ज्ञान प्राप्त करने में सदा संलग्न रहिए।

December 1952

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(आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री)

आजकल के अधिकाँश स्त्री-पुरुष स्वतन्त्र और बुद्धिमान नहीं होते, वह उड़ती हुई पतंग के समान होते हैं और उस पतंग की डोरी पुरोहितों और राजनीतिज्ञों के हाथ में होती है। वह विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा अन्य विषयों का ज्ञान न होने के कारण मुँड़ते तथा मूर्ख बनाये जाते है।

मनुष्य जाति की आधी त्रुटियाँ अज्ञानवश और शेष आधी अहंकार के कारण होती हैं। आचरण के ही समान ज्ञान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वास्तविक में यह दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। जैसा कि लेसिंग का कहना है। “ज्ञान का उद्देश्य सत्य का अन्वेषण करना है, और सत्य ही आत्मा की आवश्यकता है।” फारसी कवि सादी भी निम्न शब्दों में सभी को अत्यन्त उत्साह के साथ ज्ञान प्राप्त करते रहने की ही प्रेरणा करता है, “तुझको मोमबत्ती के समान ज्ञान के अन्वेषण में पिघल जाना चाहिये। यदि तुझे इसके लिए संसार भर में भी यात्रा करनी पड़े तो तेरा यही कर्त्तव्य है।

ज्ञान के लिये कभी समाप्त न होने वाले युद्ध में आप प्रतिदिन नियमानुसार लगे रहो। अपने समय का कुछ भाग अध्ययन अथवा प्रयोग के लिये दैनिक दिया करो। शरीर को प्रतिदिन कई-कई बार भोजन दिया जाता है, बुद्धि को भी मत भूखी रखो।

बहुत से स्त्री-पुरुषों की मनोवृत्ति इतनी व्यावसायिक होती है कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहते जिससे पैसे की आय न हो। उनका विश्वास है कि जिस अध्ययन और मस्तिष्क के कार्य के बदले में रुपये के लिये ही कठिन परिश्रम करके शेष समय को खेल-कूद आमोद-प्रमोद में व्यतीत किया करते हैं। उनके जीवन का यही नियम जान पड़ता है। बुद्धि का मूल्य उनकी दृष्टि में भौतिक उन्नति करने में ही है। वह व्यक्तिगत मानसिक उन्नति को मूर्खतापूर्ण कार्य समझते हैं। यही कष्टकर भौतिक मनोवृत्ति समाज के सभी वर्गों में गहरी जड़ जमाये हुये हैं। धनी और निर्धन, सबमें यही रोग है। एक वृद्धा मजदूरनी ने मुझसे अपने पुत्र की कभी-कभी सस्ती पुस्तकें खरीदने की प्रकृति के विषय में शिकायत करते हुये कहा था, “वह पुस्तकों में रुपया बरबाद किया करता रहता है। भला उनसे उसका क्या लाभ होना है? वह एक बढ़ई है, अध्यापक नहीं।” हमको नित्य ही ऐसे व्यक्ति मिला करते हैं, जिनका जीवन उनके व्यापार (चाहे वह कुछ भी क्यों न हो) और तुच्छ आमोद-प्रमोद की चक्की में इसी प्रकार पिस कर व्यर्थ में व्यतीत होता रहता है।

इस प्रकार के एकपक्षीय अत्यन्त दुनियादार मनुष्यों से मैं यही कहूँगा, “छाया को पकड़ने और असली तत्व के छूटने से पूर्व ही चेत जाओ। आप अपने मस्तिष्क को रुपये में परिणत कर सकते हो, किंतु इस अवस्था में आप प्रकृति के इस दुर्लभ उपहार का दुर्व्यवहार और दुरुपयोग करते हो। बुद्धि से विशेष रूप से उन्नति और सामाजिक सेवा के साधन के रूप में ही काम लेना चाहिये। वह आपके नगर वासियों के विरुद्ध षडयन्त्र करने का औजार न बने। यदि तुम सभी प्रकार के मस्तिष्क के कार्य को केवल रुपया पैदा करने का साधन ही समझते हो, तो तुम पतित और दयनीय वैश्या के समान हो।

यदि आप सर्वतोमुखी मानसिक उन्नति के कर्त्तव्य से जी चुराते हो तो आप अपने को उस अकथनीय आनन्द से वंचित करते हो, जिसको संसार की बड़ी से बड़ी सम्पत्ति से भी मोल नहीं लिया जा सकता। अतएव रुपयों के बड़े-बड़े थैलों के बोझ के नीचे दबे हुये बौद्धिक बौने बने रहने में सन्तुष्ट मत रहो। अपने मस्तिष्क के अधिक से अधिक विकास के लिये भी प्रयत्न करते चलो।

गायत्री चर्चा-


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