उषा-गान

October 1951

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(श्री ‘अरविन्द’ बी. ए.)

नभ, अलस-उदय-गिरि के उपर

हट रहा श्याम-तम का अंचल!

खुल रही जनों की नींद-गहन

हो गया भोर उठ, चल रे, चल!

डोली उपवन में मन्द-पवन

ले नूतन-मधु, नूतन परिमल!

कुसुमों के अधरों पर बिखरा

प्राची का कंचन-हास सजल!

वह बन्द-क्षितिज का द्वार खोल

फूटे भव में आलोक-नवल!

तुम के अवगुँठन में हँसती

उषा गाती आयी मंगल!

अय परदेशी! खो गयी रात

उठ, बाँध न ले पथ का संबल!

तू अब तक सोता है अचेत

घर दूर-देश, उठ, चल रे, चल !


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