स्वकर्म द्वारा ईश्वराराधन

December 1952

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(श्री दौलतराम जी कटरहा, दमोह)

किसी ने बहुत ही गहराई से सोचकर कहा है कि “अपना कर्म ही देवपूजन है’ गीता में भी कहा है कि ‘जिस परमात्मा से सब प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सब जगत् व्याप्त है उस परमेश्वर को अपने कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है’ (गीता अ. 18-श्लोक 46) इन बातों में गहरा तथ्य भरा हुआ है। यदि हम इनकी सचाई को हृदयंगम कर लें तो हम देवपूजा और ईश्वराराधन का फल चित्त की प्रसन्नता, शान्ति और निर्भयता आदि अपने कर्म के बदले में पा जावें।

संघर्ष के इस युग में सब व्यक्ति अपने मन का काम नहीं पाते। समाज के प्रचलित ढांचे के कारण या अनुकूल अवसर मिलने या न मिलने के कारण अथवा अपनी पहुँच या विशेष परिश्रम के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न कामों में लग जाते हैं। ऐसे समय में जो व्यक्ति अपने हिस्से में आए हुए काम को उत्साह और सतर्कता पूर्वक नहीं करता वह अपने कार्य में असफल प्रमाणित हो जाता है और कार्य के उस क्षेत्र को छोड़कर उसे अपने इस छोड़े हुए कार्य से भी अधिक अरुचिकर कार्य को करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अतएव अपने ऊपर आ पड़े काम के प्रति असन्तोष रखने और लापरवाही बरतने का परिणाम होता है निम्न से निम्नतर स्थिति पर खिसकते जाना। अपने काम को अन्यमनस्क भाव से करने का कुप्रभाव मनुष्य के स्वभाव पर भी पड़ता है। मन लगाकर और डटकर काम करने की आदत जाती रहती है और लापरवाही से बार-बार काम करने के कारण, स्थायी-रूप से मनुष्य का स्वभाव लापरवाह हो जाता है और वे कुसंस्कार उस पर सदा के लिए दृढ़तापूर्वक अंकित हो जाते हैं। फिर मनुष्य नीचे ही नीचे खिसकता जाता है और हर काम में असफल होते रहने से उसकी मनोवृत्ति में पराजय की भावना प्रवेश कर जाती है, और फिर वह व्यक्ति कभी पनपने नहीं पाता। लापरवाही से काम करने के इस परिणाम को दृष्टि में रखकर भी मनुष्य को अपने हिस्से में आया हुआ काम उत्साह और तन्मयतापूर्वक करना चाहिए।

प्रत्येक महत्वाकाँक्षी नवयुवक अच्छे पद पर रहकर कोई बड़ा काम करना चाहता है। किन्तु सच तो यह है कि यदि वह भविष्य के ख्याल में ही मस्त रहे, और अपने मौजूदा काम को बिसारता रहे तो अधिक सम्भव यही है कि उसे वह बड़ा काम करने का मौका कभी भी न आवेगा और वह वर्षों काम करने के लिए अवसर पाने का मार्ग तो उसी स्थान से आरम्भ होता है जहाँ पर कि वह वर्तमान अवस्था में मौजूद है। अतएव मनुष्य को जो काम हाथ लगे उसे पूर्ण मनोयोग से करना चाहिए।

सम्भव है कि जिस कार्य में आप लगे हों वह आपकी योग्यताओं के अनुकूल न हो और इसलिए आपके लिए वह कार्य छोड़ना आवश्यक जान पड़े। ऐसी दशा में वह कार्य छोड़ देना अवश्य ही आवश्यक होगा परन्तु उस कार्य को जितनी अच्छी तरह हो सके उतनी अच्छी तरह करने के उपरान्त ही छोड़ना ठीक होगा। किसी कार्य में असफल होकर उसे छोड़ना या पराजित मनोवृत्ति लिए हुए एक कार्य को त्याग कर दूसरा ग्रहण करना ठीक नहीं है। जीवन का प्रारम्भ हार से आरम्भ नहीं होना चाहिए, असफल कार्यों के संस्कार जीवन को कदापि सफल नहीं होने दे सकते।

एक विचारक का कहना है कि आपकी सफलता कभी भी तब तक आरम्भ न होगी जब तक आप अपने कार्य से प्रेम न करोगे और उसे उत्साह और प्रसन्नतापूर्वक न करोगे। अपने कार्य में अच्छी तरह लगा हुआ पुरुष शीघ्र ही सिद्धि पा जाता है (स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः)। अपने कार्य को उत्साहपूर्वक करने से कार्य करने की शक्ति बढ़ जाती है। कठिन कार्य भी सरल प्रतीत होता है, कठिनाइयों को सरलतापूर्वक पार कर दिया जाता है और कार्य करने में उकताहट और थकावट भी शीघ्र नहीं मालूम होती। यह अनुभव की बात है कि जिस कार्य में अरुचि होती है उस कार्य को करने में मन पर अधिक बोझ पड़ता है, उस पर अधिक तनाव पड़ता है और फलस्वरूप उस कार्य में थकावट भी शीघ्र मालूम होने लगती है। किन्तु जो कार्य रुचिकर और सुखद होता है उस कार्य से मन नहीं ऊबता और बहुत समय तक कार्य करने के उपरान्त कार्य करने की शक्ति शेष बनी ही रहती है। अतएव अपने कार्य से प्रेम करने से मनुष्य की कार्य क्षमता बढ़ती है और मनुष्य के लिए उसके आगे बढ़ने का द्वार उन्मुक्त हो जाता है। अपने कार्य से प्रेम करने वाला मनुष्य अपने काम में कभी पीछे नहीं रहता, उसके काम कभी अधूरे नहीं रहते, अतएव उसे कभी उनके अपूर्ण रहने की चिन्ता नहीं सताती। उसी के काम सदा समय पर ही, और कभी-कभी पहले ही हो जाते हैं, अतएव वह निश्चित रहता है, उसका चित्त स्वस्थ रहता है और वह शाँति का सुख भोगता है। यदि मनुष्य सब साधनाएँ करे पर यदि वह अपने काम में हमेशा पीछे रहे तो उसे कभी मानसिक शान्ति प्राप्त न होगी, और उसका चित्त प्रसन्न न रहेगा। चित्त प्रसन्न न रहने से मनुष्य की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती अतएव कार्यों का अधूरा रहना, अकृतकार्यता मनुष्य के लिए शान्ति प्राप्त करने में सदा बाधक बनी रहेगी। अतएव इस विचार से भी शान्ति चाहने वाले व्यक्ति को अपने ऊपर आए हुए कार्य-भार को प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक सम्भालना चाहिए।

शास्त्रों में लिखा है कि जनक आदि महापुरुष कर्म द्वारा ही सिद्धि पा गये। वे लोग कुशल कार्यकर्त्ता थे और उनमें सब आवश्यक कार्यों को कर डालने की शक्ति थी। पर यह शक्ति उनमें अपने कार्य के प्रति उत्साह दिखाने से ही होगी। बिना अपने कार्य से प्रेम किए कोई भी व्यक्ति कार्यकुशल कर्मयोगी नहीं होता।


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