परम शाँति का पथ

December 1952

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(श्री पं. लक्ष्मण प्रसाद जी गर्दे)

जहाँ तृष्णा है वहाँ शाँति नहीं, जहाँ शान्ति है, वहाँ तृष्णा नहीं। इस बात को जानना सिद्ध कर्म की दिव्य भाषा का पहला अक्षर सीख लेना है, क्योंकि इस बात को जानना कि तृष्णा और शान्ति एक साथ नहीं रह सकती इस बात के लिए तैयार होना है कि छोटी चीज को त्याग कर बड़ी चीज अपनायी जाय।

मनुष्य शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं, पर फिर भी तृष्णा का त्याग नहीं करते, बढ़ाते संघर्ष हैं, फिर भी प्रार्थना करते हैं स्वर्गीय विश्रान्ति की। यह अज्ञान है, मूढ़ता है, भागवत जीवन की शिक्षा के श्रीगणेश से भी अनभिज्ञ रहना है।

द्वेष और प्रेम, संघर्ष और शान्ति, एक ही हृदय में एक साथ नहीं रह सकते। जहाँ एक का प्रेम से स्वागत होता है, वहाँ से दूसरा लाँछित होकर निकाला जाता है। जो कोई दूसरों से द्वेष करेगा उससे दूसरे भी द्वेष करेंगे। जगत में जो इतना परस्पर ईर्ष्या-द्वेष फैला है इसमें उसके आश्चर्य और दुःख करने की कोई बात नहीं। उससे यह जानना चाहिए कि वह संसार में संघर्ष ही तो बढ़ा रहा है। उसे यह समझना चाहिए कि उसमें शान्ति नहीं है।

वह वीर है जो दूसरों पर विजय पाता है, पर वह परम उदार है जो अपने आप पर विजय पाता है। दूसरों पर विजय पाने वाला व्यक्ति, बारी आने पर दूसरों से हार सकता है, पर जिसने अपने आप पर विजय पायी है वह कभी हार नहीं सकता।

अपने आपको जीतना ही पूर्ण शान्ति की प्राप्ति का प्रयास-पथ है। जब तक मनुष्य बाहरी चीजों के सम्बन्ध में भयानक संघर्ष करना छोड़ अपने ऊपर की बुराइयों से युद्ध करने में प्रवृत्त होने की परम आवश्यकता को अनुभव नहीं करता तब तक शान्ति के इस रास्ते को न तो वह समझ सकता है न इस रास्ते के समीप आ ही सकता है। जिसने यह अच्छी तरह से समझ लिया है कि संसार का शत्रु भीतर है, बाहर नहीं, वह सन्तों के इस मार्ग पर ही है। वह इस बात को जानता है कि उसके अपने असंयत विचार ही लड़ाई-झगड़ो के कारण हैं, उसकी अपनी पाप वासनाएं ही उसकी और जगत की शान्ति भंग करने वाली है।

यदि किसी ने लोभ, क्रोध, द्वेष, अहंकारिता, स्वार्थपरता और लोलुपता को जीत लिया है तो उसने संसार को जीत लिया है, शान्ति के बैरियों को मार डाला है और उसे शान्ति प्राप्त हो गयी है।

शाँति युद्ध नहीं करती, पक्षपात नहीं करती, कोलाहल नहीं मचाती। शान्ति की विजय अजेय एवं मौन है।

जो बलपूर्वक जीता गया है, उसका हृदय नहीं जीता गया है वह पहले से भी बड़ा शत्रु बन सकता है, पर जो शान्ति से जीता जाता है उसका हृदय भी जीत लिया जाता है, शत्रु मित्र हो जाता है। बल और संघर्ष तृष्णा और भय बढ़ाते हैं, पर प्रेम और शान्ति हृदय को वश में कर उसे सुधारते हैं।

शुद्ध हृदय और ज्ञान सम्पन्न पुरुष अपने हृदय में शान्ति पाते हैं, वह शान्ति उनके कर्मों में उतर आती है, उस शान्ति को वे अपने जीवन में लगाते हैं। संघर्ष के बल से यह शक्ति अधिक बलवती है, जहाँ बल हार जाता है, वहाँ शान्ति काम कर जाती है। इसके पास सत्पुरुषों के रक्षक हैं। इसके अभय हस्त की छाया में अनुपकारी का भी अपकार नहीं होता। स्वार्थ के संघर्ष की धूप से यह छाया बचती है। हारे हुओं के लिए यह पनाह है, खोये हुओं के लिए यह सीमा है, विशुद्धात्माओं के लिए यह मन्दिर है।

जब शान्ति आचरित, अधिकृत और ज्ञात होती है तब पाप और ताप, दुराशा और निराशा, लोभ और मोह, काम और शोक—चंचल मन की सारी विफलता और क्लेश सब पीछे रह जाते हैं और अपने स्वार्थगत अन्धकारमय जगत में, वहाँ से वे आगे बढ़ नहीं सकते। ये काले भूत जहाँ विचरते हैं उस अन्धकार के सर्वथा परे भागवत परमानन्द के दिव्य धाम सनातन प्रकाश में जगमगाते रहते हैं और इस उच्च और पवित्र पथ के पथिक अन्त में इन्हीं धामों में पहुँचते हैं। तृष्णा में धसाने वाले दलदल, अहंभाव और दम्भ के कंटकाकीर्ण जंगल, संशय और नैराश्य के निर्जल रेगिस्तान इन सबको पार कर इस पथ का पथिक आगे ही बढ़ता जाता है, पीछे नहीं लौटता, न रास्ते में ही कहीं टिकता है, बल्कि अपने अत्युच्च लक्ष्यश्रृंग की ओर ऊपर ही चढ़ता जाता है और अन्त में यह विनम्र और विनयशील वीर, धीर तेजस्वी विजेता शान्ति की परम रमणीय अमरावती में जा पहुँचता है।


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