स्थिर सुख का सरल साधन है।

December 1952

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(श्री धर्मपाल सिंह जी, बहादुराबाद)

मनुष्य स्थिर, अखण्ड, शाश्वत सुख चाहता है और यही उसके जीवन का चरम उद्देश्य होना भी चाहिए क्योंकि भोग सुख तो और योनियों में भी जो क्षणिक, अस्थिर सुख देने वाले हैं पर्याप्त मिलते हैं। सुख की खोज ओर आशा में ही मनुष्य नाना प्रकार के विषय और वस्तुओं का संग्रह उचित-अनुचित की अपेक्षा करके किया करता है। जैसे-तैसे भी रुपये का संग्रह, बढ़िया भवन, सुन्दर स्त्रियाँ, हँसते हुए सुन्दर सुकोमल बच्चे, प्यारे सम्बन्धी, नाना प्रकार की स्वाद खाद्य और मोटरकार, रेडियो आदि मनोरंजन की वस्तुएं प्राप्त करता है। परन्तु काल, स्वभाव और कर्म गाति से जब यह भौतिक वस्तुएँ अपने गुण अनित्य और क्षण भंगुर होने से नष्ट होने लगती हैं तो इसकी सारी सुख की आशाएँ दुराशा में बदल कर इसको पूर्व से भी अधिक दुःख का कारण हो जाती हैं।

अध्यात्म गुरु और अध्यात्म ग्रन्थ ही इस शाश्वत अखण्ड सुख का मार्ग बनाते हैं। उनकी चरण शरण ही इस मार्ग के गहन रहस्यों को खोलती है। जिन वस्तुओं को हम बना नहीं सकते उन, स्त्री, पुत्र, धन, सम्बन्धी, सम्पत्ति आदि को अपना मानना उन में मन को अत्यन्त आसक्त रखना यह मन का उन के प्रति ‘राग‘ ही स्थिर, अखण्ड सुख में सबसे बड़ा बाधक है। जिस मालिक ने यह सब रचना की है उस ईश्वर को उसकी वस्तुएं सौंपकर निश्चिन्त हो वर्तमान कर्त्तव्य का पालन करते हुए लाभ, हानि, जय, पराजय, जन्म, मृत्यु, आदि में हर्ष, शोक, न करते हुए समभाव में अपने प्यारे प्रभु की ओर टकटकी लगाकर उनकी लीला को देखने वाला ही “वैरागी” है जो स्थिर सुख प्राप्त करता है। ऐसे वैरागी ही अपमान, हानि, सम्बन्धियों की मृत्यु यहाँ तक अपने शरीर को नष्ट होते देख दुखी तथा भयातुर नहीं होते।

उपरोक्त पंक्तियों में दुख का कारण और अखंड सुख की प्राप्ति में रुकावट डालने वाला राग द्वेष का वर्णन किया गया है, जिसके प्रति राग होता है जब उसमें कोई बाधा उपस्थित होती है तो वही राग, द्वेष का कारण बन जाता है अतः यह राग, द्वेष जिनका स्थान मैला मन है इनको निर्मूल करने के लिए मन का इलाज करके उसे स्वस्थ शुद्ध बनाना ही राग द्वेष की बीमारी से मुक्त होना है। प्राणी के मरने पर पुनर्जन्म भी अन्तः करण का ही होता है न कि आत्मा का। क्योंकि आत्मा सुख-दुख से रहित, अजर, अमर, नित्य, सनातन और आनन्द स्वरूप है। अतः अन्तःकरण को राग द्वेष की बीमारी से मुक्त करने के लिए सदगुरु वैद्य द्वारा आध्यात्मिक साधना की औषधि लेने की अध्यात्म ग्रन्थ सम्मति देते हैं। जिस प्रकार अधिक मैला कपड़ा बार-बार साबुन लगाने से अधिक अधिक स्वच्छ और निर्मल होता जाता है। इसी प्रकार अधिक अधिक जप से मन पवित्र और स्वच्छ होता रहता है। जब वह बिलकुल शुद्ध हो जाता है तो पवित्र और साफ अन्तः करण में प्रभु की लीला का रहस्य प्रगट होने लगता है जिसको अनुभूति कहते हैं यह अनुभव राग द्वेष की बीमारी को दूर करने में बड़ी सहायता करते हैं।

तत्व ज्ञान, शुद्ध चरित्र और प्रभु परायणता इन तीन साधनों का सहारा लेकर मनुष्य आसानी के साथ दुखों से निवृत्त हो सकता है। अपना स्वरूप अपना कर्त्तव्य, संसार की वस्तुस्थिति और जीव तथा संसार के सम्बन्ध की सीमित मर्यादा की वास्तविकता को समझ लेना यही आत्म ज्ञान है। मनुष्य की विचारधारा का, दृष्टिकोण का, इच्छा और आकांक्षा का आधार दार्शनिक एवं आध्यात्मिक बन जाना ही तत्व ज्ञान की उपलब्धि है, इस स्थिति के प्राप्त होने से मनुष्य अपने भ्रम जन्य अधिकाँश दुखों से छुटकारा पा जाता है।

शुद्ध चरित्र के कारण मनुष्य की शक्तियाँ सुरक्षित रहती है और दिन-दिन बढ़ती रहती हैं। लोगों से सच्चा सहयोग और आदर मिलता है। साथ ही अपनी कार्य पद्धति पर स्वयं आत्म सन्तोष रहने से हर प्रकार की परिस्थिति में एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव होता रहता है। सच्चरित्रता एक ऐसा धन है जिसकी तुलना संसार की और किसी सम्पत्ति से नहीं हो सकती।

प्रभु परायणता जीवन के वास्तविक लक्ष की ओर अग्रसर करने वाली ठीक यात्रा है। इसी मार्ग पर चलने से उस स्थान पर पहुँचा जाना संभव है, जिस पर पहुँचने के लिए आत्मा निरन्तर तृषित रहती है। ईश्वर से बिछड़ा हुआ जीव इधर-उधर भटकता है और नाना प्रकार के त्रास सहता है पर जब वह परमात्मा की गोद में पहुँचने के लिए यात्रा आरम्भ करता है तो दिन-दिन वह आनन्द केन्द्र के निकट पहुँचता जाता है। इस मार्ग पर बढ़ाया हुआ प्रत्येक कदम पहले कदम की अपेक्षा अधिक सुख एवं शान्तिदायक सिद्ध होता है।

स्थिर सुख का सरल साधन यह है कि हम भौतिक राग-रंगों में अनावश्यक रूप से न उलझें। तत्व ज्ञान, शुद्ध चरित्र और प्रभु परायणता को अपना कर जीवन लक्ष की ओर अग्रसर हों। इस गतिविधि को जीवन का प्रधान अंग बना लेने से मनुष्य सच्चे अर्थों में सुखी हो सकता है। सन्मार्ग पर चलना ही स्थिर सुख का सरल साधन है।


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