भीष्म जी की धर्म शिक्षा

December 1952

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(पं. तुलसीराम शर्मा वृन्दावन)

महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया। कौरव हार गये और पाण्डव जीत कर राज सिंहासन के स्वामी हो गये। युधिष्ठिर ने राज्य करना आरम्भ किया। परन्तु उनके मन में न सुख था, न शान्ति। रह-रह कर उनको इस बात का ध्यान आता था कि यह विजय उनको कितनी महंगी पड़ी है। जो राज्य सम्बन्धियों और निर्दोष मनुष्यों का रक्त बहा कर प्राप्त किया जावे, वह किस काम का? कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा :—”तुम्हारे मन में अशान्ति है। तुम भीष्म जी के पास जाओ और अपनी कठिनाई का वर्णन करो। वे तुम्हें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जायेंगे। धर्म का ज्ञान रखने वालों में भीष्म सबसे श्रेष्ठ हैं। जब वे नहीं रहेंगे तो संसार ऐसा तमोमय हो जायगा, जैसे चन्द्रमा के न रहने से रात्रि हो जाती है। भीष्म जीवन और मृत्यु के बीच लटक रहे हैं। जाओ, उनसे जो कुछ पूछना है, पूछ लो।” युधिष्ठिर कृष्ण, कृप और पाण्डवों के साथ कुरुक्षेत्र में पहुँचे। मृत्यु शय्या पर पड़े हुए भीष्म ने जो उपदेश उस समय दिये, उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं जीवन का रहस्य जैसा इसे भीष्म ने समझा था, इन उपदेशों में वर्णन किया गया है :—

“सत्य धर्म सब धर्मों से उत्तम धर्म है। ‘सत्य’ ही सनातन धर्म है। तप और योग, सत्य से ही उत्पन्न होते हैं। शेष सब धर्म, सत्य के अंतर्गत ही हैं।”

“सत्य बोलना, सब प्राणियों को एक जैसा समझना, इन्द्रियों को वश में रखना, ईर्ष्या द्वेष से बचे रहना क्षमा, शील, लज्जा, दूसरों को कष्ट न देना, दुष्कर्मों से पृथक रहना, ईश्वर भक्ति, मन की पवित्रता, साहस, विद्या-यह तेरह सत्य धर्म के लक्षण हैं। वेद सत्य का ही उपदेश करते हैं। सहस्रों अश्वमेध यज्ञों के समान सत्य का फल होता है।”

‘सत्य ब्रह्म है, सत्य तप है, सत्य से मनुष्य स्वर्ग को जाता है। झूठ अन्धकार की तरह है। अन्धकार में रहने से मनुष्य नीचे गिरता है। स्वर्ग को प्रकाश और नरक को अन्धकार कहा है।”

“ऐसे वचन बोलो जो, दूसरों को प्यारे लगें। दूसरों को बुरा भला कहना, दूसरों की निन्दा करना, बुरे वचन बोलना, यह सब त्यागने के योग्य हैं। दूसरों का अपमान करना, अहंकार और दम्भ, यह अवगुण है।”

“इस लोक में जो सुख कामनाओं को पूरा करने से मिलता है और जो सुख परलोक में मिलता है, वह उस सुख का सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं है जो कामनाओं से मुक्त होने पर मिलता है।”

“जब मनुष्य अपनी वासनाओं को अपने अन्दर खींच लेता है, जैसे कछुआ अपने सब अंग भीतर को खींच लेता है, तो आत्मा की ज्योति और महत्ता दिखाई देती है।”

“मृत्यु और अमृतत्व—दोनों मनुष्य के अपने अधीन हैं। मोह का फल मृत्यु और सत्य का फल अमृतत्व है।”

“संसार को बुढ़ापे ने हर ओर से घेरा है। मृत्यु का प्रहार उस पर हो रहा है। दिन जाता है, रात बीतती है। तुम जागते क्यों नहीं? अब भी उठो। समय व्यर्थ न जाने दो। अपने कल्याण के लिए कुछ कर लो। तुम्हारे काम अभी समाप्त नहीं होते कि मृत्यु घसीट ले जाती है।”

“स्वयं अपनी इच्छा से निर्धनता का जीवन स्वीकार करना सुख का हेतु है। यह मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। इससे मनुष्य क्लेशों से बच जाता है। इस पथ पर चलने से मनुष्य किसी को अपना शत्रु नहीं बनाता। यह मार्ग कठिन है, परन्तु भले पुरुषों के लिए सुगम है। जिस मनुष्य का जीवन पवित्र है और इसके अतिरिक्त उसकी कोई सम्पत्ति नहीं, उसके समान मुझे दूसरा दिखाई नहीं देता। मैंने तुला के एक पल्ले में ऐसी निर्धनता को रक्खा और दूसरे पल्ले में राज्य को। अकिंचनता का पल्ला भारी निकला। धनवान पुरुष तो सदा भयभीत रहता है, जैसे मृत्यु ने उसे अपने जबड़े में पकड़ रखा है।”

“त्याग के बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। त्याग के बिना परम आदर्श की सिद्धि नहीं होती। त्याग के बिना मनुष्य भय से मुक्त नहीं हो सकता। त्याग की सहायता से मनुष्य को हर प्रकार का सुख प्राप्त हो जाता है।”

“वह पुरुष सुखी है, जो मन को साम्यावस्था में रखता है, जो व्यर्थ चिन्ता नहीं करता। जो सत्य बोलता है। जो साँसारिक पदार्थों के मोह में फँसता नहीं, जिसे किसी काम के करने की विशेष चेष्टा नहीं होती।”

“जो मनुष्य व्यर्थ अपने आपको सन्तप्त करता है, वह अपने रूप रंग, अपनी सम्पत्ति, अपने जीवन और अपने धर्म को भी नष्ट कर देता है। जो पुरुष शोक से बचा रहता है, उसे सुख और आरोग्यता, दोनों प्राप्त हो जाते हैं।”

“सुख दो प्रकार के मनुष्यों को मिलता है। उनको जो सबसे अधिक मूर्ख हैं, दूसरे उनको जिन्होंने बुद्धि के प्रकाश में तत्व को देख लिया है। जो लोग बीच में लटक रहे हैं, वे दुखी रहते हैं।”

“श्रेष्ठ और सज्जन पुरुष का चिह्न यह है कि वह दूसरों को धनवान देख कर जलता नहीं। वह विद्वानों का सत्कार करता है और धर्म के सम्बन्ध में प्रत्येक स्थान से उपदेश सुनता है।”

“जो पुरुष अपने भविष्य पर अधिकार रखता है (अपना पथ आप निश्चित करता है, दूसरों की कठपुतली नहीं बनता) जो समयानुकूल तुरन्त विचार कर सकता है और उस पर आचरण करता है, वह पुरुष सुख को प्राप्त करता है। आलस्य मनुष्य का नाश कर देता है।”

“भोजन अकेले न खाये। धन कमाने का विचार करे तो किसी को साथ मिला ले। यात्रा भी अकेला न करे। जहाँ सब सोये हुए हों, वहाँ अकेला जागरण न करे।”

“जो पुरुष अपने आपको वश में करना चाहता है उसे लोभ और मोह से मुक्त होना चाहिए।”

“दम के समान कोई धर्म नहीं सुना गया है। दम क्या है? क्षमा, धृति, वैर-त्याग, समता, सत्य, सरलता, इन्द्रिय संयम, कर्म करने में उद्यत रहना, कोमल स्वभाव, लज्जा, बलवान चरित्र, प्रसन्नचित्त रहना, सन्तोष, मीठे वचन बोलना, किसी को दुख न देना, ईर्ष्या न करना, यह सब दम में सम्मिलित हैं।”

“कामनाओं को त्याग देना; उन्हें पूरा करने से श्रेष्ठ है। आज तक किस मनुष्य ने अपनी सब कामनाओं को पूरा किया है? इन कामनाओं से बाहर जाओ। पदार्थ के मोह को छोड़ दो। शान्त चित्त हो जाओ।”

“लोग अनेक प्रकार के मोह में जकड़े हुए हैं। उनकी दशा ऐसी है, जैसी रेत के पुल की जो नदी के वेग के साथ नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार तिल कोल्हू में पेरे जाते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य पेरे जाते हैं जो संसार के मोह में फँस जाता है और निकल नहीं सकता। वैसी ही दशा उस मनुष्य की है जो मोह में फँसा हुआ है।”

“गृहस्थाश्रम से बढ़कर कोई धर्म नहीं। परन्तु जब गृहस्थ मोह में फँस जाता है, तो नाना प्रकार के दुख झेलता है और आवागमन के चक्कर में पड़ जाता है। मन और इन्द्रियों को वश में रखना गृहस्थ का तप है। मृत्यु के पीछे माता, पिता, भाई, बंधु साथ नहीं जाते, न कुछ सहायता कर सकते हैं। केवल धर्म ही साथ जाता है और सहायता देता है। अनुचित मोह को छोड़, धर्मानुसार जीवन व्यतीत करने से ही इस जीवन में सुख मिलता है और इससे पीछे कल्याण होता है। जो पुरुष ऐसा नहीं करता उसे न तो इस लोक में सुख मिलता है और न इसके पीछे मिलेगा।”


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