनुयायी होकर के भी मुहम्मद साहब की दृष्टि पर विचार नहीं करना चाहते। शोधा हुआ संखिया असाधारण बीमारी में दवाई का काम करता है, परन्तु बीमारी की परिस्थिति हट जाने पर उसे कोई अपना भोजन बना ले, तो बीमार हो जायगा। ऐसी हालत में हम उस वैद्य को बुरा न कहेंगे जिसने बीमारी के अवसर पर संखिया खिलाया, बुरा कहेंगे हम उन्हें, जिनने बीमारी के हट जाने पर भी संखिया को सदा के लिए भोजन बना लिया। मुहम्मद साहब के अनुयायी, जो कि भारत वर्ष में रहते हैं, अगर मुहम्मद साहब की दृष्टि से काम लें तो वे कभी गो-वध का विधान न करें। मनुष्य-वध के युग में पशु-वध का विधान क्षम्तव्य कहा जा सकता है, परन्तु जिस देश में वनस्पति के स्पर्श में घोर हिंसा मानने वाले हों उस देश में पशु-वध के विधान की क्या आवश्यकता है? वहाँ तो यह पाप है। अगर हम इस बात को समझें तो इस्लामियों के वर्तमान कार्यों को अनुचित समझते हुए भी इस्लाम को सहन कर सकेंगे।

अब मैं वैदिक धर्म की एक बात लेता हूँ। वैदिक धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था जैन धर्म को मान्य नहीं है। परन्तु यह कहना ठीक नहीं कि वैदिक धर्म का पक्ष असत्य है या जैन धर्म का पक्ष असत्य है। वैदिक धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था को समझाने के लिए हमें अपनी दृष्टि कई हजार वर्ष पहले ले जानी चाहिए। हम देखते हैं कि उस समय आर्यों को कृषि और सेवा के लिए आदमी नहीं मिलते हैं—सभी आदमी अयोग्य रहते हुए भी पंडिताई या सैनिक जीवन बिताना चाहते हैं। आवश्यक क्षेत्र में आदमी नहीं मिलते, अनावश्यक क्षेत्र में इतने आदमी भर गये हैं कि बेकारी फैल गई है। हर एक आदमी महीने में तीस बार अपनी आजीविका बदलता है। वह किसी भी काम में अनुभव प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसी हालत में वर्ण-व्यवस्था की योजना होती है। इससे अनुचित प्रतियोगिता बन्द होकर आजीविका के क्षेत्र का यथायोग्य विभाग होता है। परन्तु इसके बाद महात्मा महावीर के जमाने में हम देखते हैं कि वर्णों ने जातियों का रूप पकड़ लिया है। पशुओं में जैसे हाथी-घोड़ा आदि जातियाँ होती हैं, उसी प्रकार आजीविका की सुविधा के लिए किया गया यह सुप्रबन्ध, मनुष्य जाति के टुकड़े-टुकड़े कर रहा है। पारस्परिक सहयोग के लिए की गई वर्ण व्यवस्था परस्पर में असहयोग और घृणा का प्रचार कर रही है। सिर्फ आजीविका के क्षेत्र के लिए किया गया यह विभाग रोटी-बेटी व्यवहार में भी आड़े आ रहा है। इसके कारण दुराचारी ब्राह्मण सदाचारी शूद्र की पूजा नहीं करना चाहता, किन्तु उसे पददलित करना चाहता है। तब वर्ण-व्यवस्था का विरोध करना परम धर्म हो जाता हैं, क्योंकि यह व्यवस्था अब दुःखदायी हो जाती है। यही बात आश्रम-व्यवस्था की है। जब जीवन की जिम्मेदारियों से मुँह छुपाने वाले अपने माता-पिता को रोते छोड़कर भागने लगे, समाज अनुत्तरदायी युवा साधुओं से भर गया, तब आश्रम-व्यवस्था की आवश्यकता हुई। यह नियम बनाया गया कि हर एक आदमी को पितृ-ऋण चुकाना चाहिए, अर्थात् माता-पिता की सेवा करनी चाहिए और जिस प्रकार माता-पिता ने उसका पालन किया है, उसी प्रकार उसे अपनी संतान का पालन करना चाहिए, पीछे वानप्रस्थ रहकर संन्यास का अभ्यास करना चाहिए, फिर संन्यास लेना चाहिए। अब आप देखें कि यह व्यवस्था संसार की भलाई के लिये कितनी अच्छी है।

अब थोड़ा सा विचार द्वैत और अद्वैत पर भी कीजिए। अद्वैतवादी कहता है कि सब जगत् का मूल तत्व एक है, द्वैत भावना करना संसार का कारण है। इस प्रकार का विचार करने वाला मनुष्य, यह मेरा स्वार्थ, वह दूसरे का स्वार्थ, यह विचार ही नहीं ला सकता। वह जो जगत के हित में अपना हित समझेगा जिस वैयक्तिक स्वार्थ के पीछे लोग नाना पाप करते हैं, वह वैयक्तिक स्वार्थ उनकी दृष्टि में न रहेगा। वह निष्पाप बनेगा। द्वैतवादी कहेगा—भूल तत्व वो हैं, मैं आत्मा हूँ और मेरे साथ लगा रहने वाला पर-तत्व पूर्ण जुदा है। मैं इस ‘वर’ के बन्धन में पड़कर पराधीन हूँ, दुखी हूँ, मुझे इस बन्धन को तोड़ना चाहिये। यह समझकर शरीर की अपेक्षा आत्मा को मुख्यता देता है, शरीर के लिये कोई पाप नहीं करता। इस तरह द्वैत-भावना उसे निर्विकार बनने को प्रोत्साहित करती है।

इस तरह के बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं। उन पर से हमें मालूम होगा कि धर्म को प्राप्त करने के लिये जो सम्प्रदाय बने हैं, वे जब बने थे तब उस द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार किसी उपयोगी—कल्याणकारी—तत्व को लेकर बने थे। तभी वे खड़े हो सके इसलिये मैं इस बात को कहने का साहस करता हूँ कि सम्प्रदायों के मौलिक (असली) रूप का धर्म के साथ—कल्याण के साथ कोई विरोध नहीं हैं।

हाँ, हर एक सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का पीछे से दुरुपयोग होता है। परन्तु इससे हम उन सम्प्रदायों को बुरा नहीं कह सकते। दुरुपयोग तो अच्छे से अच्छे तत्व का होता है। अहिंसा सरीखे श्रेष्ठ तत्व का दुरुपयोग होकर कायरता का प्रचार हुआ है। दीक्षा के नाम पर बालक-विक्रय या बालक-चोरी भी होती है, द्वैत के नाम पर स्वार्थ का ही पोषण हो सकता है, अद्वैत के नाम पर सब स्त्रियों में अद्वैत भावना रखकर व्यभिचार का पोषण हो सकता है। इसलिये दुरुपयोग को हटाकर हमें हर एक सम्प्रदाय के मौलिक रूप पर विचार करना चाहिये और उसी दृष्टि से उसकी आलोचना करनी चाहिये। तब हमें सब सम्प्रदाय अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार अविरुद्ध और अभिन्न मालूम होंगे, और अपनी योग्यतानुसार हम उन सभी से लाभ उठा सकेंगे।


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