होतव्यता की प्रबलता

October 1951

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(श्री रामदयाल गुप्त, नौगढ़)

एक समय महामुनि वेदव्यास जी स्वेच्छा से परीक्षित पुत्र राजा जन्मेजय की सभा में पधारे, राजा ने महर्षि का बड़ा सत्कार्य किया और उनसे धर्मोपदेश प्राप्त करने की उत्कंठा प्रकट की। व्यास जी ने राजा को शास्त्र सुनाये। उसी प्रवचन में प्रसंग वशात् ऐसा आया कि “प्रारब्ध की अमिट भाग्य रेखाओं को कोई सामर्थ्यवान् भी मिटा नहीं सकता।”

इस प्रवचन को सुनकर राजा ने आश्चर्यान्वित होकर पूछा-”भगवन् ! क्या भाग्य को कोई भी टाल नहीं सकता ? यदि पहले से ही भविष्य का ज्ञान हो जाये तो वह अवश्य टल सकता है “ महर्षि ने कहा राजन् ! यदि पहले से पता चल जाए तो भी होतव्यता नहीं टलती। मनुष्य विवश होकर भावी के चंगुल में फँस जाता है।” राजा को सन्तोष न हुआ। उसे महर्षि की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। व्यास जी उसके अन्दर की बात जान गये। उनने कहा-राजन् ! तुम अनुभव करके भवी की प्रबलता को जानना चाहे तो तुम्हारे भयंकर भविष्य को बता सकता हूँ। इतना ही नहीं, उस होनहार से बचने का उपाय भी बता सकता हूँ। पर उससे कुछ न बनेगा, तुम्हारा एक भी प्रयत्न सफल न होगा और भवतव्यता होकर रहेगी।

जन्मेजय ने अत्यन्त नम्रता और उत्सुकता से कहा - “भगवन् मेरा भयंकर भविष्य और उससे बचने के उपाय बता दीजिए। मैं अपने पुरुषार्थ और चातुर्य से उसे टाल दूँगा।”

महर्षि हँसने लगे, और कहने लगे, तू बुद्धिमान होते हुए भी बालकों की सी बात करता है। प्रारब्ध को टालना तेरे बस की बात नहीं है। पर मैं तेरा भविष्य तुझे बताता हूँ जिससे तू होतव्यता की प्रबलता जान सके। अब तू ध्यानपूर्वक सुन।

“तेरे अठारह प्रकार की कोढ़ निकलने वाले हैं। अगर तू उसे टालना चाहता है तो सुन मैं तुझे उपाय भी बतला देता हूँ। पहले तो यह बात है कि तू अश्वमेध यज्ञ के घोड़े कदापि मत खरीदना। यह तुझसे न हो सकेगा और भावीवश यज्ञाश्व मोल ले लेवेगा। ऐसा हो जाने पर तू दक्षिण दिशा में अश्व पर सवार होकर मत जाना। परन्तु यह भी सम्भव नहीं है और तुझे जाना ही पड़ेगा। वहाँ तुझे एक सुन्दर स्त्री मिलेगी और तुझको हर तरह ललचावेगी परन्तु तू उसको भी टाल न सकेगा और साथ में उस स्त्री को लाकर पटरानी बनी लेगा। इतने पर भी सन्तोष हो जाए तो ठीक है परन्तु भावी तुझे और भी आगे खीचेंगी। जिससे तू यज्ञ करने को तैयार हो जायेगा और सो भी अश्वमेध यज्ञ। तू अश्वमेध यज्ञ करके अपने भावी का आवाहन स्वयं करेगा।

यज्ञ में वृत ऋत्विक् जो अठारह ब्राह्मण होंगे ये बजाय वृद्ध के जवान होंगे। इन ब्राह्मणों से अगर कोई अपराध हो जाये तो क्रोध मत करना, परन्तु तू अवश्य ही क्रोध करेगा। क्रोध होने पर उनको देहान्त दण्ड मत देना। परन्तु भविष्य टलने वाला नहीं। तू इस कारण से उन अठारहों ब्राह्मण का शिरच्छेदन करेगा और इस ब्रह्म हत्या के कारण तत्काल तुझको अठारह प्रकार का कोढ़ फूट निकलेगा। अब तुझे इसके निवारण का उपाय बिताता हूँ। जो कि तेरा भविष्य तुझसे करायेगा। इस कोढ़ के निवारणार्थ जिसकी वाणी और हस्त दग्ध न हुए हों (दान आदि प्रतिग्रह लेने से हाथ और असत्य अयोग्यादि भाषण करने से वाणी दग्ध अर्थात् भ्रष्ट होती है। ऐसे व्यक्ति से पराक्रम तथा सत्व नहीं रहता) ऐसे ब्राह्मण से तू महाभारत के अष्टादश पर्व का श्रवण करना परन्तु उसमें किसी बात की शंका मत करना तो तेरा सब कोढ़ मिट जायेगा, परन्तु तुझे उसमें शंका अवश्य होगी और इसके फलस्वरूप अठारह प्रकार के कोढ़ों में से एक कोढ़ तेरे शरीर में जैसे का तैसा रह जायेगा। यह मैंने तेरा सब भावी कह सुनाया है। तुझसे हो सके उतने सब उपाय करके इस भविष्य को टालना। इतना कहकर वेदव्यास जी वहीं अन्तर्ध्यान हो गये।

मुनि के चले जाने पर राजा जनमेजय ने नगर में डौंडी पिटवा दी कि ‘कोई गृहस्थ यज्ञ के घोड़े को न खरीदे तथा कोई भी यज्ञाश्व इस नगर में न लावे। थोड़े दिन पीछे इस बात की चर्चा नगर भर में होने लगी कि भैया हो न हो, अब तो सचमुच कलियुग आ गया। राजा अधर्मी हो गये, कर्म पर से मनुष्य की आस्था उठने लगी। राजा के यहाँ क्या टोटा आ पड़ा जो यज्ञाश्व न ले सके। स्वयं यज्ञ न करे तो न सही परन्तु दूसरा कोई छोटा मोटा यज्ञ करे तो उसको भी बन्द कर दिया।’ इस भाँति जगह-2 लोग निन्दा करने लगे। राजा के प्रधानों तथा कार्यभारियों को भी बुरा भला कह कर प्रजा उनको भी त्रास देने लगी। राजा को प्रधानों ने सूचना दी कि आपकी इस आज्ञा से बड़ी निन्दा हो रही है। राजा ने निन्दा का ख्याल कर अपनी पहली आज्ञा को बदल दिया और यज्ञाश्व लाने तथा बेचने का हुक्म दे दिया। अब यज्ञाश्व और नाना प्रकार के अश्व आने लगे। परन्तु यज्ञाश्व खरीदना आसान काम न था जो यज्ञ कर सके और समस्त दिशाओं को जीत लेने वाला राजा ही खरीद सकता था। यज्ञाश्व घोड़े आते और चले जाते। नगर में आया हुआ अश्व पीछे लौट जाए तो राजा की अपकीर्ति होती और राजा निसत्व समझा जाता इस कारण विवश होकर कीर्ति रक्षा के लिये राजा जनमेजय को एक यज्ञाश्व खरीदना पड़ा। परन्तु उस पर सवारी न करने का निश्चय किया।

कुद दिनों पश्चात् राजा ने विचार किया कि सवारी करने में क्या दोष है? किधर जाना किधर न जाना सो तो अपने हाथ में है। ऐसा सोच कर राजा ने यज्ञाश्व पर सवार होकर उत्तर दिशा को गमन किया, परन्तु भावी प्रबल है, घोड़ा दौड़ते-2 दक्षिण दिशा को जाने लगा। जाते-2 रास्ते में एक स्थल पर एक अत्यन्त रुपवती नवयौवना सुन्दर स्त्री दृष्टिगोचर हुई। उस पर मोहित हो जाने के कारण राजा ने ही आगे बढ़कर पूछा कि ‘र्स्वग की हे मनमोहनी तू अकस्मात इस स्थान पर कहाँ से आई ?” उसने उत्तर दिया कि “र्स्वग लोक में से” पुनः राजा ने पूछा “तेरी क्या इच्छा है ? क्या तू मेरे साथ चलेगी ? मैं पृथ्वी पति राजा हूँ।” सुन्दरी ने कहा कि “मेरे साथ प्रतिज्ञा करने से मैं आ सकती हूँ।” राजा के पुनः पूछने पर उसने कहा कि “मुझे पटरानी बनाने की प्रतिज्ञा पर मैं चल सकती हूँ।” राजा ने स्वीकार किया और मन में विचार किया कि पटरानी बनावेगें किन्तु यज्ञ नहीं करेगें। तदन्तर राजा ने उसे भवन में लाकर विवाह करके पटरानी के पद पर स्थापित किया।

राजा के यज्ञ न करने का निश्चय कर बैठने पर उसकी अपकीर्ति होने लगी। और “अब तो राजा भी समय के अनुकूल होने लगे। जब यज्ञ-यागदिक कर्म बन्द हो गये तब वर्षा कहाँ से होवे? प्रजा पीड़ित होने लगी और अश्व खरीदा हुआ है, दिग्विजय भी किया हुआ है इतने पर भी राजा यज्ञ नहीं करता इसका क्या कारण है? इस प्रकार अपकीर्ति सुनकर राजा ने अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया। मुनि के कथनानुसार वृद्ध ऋत्विजों की बहुत सी खोज कराई गई परन्तु एक भी वृद्ध ब्राह्मण नहीं मिला, प्रत्युत सब ब्राह्मण जवान और मस्करें मिले यज्ञ होने लगा। ब्राह्मण स्वाहा स्वाहा करते हुये हवनीय पदार्थ की आहुति देने लगे। कई दिनों तक गाजे बाजे के साथ यज्ञ होता रहा।

अश्वमेध में घोड़े के सभी अंगों का न्यास होता है। इस कृत्य को यजमान की धर्मपत्नी करती है। राजा जन्मेजय की रानी अत्यन्त सुन्दरी थी, जब रानी ने क्रमशः सब अंगों का न्यास करते हुए घोड़े के गुप्ताँग को न्यास किया तो ये यज्ञ कराने वाले तरुण ब्राह्मण हँस पड़े। उन्हें हँसते देखकर उपस्थित जन समुदाय भी हँस पड़ा। राजा के क्रोध की सीमा न रही। उसने दाँत पीसते हुए सामने रखे हुए यज्ञ पात्र उन ब्राह्मणों में मारे। होनी की प्रबलता देखिए, उन हलके से पात्रों के आघातों से अठारहों ब्राह्मणों के सिर धड़ से कटकर भूमि पर गिर पड़े। चारों ओर हाहाकार छा गया। राजा को ब्रह्म हत्या का पाप लगा और वह अठारह प्रकार के कोढ़ों से कोढ़ी हो गया।

राजा कोढ़ से दुखी था। सब ने उसे छूना तक बन्द कर दिया। उसकी बड़ी दुर्गति होने लगी। जन्मेजय को महर्षि वेदव्यास के वचन याद आये कि उन्होंने कोढ़ के निवारण के लिए महाभारत सुनने का उपाय बताया था। राजा की आज्ञानुसार मंत्रियों ने ऐसा ब्राह्मण खोजा जिसकी वाणी असत्य और प्रतिग्रह से दग्ध न हुई हो। ऐसे महातेजस्वी मुनि वैशम्पायन से महाभारत सुनाने की प्रार्थना की गई। मुनि ने कहा-राजन् इस महाग्रथ्ं में कुछ विचित्र बातें हैं उनके रहस्य सब को विदित नहीं, तो भी उसमें असत्य कोई बात नहीं हैं। तू मुझसे रहस्य तो पूछ लेना पर अविश्वास मत करना अन्यथा उसके सुनने का पुण्य नष्ट हो जाये। राजा ने उनकी बात मान ली और कथा सुनने लगा।

ज्यों ज्यों राजा पर्वों को सुनता गया त्यों त्यों उसका एक एक प्रकार का कोढ़ नष्ट होता चला गया। इस भाँति सत्रह कोढ़ मिट गये पर 18 वें पर्व में उसे शंका उत्पन्न हो गई। वैशम्पायन जी भीम का पराक्रम और उनके हाथी उठा उठा कर फेंक देने की कथा सुना रहे थे। राजा को यह बात असम्भव लगी। उसने चिल्ला कर कहा - “मुनिराज यह सर्वथा असत्य है, बिलकुल असम्भव है। मनुष्य हाथी को उठाकर फेंक दे यह हो नहीं सकता।” राजा का यह कहना था कि उसका अठारवाँ कोढ़ स्थायी हो गया। कथा पूरी हो गई।

वैशम्पायन जी ने अपने योग बल से जन्मेजय को प्राचीन काल के दृश्य दिखाये, तब राजा ने अपनी आँखों भीम का पराक्रम देखा। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ कि मैंने ऐसी भूल क्यों की ? शंका क्यों उठाई, यदि न उठाता तो एक कोढ़ से कोढ़ी रहने के दुख से बच जाता। राजा पश्चाताप ओर दुख से दुखी होकर रोने लगा। तब मुनि ने उसे समझाया कि इसमें तेरा क्या दोष है? होतव्यता किसी न किसी प्रकार अपना प्रभाव प्रकट कर देती है। वह किसी से भी, किसी उपाय से भी, कदापि, नहीं टलती, इस प्रकार उसको सान्त्वना देकर मुनि अपने स्थान को चले गये और राजा होतव्यता की प्रबलता को देखता ही रह गया।


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