बलवान ही विजयी होता है।

December 1952

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(श्री स्वामी शुकदेवानन्द जी)

अपने संचित प्रारब्धानुसार समय-समय पर दुख तो आवेंगे ही किन्तु विचारपूर्वक उन दुखों का प्रसन्नतापूर्वक सामना करने वालों का ही मूल्य संसार में बढ़ जाता है। जिस प्रकार सर्दी से बचने के लिये छाता और बरसाती को प्रयोग किया जाता है। इस बात का प्रयत्न कोई नहीं करता कि सर्दी आवे ही नहीं, या वर्षा ही न हो। इसी प्रकार कष्ट आवें ही नहीं ऐसा प्रयत्न करना बेकार है। अतएव कष्ट-सहन करने के लिये पूर्व-कथित चारों बयडडडडडड प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को इसी प्रकार का ज्ञान बताते हुए श्रीगीता जी में कहा है—

“इदं ज्ञान मुपाश्रित्य मम साधर्ममागताः।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथयन्ति च॥”

अर्थात्—इस ज्ञान का आश्रय करके प्रलयकाल में भी दुःख नहीं होता।

भौतिक उन्नति ही उन्नति नहीं है। वास्तविक उन्नति तो आध्यात्मिक उन्नति है। अतएव भौतिक उन्नति के लिये उतना ही सीमित प्रयत्न करना चाहिये जिससे हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधा न पड़े। शारीरिक मानसिक और सामाजिक तीनों उन्नतियाँ आत्मोन्नति के बिना अधूरी हैं। हाथी शारीरिक बल में मनुष्य से कई सो गुना अधिक बलशाली होता है, किन्तु मानसिक बल के द्वारा मनुष्य उसे वश में कर लेता है। सिंह में मानसिक बल का एक अंग ब्रह्मचर्य होता है और हाथी कामी होता है अतएव शारीरिक बल में अधिक होने पर भी सिंह से भयभीत हो जाता है। सिंह जीवन में केवल एक ब्रह्मचर्य खण्डन करता है इसी कारण उसमें हाथी की अपेक्षा मानसिक बल विशेष होता है और उसी सिंह को मनुष्य अपने बुद्धि बल के द्वारा पिंजड़े में बन्द कर लेता है।

ईंट पक जाने पर यदि पानी में डाल दी जाती है तो और भी दृढ़ हो जाती है। इसी प्रकार जो मनुष्य अपने को दुःख रूपी भट्ठी में डालकर हृदय को बलिष्ठ बना लेते हैं वे अधिक शक्तिशाली बन जाते हैं और आध्यात्मिक बल के द्वारा अपने बल और इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं। आज हम निर्बलों पर तो शासन करते हैं परन्तु अपने से अधिक बलवान से डरते हैं, किन्तु जो मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर उन्हें वश में कर लेता है वह कभी किसी से किसी अवस्था में भयभीत नहीं होता, वह संसार को जीत लेता है! जगत्गुरु भगवान शंकराचार्य ने कहा है—

“जितं जगत्केन मनोहि येन”

अर्थात्-जगत को किसने जीता है? जिसने मन को जीता है। रामराज्य में सभी सुखी और सम्पन्न थे, इसका रहस्य भी था कि :—

दण्ड जतिन कर भेद जहँ, नर्तक नृत्य समाज।

जीतहिं मुनिहिं सुनिय अस, रामचन्द्र के काज॥

भगवान श्री रामचन्द्र जी के राज्य में लोग अपने मन को असावधान रहते ही स्वयं दण्ड देते थे, अतएव उस काल में कचहरी और अदालत की आवश्यकता ही नहीं थी। आज घर-घर में कलह का मूल कारण यही है कि मन और इन्द्रियों पर अपना वश ही नहीं चलता, अथवा आज कोई इस बात का प्रयत्न ही नहीं करता कि हम अपने मन और इन्द्रियों पर शासन करें। आज भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, सास-बहू में कलह होने का यही कारण है। यदि हम मन और इन्द्रियों के दास न बनें, अपनी-अपनी मनचाही न चाहें, अपनी इच्छाओं को दबाएँ तो निश्चय ही कलह बन्द हो जाय और हर घर में राम-राज्य स्थापित हो जाय। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने भरत ने लक्ष्मण, सीता, उर्मिला आदि ने अपने मन के कौन कौन से भोग भोगे? विचार कीजिये आज यह पत्थर की मूर्ति कैसे पूजनीय बन गई? जब यह पत्थर की शिला के रूप में थी तब वहाँ कौन पूजा करने जाता था? जब उस पत्थर की शिला पर शिल्पी ने छेनी और हथौड़ा चलाया तभी तो आज वह मूर्ति के आकार में मन्दिर में प्रतिष्ठित होकर पूजी जा रही है। अतएव मन और इन्द्रियों पर शिल्पी की नई छेनी और हथौड़ा की भाँति साधन द्वारा कटाई करो तब तुम अपनी आत्मोन्नति में निरन्तर अग्रसर होते जाओगे। यदि मन और इन्द्रियों को निरंकुश मस्त हाथी की तरह छोड़ दिया तो तुम्हें संसार में सभी दुःख पहुँचाने वाले ही दिखाई पड़ेंगे। देखो सईस घोड़े की दलाई-मलाई करता है किन्तु रईस घोड़े पर सवारी करता है। तुम मन इन्द्रियों की गुलामी करके सईस मत बनो, वरन् रईस की भाँति आत्मा बनकर अपने मन इन्द्रियों पर सवारी करो। मन के प्रत्येक संकल्प को बुद्धि की तराजू पर तौलकर ही उसे कार्यरूप में परिणित करो।

दूध और पानी का सम्मिलन हो जाता है, घी और आटा में भी मेल हो जाता है परन्तु मनुष्यों में संगठन नहीं हो पाता कारण यही है कि हमारा हमारे मन पर शासन नहीं, हम पूर्णरूप से मन के वशीभूत हो गये। अर्जुन को मन मुखी बनते देखकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी ने सर्वप्रथम साँख्य योग का उपदेश किया और कर्मयोग का बाद में। आजकल के सस्ते वेदान्ती लोग साँख्य योग का उपदेश का रहस्य तो केवल आत्मा का अनुभव करना था अर्थात् तुम आत्मा हो शरीर नहीं। आत्माभिमानी बने बिना तुम अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, कारण कि अपने बुद्धि, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और शरीर क्रमशः एक दूसरे के अंतर्गत हैं। क्या हम अपने को शरीर समझकर देहाभिमानी बने रहकर अपने मन को वश में कर सकते हैं? कदापि नहीं। अतएव आत्मा बनकर अपने मन इन्द्रियों से शास्त्रोक्त कर्म कराओ, शरीर बनकर नहीं। कलेक्टर सिपाही को आज्ञा दे सकता है, सिपाही कलेक्टर को अपनी आज्ञा में नहीं चला सकता। केवल दृष्टा बने रहकर भी संसार में काम नहीं चल सकता। अतएव अपने मन और इन्द्रियों को शास्त्राज्ञा के अनुसार कर्म में प्रवृत्त होने का पुरुषार्थ करना चाहिए।

अपने मन पर शासन किए बिना दूसरों पर शासन नहीं हो सकता। आत्मोन्नति के बिना मानसिक उन्नति सम्भव नहीं, मानसिक उन्नति के बिना शारीरिक उन्नति नहीं हो सकती और शारीरिक उन्नति के अभाव में सामाजिक उन्नति होना असम्भव है। तुम्हें यदि मानसिक बल प्राप्त नहीं हो तो पौष्टिक पदार्थों को खाकर भी तुम शारीरिक बल प्राप्त नहीं कर सकते। क्रोधादि विकारों के आवेश में किया हुआ भोजन शरीर में विकार पैदा करता है किसी ग्रन्थकार का कथन है :—

सबसे पहिले अपने मन के विकारों को निकाल कर अपने विचारों को शुद्ध बनाकर शारीरिक उन्नति करो फिर सामाजिक उन्नति करो। फिर सामाजिक उन्नति अर्थात् संगठन शक्ति को प्राप्त करो। मोटर वजन में ड्राइवर से कई गुना अधिक होती है परन्तु मोटर के बिगड़ने पर ड्राइवर सुधारता है और चलाता है और यदि ड्राइवर बिगड़ जाय तो मोटर उसे नहीं सुधार सकती।

इसी प्रकार बुद्धिरूपी ड्राइवर के द्वारा मन और इन्द्रियों को सुधार कर शारीरिक उन्नति हो सकती है। हम तो अपने को शरीर ही मान बैठे हैं सुधार हो तो कैसे? शारीरिक उन्नति को ही उन्नति समझ लिया है। हम भूल गये कि हम शरीर नहीं, हमारा यह शरीर तो केवल आवरण मात्र है अर्थात् हम मकान नहीं, इस मकान के निवासी हैं।

आत्मा का बोध होने से बुद्धि बलशाली होती है और बुद्धि का विकास होने पर वह अपने निर्णय से मन और इन्द्रियों पर शासन करने में समर्थ हो सकती है। आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा ने हमें पूर्ण रूप से देहाभिमानी बना दिया। यहाँ तक पतन हो गया कि आज कालेज के विद्यार्थी अपने बनाव शृंगार में स्त्रियों से भी आगे बढ़ गये। प्राचीन काल में राजाओं तक के लड़के गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने जाते थे। वहाँ गुरुकुल सेवा, भिक्षा वृत्ति तथा अखण्ड ब्रह्मचर्यादि साधनों के द्वारा उनका देहाभिमान नष्ट हो जाता था। अधिक सुख भोग करने तथा शृंगारादि करने से काम विकार पैदा होता है। अतएव प्राकृतिक नियमानुसार शरीर को कठोर बनाने का अभ्यास करना चाहिये। पशु और पक्षी प्राकृतिक नियमों का पालन करने के कारण सदैव निरोगी बने रहते हैं। आज हम इन नियमों का उल्लंघन करने के कारण ही निर्बल बन गये और आये दिन रोगों से हमारा सामना होता रहता है। बड़े-बड़े शहरों में दस-दस पग पर आपको डॉक्टर और वैद्यों की दुकान मिलेंगी, अनेकों अस्पताल मिलेंगे किन्तु क्या पशु पक्षियों के भी इतने अस्पताल आपने कहीं देखे हैं? अतएव जो बीत गया उसकी ओर न देखकर आत्मोन्नति के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए।

देहाभिमान के कारण बुद्धि निर्बल ओर शरीर बलवान हो जाता है और बुद्धि को बलवान बनाने की कहीं शिक्षा ही नहीं दी जाती। अतएव सत्संग के द्वारा सदाचार एवं ब्रह्मचर्य की रक्षा करके बुद्धि को बलवान बनाओ और सतोमुखी बुद्धि के द्वारा परोपकार कार्यों में लग जाओ और समय निकाल कर जनता-जनार्दन की सेवा करो। परोपकार और सेवा के फलस्वरूप तुम्हें महान शक्तियाँ प्राप्त होंगी यह उपदेश नहीं वरन् मेरे निजी अनुभव हैं। भूतकाल का स्मरण न करके वर्तमान को संभालो। वर्तमान के संभल जाने से भविष्य तो मंगलमय होगा ही, यह निश्चित सिद्धान्त है। अध्यात्मिक उन्नति के द्वारा भौतिक उन्नति तो अनायास ही हो जायगी।

एक ड्राइवर सौ मोटरों को ठीक कर सकता है। किन्तु सौ मोटर एक ड्राइवर को ठीक नहीं कर सकतीं। बालू और सीमेन्ट के मिश्रण से सुदृढ़ भवन का निर्माण हो जाता है। केवल बालू से ही गृह-निर्माण असम्भव है। आध्यात्मिक उन्नति सीमेन्ट है और भौतिक उन्नति बालू है। देश और काल के अनुसार, आध्यात्मिक उन्नति का लक्ष्य सामने रखते हुए शास्त्र की आज्ञानुसार जो कार्य सामने आयें उन्हें भगवान का कार्य समझकर प्रसन्नतापूर्वक करो। सीताजी के हरण के पश्चात् मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जी ने अपने आध्यात्मिक बल पर रीछ और वानरों का सच्चा संगठन करके भौतिक उन्नति से मदान्ध रावण पर विजय प्राप्त की।

जिस समय महारथी अर्जुन किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर रण से विमुख होकर गाण्डीव को रथ में रखकर बैठ गए और भगवान से बोले ‘मैं संग्राम नहीं करूंगा। मुझे राज्य नहीं चाहिए, मैं तो भिक्षावृत्ति से ही अपना निर्वाह कर लूँगा’ तब भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी ने अर्जुन को फटकारा और नपुँसक, हिजड़ा, कायर आदि शब्दों का प्रयोग करते हुए, साँख्य योग के द्वारा उन्हें आत्म बोध कराकर कर्त्तव्य-पालन में अग्रसर किया।


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