(श्री ‘अरविन्द’ बी. ए.)
नभ, अलस-उदय-गिरि के उपर
हट रहा श्याम-तम का अंचल!
खुल रही जनों की नींद-गहन
हो गया भोर उठ, चल रे, चल!
डोली उपवन में मन्द-पवन
ले नूतन-मधु, नूतन परिमल!
कुसुमों के अधरों पर बिखरा
प्राची का कंचन-हास सजल!
वह बन्द-क्षितिज का द्वार खोल
फूटे भव में आलोक-नवल!
तुम के अवगुँठन में हँसती
उषा गाती आयी मंगल!
अय परदेशी! खो गयी रात
उठ, बाँध न ले पथ का संबल!
तू अब तक सोता है अचेत
घर दूर-देश, उठ, चल रे, चल !