गायत्री के तीसरे चरण (भर्गो देवस्य धीमहि) में दिव्य गुणों को धारण करने के लिए कहा गया है। जैसे बहुमूल्य आभूषण, वाहन, साधन, आदि के द्वारा साधारण लोग अपने को गौरवान्वित समझते हैं, वैसे ही गायत्री उपासकों को अपनी शोभा महिमा, बड़ाई, एवं विशेषता सद्गुणों से सुसज्जित होने में समझनी चाहिए।
धन से जीवनोपयोगी वस्तुएँ खरीदी जाती हैं। धन की उपयोगिता इतनी ही है कि उससे हमारी अन्न, वस्त्र आदि की आवश्यकताएं एक सीमा तक पूरी होती हैं और वे एक नियत मात्रा में धन उपार्जन करने पर आसानी से पूरी हो सकती हैं। इन दिनों सरकार की अयोग्यता से मँहगाई का कुचक्र चल पड़ा है जिससे साधारण जनता को दुर्भिक्ष जैसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। यह कुचक्र सामयिक है, कुछ दिन पूर्व ऐसे दुर्दिन नहीं थे और आशा है कि आगे भी यह नहीं रहेंगे। साधारण परिस्थितियों के समय में एक स्वस्थ मनुष्य अपने परिवार की उचित आवश्यकताओं को पूरा करने लायक आसानी से कमा सकता है। फिर भी देखा जाता है कि लोग अधिक कमाने और जोड़ने की धुन में बेतरह लगे हुए हैं। जिनके पास अपनी आवश्यकताओं लायक पहले से ही काफी मौजूद है वे भी सब काम छोड़ कर दिन रात अधिकाधिक धन कमाने में प्रवृत्त हैं, उनके समय का सारा भाग इसी उधेड़ बुन में लगा रहता है।
धन की शक्ति बड़ी सीमित है उससे शरीर का निर्वाह करने वाले पदार्थ खरीदे जा सकते हैं जिसकी वास्तविकता बहुत ही सीमित है। जमा किया हुआ अत्यधिक धन किसी के कुछ काम नहीं आता, सब जहाँ का तहाँ पड़ा रह जाता है। जिन उत्तराधिकारियों के लिए उसे जोड़ा जाता है वे उस मुफ्त के माल से बेरहम व्यवहार करते हैं और उसे बारूद की तरह फूँक कर तमाशा देखते हैं। मुफ्त की मिली हुई पैतृक सम्पत्ति उत्तराधिकारियों को निकम्मा, आलसी, व्यसनी, फिजूल खर्च एवं दुर्गुणी बना देती है इसलिए संतान के लाभ के लिए जोड़ा हुआ धन वस्तुतः उनकी हानि ही करता है। कितने ही लड़के उस मुफ्त के माल पर बेतरह लड़ मरते हैं, मुकदमे बाजी में वह सारी बारूद बात की बात में फूंक जाती है। धनी व्यक्ति दूसरों की आंखों से सुखी दीखते हैं पर अपने आप में वे काफी चिन्तित और परेशान रहते हैं। धन कमाने की कष्ट साध्य प्रक्रिया, हानि से बचने की चिन्ता, सुरक्षा, आदि व्यवस्थाओं में इतनी जान मारी करनी पड़ती है कि वे लोग वस्तुतः गरीब एवं मजदूरों की अपेक्षा आन्तरिक दृष्टि से अधिक उद्विग्न रहते हैं। यह उद्विग्नता उनके शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन को खो जाती है।
इन कठिनाइयों को जानते हुए भी लोग ‘जैसे बने वैसे’ धन कमाने के लिए इतनी तत्परता के साथ जुते हुए है इसका कारण यह है कि “धन की प्रतिष्ठा” होने लगी है। जिसके पास धन है उसे बड़ा आदमी, महापुरुष, आदरणीय, समझा जाने लगा है। पूर्व काल में जिसके पास ज्ञान, विद्या, चरित्र, त्याग आदि की दैवी संपदाएं होती थी, उनका सबसे अधिक आदर होता था। मध्य युग में पराक्रम पुरुषार्थ, साहस, वीरता, शक्ति की प्रतिष्ठा रही। जो जितना शक्ति सम्पन्न होता था उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा होती थी। आज धन की प्रतिष्ठा है। चाहे कोई मनुष्य मूर्ख, दुश्चरित्र, दुर्बल, कायर आदि कितनी अयोग्यताओं से घिरा हुआ हो पर यदि उसके पास पैसे हैं तो लोग उसके प्रति आदर प्रकट करेंगे, उसे मान देंगे, उसे अगुआ, नेता या पंच मानेंगे, उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाले, प्रशंसा के पुल बाँधने वाले, अनेक लोग तैयार हो जांयगे।
आत्मा वस्तुतः महान है। अतएव वह अपने को महान ही प्रकट करना चाहता है। हर मनुष्य की आन्तरिक अभिलाषा रहती है कि वह प्रतिष्ठित आदरणीय एवं महान समझा जाये। वह देखता है कि आज वे ही लोग प्रतिष्ठित हैं जिनके पास धन है, तो उसका लक्ष धनी बनना हो जाता है, आज अधिकाँश मनुष्यों का जीवन लक्ष्य यही बना हुआ हैं। चूँकि न्यायपूर्वक, परिश्रम के साथ, सन्मार्ग से इतना ही कमाया जा सकता है जो काम चलने लायक हो। अधिक कमाने के लिए वे मार्ग अपनाने पड़ते हैं जो पाप पूर्ण हैं। बड़े आदमी कानूनी लूटमार और शोषण करते हैं, छोटे आदमी गैर कानूनी छाप मारते है। जिसको जितना मौका मिलता है अपनी घात चलाता है। आज समाज में व्यापक रूप से जो अनैतिकता फैली हुई हैं उसका कारण यह ‘धनी बनकर बड़े आदमी होने’ की हविश ही काम कर रही है।
हम देखते हैं एक आदमी दूसरे को खाये जा रहा है। एक दूसरे की आँतें निकाल लेने कि लिए घात लगाये बैठा है। जिसका जैसे मतलब सिद्ध होता है वह वैसा प्रपंच बना लेता हैं। आपसी प्रेम और सद्भाव विदा हो रहे हैं और उसके स्थान पर स्वार्थ का पिशाच नंगा होकर नाच रहा है। बाप अपने बेटी बेटों को बेच रहा है। भाई का भाई जानी दुश्मन बना हुआ है। बुड्ढ़े माँ बाप को रोटी खिलाना बेटों के लिए असह्य बोझ बना हुआ है। निर्धन पति, पत्नी को आँखों देखा नहीं सुहाता। बेटे की बहू यदि दहेज साथ नहीं लाई है तो उसका परित्याग कर दिया जाता है या उसे मारकर दूसरे विवाह की योजना सोची जाती हैं। नौकर चोर डाकुओं से मिलकर मालिक के जान माल पर दाँत लगाये बैठा है। मित्र बनकर कलेजा निकाल ले जाने वाले नर पिशाचों की कमी नहीं। निकट सम्बन्धियों की पारस्परिक मनोदशा जब यह है तब दूरवर्ती लोग धन के लिए दूसरों के साथ जो भी नीति बरतें वह कम है। रिश्वतखोरी, चोरबाजारी, बेईमानी, मिलावट, धोखाधड़ी, ठगी आज व्यापक रूप से फैली हुई हैं। चोरी, डकैती करने का साहस तो किन्हीं किन्हीं को ही होता है पर सभ्य तरीके से सभी लोग धन उपार्जन के लिए ‘सब कुछ’ कर रहे हैं। सतीत्व, धर्म, ईमान, मजहब, बुद्धि, विद्या, न्याय, कर्त्तव्य, वफादारी यहाँ तक कि जान तक पैसे के लिए बिक रही है।
पूर्व काल में जब विद्या, तप और चरित्र की प्रतिष्ठा थी गुणों के आधार में मनुष्य का बड़प्पन आँका जाता था तो लोग उसके लिए बड़ी बड़ी कुर्बानियाँ करते थे। प्रह्लाद, विश्वामित्र, हरिश्चन्द्र, गौतमबुद्ध, अम्बपाली, मीरा, गोपीचन्द जैसे साधन सम्पन्न लोग अपने वैभव को लात मारकर तपश्चर्या का मार्ग अपनाते थे। जब विद्या की अपेक्षा शक्ति में बड़प्पन माना गया तो अपनी शूरता का परिचय देने के लिए राजपूतनियों तक ने वे कार्य कर दिखाये जिसे सुनकर सुनने वालों के कलेजे काँप उठते हैं। जान गवाँ देना उनके लिए एक खेल हो गया था प्रतिष्ठा के लिए मनुष्य बड़े से बड़ा खतरा उठाने का तत्पर हो सकता है। आज भी जब कि धन की प्रतिष्ठा बढ़ी है तो लोग धन के लिए बड़े से बड़ा खतरा मोल लेने को तैयार है पर कठिनाई तो यह है कि लोग जैसे विद्या, तप, चरित्र, पुरुषार्थ आदि अपने आप में स्वयं उत्पन्न कर सकता है, वैसे सोना चाँदी अपने आप में से अधिक मात्रा में पैदा नहीं कर सकता, उसके लिए तो सुलभ मार्ग ‘अपहरण’ ही दिखाई पड़ता है जिसके लिए लोग राज दंड का, प्रत्याक्रमण का, निन्दा का, खतरा खुशी खुशी उठा लेते हैं और जैसे बने वैसे धनी बनने में जुट पड़ते हैं। इस मनोवृत्ति ने आज घर घर में कलह, विरोध, क्लेश, एवं दुर्भाग्य पैदा कर दिये हैं जिनसे अनेक प्रकार के दुखदायी अपराध हो रहे हैं। इस गतिविधि से सर्वत्र असन्तोष की अग्नि जल रही है और व्यापक रूप से लोगों के मन, निराश, शुष्क, खिन्न, नीरस एवं दुखित हो रहे हैं।
धन की उपयोगिता है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। पर उसको मनुष्य की महानता का चिन्ह समझना भारी भूल है। इस कुबुद्धि से ग्रसित होकर आज सारी मनुष्य जाति दुख पा रही है। भारतीय धर्म शास्त्रों में परिग्रह को सदा से हेय माना जाता रहा है। विद्या और बल के पश्चात धन को तीसरे दर्जे की घटिया शक्ति माना है। उस तीसरे दर्जे की चीज को जब पहले दर्जे का सम्मान दिया गया तो उसका दुष्परिणाम होना ही चाहिए।
गायत्री रूपी सद्बुद्धि द्वारा हम इस कुबुद्धि का परिमार्जन कर सकते हैं। तीसरे पद (भर्गो देवस्य धीमहि) की शिक्षा हमारे लिए यह है कि हम दिव्य शक्तियों को धारण करें, दिव्य गुणों को बढ़ावें, दैवी सम्पत्तियों का संचय करें। हम धन के आधार पर नहीं वरन् सद्विचारों और सत्कार्यों के आधार पर किसी का सम्मान करें। हम अपना बड़प्पन अपने सद्गुणों से तोलें ओर दूसरे का बड़ा तभी माने जब उसमें उच्च आदर्श श्रेष्ठ चरित्र और लोक सेवा के तत्व समुचित मात्रा में देखें। हमें धन पतियों का मनुहार करने की कोई आवश्यकता नहीं। हम तो उन्हें अपना नेता, पथ प्रदर्शक एवं आदर्श मानें जो गुणों की दृष्टि से, दैवी सम्पदाओं की दृष्टि से सुसम्पन्न हो। जब ये मान्यता बढ़ेगी और यह समझा जाने लगेगा कि धन की उपयोगिता शरीर निर्वाह मात्र के लिए एक सीमित मर्यादा में ही है और उसका मनुष्य की प्रतिष्ठा से कोई सम्बन्ध नहीं है तो निश्चय है कि आज जो धन के पीछे पागल दौड़ लग रही है वह बन्द हो जायगी और लोगों का ध्यान उन विचार एवं कार्यों की और मुड़ेगा जो वास्तव में प्रतिष्ठा के योग्य हैं।
धन पदार्थ है, इसलिए साधन है। जितने भी पदार्थ संसार में हैं वे सब साधन हैं। पदार्थ कभी साध्य नहीं हो सकते। धन के द्वारा शारीरिक आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं शरीर को सजाया जा सकता है पर जीव की आन्तरिक उन्नति या तृप्ति नहीं हो सकती। इसलिए धन कमाने की भाँति ही सद्ज्ञान, सद्गुण, एवं सद्विनोद को प्राप्त करने के लिए भी समय लगाया जाना चाहिए। जब धन ही लक्ष बन जाता है तो अन्य दिशाओं में मन नहीं लगता, समय का अधिकाँश भाग उसी उधेड़ बुन में लगाने के पश्चात् अन्य प्रकार की उन्नतियों के लिए न इच्छा रहती है न शक्ति न सुविधा। इसलिए वह आवश्यक है कि धन को उतना ही महत्त्व दिया जाये जितना कि वस्तुतः उसे मिलना चाहिए। कोई व्यक्ति अध्ययन का श्रम न करना चाहे तो करोड़ों रुपया खर्च कर देने पर भी वह विद्वान नहीं बन सकता। कोई व्यक्ति बिना अभ्यास किये प्रचुर धन व्यय करने पर भी संगीतज्ञ नहीं बन सकता। किसी का सच्चा प्रेम सहस्रों रुपयों में भी नहीं खरीदा जा सकता है। रुपयों का पहाड़ खर्च करने के बदले में भी स्वास्थ्य नहीं मिल सकता। इन सब बातों के लिये अपना समय और मनोयोग लगाना पड़ता है। मनोयोग और श्रम लगाने के लिए कोई मनुष्य तभी तैयार होगा जब धन की तुलना में उसका महत्व भी बहुत कम न आँका जाये। आज लोग धन को इतना महत्त्व देते हैं कि और कुछ कमाने की उन्हें आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती।
स्वाध्याय के लिए लोगों को फुरसत नहीं, व्यायाम के लिए अवकाश नहीं, भजन के लिए समय नहीं मिलता, लोक सेवा के लिए छुटकारा नहीं, चित्त को प्रफुल्लित करने वाले संगीत, देशाटन, तैरना, सत्संग आदि के लिए टाइम नहीं। कारण एक ही है कि जिस कार्य को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मान लिया गया है उसकी तुलना में ये सब बातें इतनी तुच्छ इतनी गौण समझी गई हैं कि उनकी ओर ध्यान करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। फुरसत उसी काम के लिए नहीं मिलती जो अनावश्यक और महत्वहीन समझा जाता है। जिस काम को हम आवश्यक समझते हैं उसे अन्य कामों की उपेक्षा करके भी सबसे पहले करने हैं। धन का आकर्षण जब अति प्रबल होता है तो जीवन को सुखी और समुन्नत बनाने वाले विचार गुण और कार्य करने के लिए जरा भी अवकाश नहीं मिल सकता। यदि जीवन की सर्वांगीण उन्नति करनी है तो यह तभी सम्भव हो सकेगी जब कि धन का आकर्षण कम किया जाय, उसे साध्य नहीं, साधन मात्र माना जाय। विद्या प्राप्त करना, स्वास्थ्य को सँभालना, अपनी विविध योग्यताएं और शक्तियाँ विकसित करना, शान्तिदायक विनोदों द्वारा आन्तरिक उल्लास को बढ़ाना, अपने स्वभाव का निर्माण करना, सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करना, परमार्थ कार्यों में समय देना, आत्म चिन्तन करना भी हमारे लिए धन कमाने से कम महत्वपूर्ण न होना चाहिए। इन कार्यों के लिए भी उतना ही समय और मनोयोग लगाना चाहिए जितना कि धन के लिए लगता है। पर यह सम्भव तभी है जब कि धन की अत्यधिक बढ़ी प्रतिष्ठा को घटा कर उतना ही रखा जाये जितना की वास्तव में है।
गायत्री के तृतीय चरण का मानव जाति के लिये यह संदेश है कि वस्तुओं को उतना ही महत्व दिया जाये जितनी कि उनकी उपयोगिता है। प्रधान लक्ष गुणों और विशेषताओं की ओर होना चाहिए। विविध वस्तुओं के स्वामी बनने की कुबुद्धि छोड़ कर, विविध सद्गुणों के अधिकारी बनने की योजना होनी चाहिए। धन की नहीं, गुणों की पूजा चाहिये। जब इस प्रकार की मनोवृत्ति बनेगी तो वस्तुओं के संचय के लिए लोग पागल दौड़ लगाना और एक दूसरे को नोंच खाना छोड़ देंगे एवं सद्गुणों के द्वारा एक दूसरे की सेवा सहायता करते हुए, एक दूसरे के प्रति प्रेम, सौजन्यता, उदारता एवं आत्मीयता का व्यवहार करते हुए शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करेंगे।
गायत्री का तृतीय चरण हमारी आर्थिक कठिनाइयों को सुलझा देता है क्योंकि साधक की समझ में यह बात भली प्रकार आ जाती है कि धन केवल साँसारिक सुविधाएं दे सकता है, मनुष्य की आन्तरिक एवं वास्तविक सुख शान्ति से उसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। ऐसा निश्चय हो जाने के पश्चात वह धन को अनावश्यक महत्व देना छोड़ कर गुणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। तब उसे दिन रात धन की हाय नहीं रहती। साधारण प्रयत्न से काम चलाऊ उपार्जन करके मितव्ययता के साथ अपना गुजारा करता है और प्रसन्न रहता है। धन को जोड़ने की या अनावश्यक मात्रा में बढ़ाते चलने की हविस में पड़कर मनुष्य अपने जीवन की अन्य दिशाओं का विकास करना भूल जाता है। सर्वतोमुखी उन्नति और प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि किसी एक ही बात पर मस्तिष्क का सारा ध्यान एवं समय का सारा भाग न लगा दिया जाये। स्वास्थ्य, ज्ञान, वृद्धि, मनोरंजन, परमार्थ आदि के लिए भी धन की भाँति ही इच्छा, बुद्धि, श्रम और समय को लगाया जाना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब सद्बुद्धि की कृपा से हम सर्वांगीण उन्नति का महत्व और धन शक्ति की सीमित मर्यादा को भली प्रकार समझ कर सद्गुण एकत्रित करने की ओर विशेष ध्यान दें।