महात्मा गान्धी की अमर वाणी

October 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(गाँधी-वाणी)

भोजन-

हमारे सामने एक गहरा प्रश्न है। खुराक की तंगी है और इसलिए परेशानी होती है ......मुझे लगता है कि अगर हम सच्ची आजादी को हजम कर लेते हैं, तो ऐसी परेशानी नहीं होनी चाहिये।...... मैं क्या पाता हूँ कि जो मैने बात कही है वह तो बड़ी सीधी है और बिल्कुल व्यवहार की बात है यानी बाहर से ख्राक नहीं मंगाना। ऐसी व्यवहार की बात सुनते ही लोग क्यों काँप उठते हैं। हमारे पास पानी पड़ा है, जमीन पड़ी है, करोड़ों की तादाद में लोग पड़े हैं, हम क्यों परेशान बनें?

मेरा तो कहना इतना ही है कि लोग इसके लिए तैयार हो जाये कि हम अपने परिश्रम से अपनी रोटी पैदा कर लेगें। इससे लोगों में एक किस्म का तेज पैदा हो जाता है और उस तेज से ही आधा काम हो जाता है।

अधिकार और कर्त्तव्य-

जिसके पास फर्ज नहीं है उसका तो हक नहीं है, अर्थात् सब हक अपने फर्ज में से निकलता -फर्ज नहीं तो हक नहीं। मैं फर्ज अदा करता हूँ, तो उसका नतीजा मिलता है, वही हक है।

सत्य-

जिसका जीवन सत्यमय है वह तो शुद्ध स्फटिक मणि की तरह हो जाता है। उसके पास असत्य जरा देर के लिए भी नहीं ठहर सकता। सत्याचरणी को कोई धोखा दे ही नहीं सकता, क्योंकि उसके सामने झूठ बोलना अशक्य हो जाना चाहिए। संसार में कठिन से कठिन व्रत सत्य का है।

सत्य में ही सब बातों का समावेश हो जाता है, अहिंसा में चाहे सत्य का समावेश न हो, पर सत्य में अहिंसा का समावेश हो जाता है।

अहिंसा-

अहिंसा मानो पूर्ण निर्दोषता ही है। पूर्ण अहिंसा का अर्थ है प्राणिमात्र के प्रति दुर्भाव का पूर्ण अभाव।

सत्य विधायक है, अहिंसा निषेधात्म है। सत्य वस्तु का साक्षी है, अहिंसा वस्तु होने पर भी उसका निषेध करती है। सत्य है, असत्य नहीं है। हिंसा है, अहिंसा नहीं है। फिर भी अहिंसा ही होना चाहिए, यही परम धर्म है।

मेरे लिए सत्य से परे कोई धर्म नहीं है और अहिंसा से बढ़कर कोई परम कर्त्तव्य नहीं है इस कर्त्तव्य को करते-करते आदमी सत्य की पूजा कर सकता है।

प्रेम-

संसार आज इसी लिए खड़ा है कि यहाँ घृणा से प्रेम की मात्रा अधिक है, असत्य से सत्य अधिक है।

अहिंसा, तितिक्षा और प्रेम की मात्रा को बढ़ा कर सत्य को सिखाती है। प्रेम सौदे की वस्तु नहीं है।

प्रेम की सच्ची परीक्षा तो यह है कि हम मर कर भी दूसरों के अप्रेम का उत्तर न दें।

विश्वास के बदले विश्वास या प्रेम के जवाब में प्रेम, विश्वास या प्रेम कहलाने लायक नहीं। सच्चा प्रेम वह हैं, जो दुश्मन के सामने भी टिके।

प्रेम की कोरी कल्पना यह है कि वह कुसुम से कोमल और वज्र से भी कठोर हो सकता है।

ईश्वर-

ईश्वर निश्चय ही एक है। वह अगम अगोचर और मानव जाति के बहुजन समाज के लिए अज्ञात है। वह सर्वव्यापी है। वह बिना आँखों के देखता है, बिना कानों के सुनता है। वह निराकर ओर अभेद है। यह अजन्मा है, उसके न माता न पिता न, संतान फिर भी वह पिता, माता, पत्नी या संतान के रुप में प्रजा को ग्रहण करता है।

यदि हमारे अन्दर सच्ची श्रद्धा है, यदि हमारा हृदय वास्तव में प्रार्थनाशील है, तो हम ईश्वर को प्रलोभन नहीं देगें, उसके साथ शर्तें नहीं करेगें। हमें उसके आगे अपने को आत्म समर्पण कर देना होगा।

राम नाम-

प्राकृत और संस्कृत दोनों प्रकार के मनुष्य राम-नाम लेकर पवित्र होते हैं। परन्तु पावन होने के लिय राम-नाम हृदय से लेना चाहिए, जीभ और हृदय को एक रस करके राम-नाम लेना चाहिए।

करोड़ों के हृदय का अनुसन्धान करने और उनमें ऐक्य भाव पैदा करने के लिए एक साथ राम-नाम की धुन जैसा कोई दूसरा सुन्दर और सबल साधन नहीं हैं।

प्रार्थना-

प्रार्थना का आमन्त्रण निश्चय ही आत्मा की व्याकुलता का द्योतक है, प्रार्थना का एक चिन्ह है। प्रार्थना हमारे अधिक अच्छे, अधिक शुद्ध होने की आतुरता को सूचित करती है।

प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं, हृदय से होता है। इसी से गूँगे, तुतले, मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं।

मद्य-निषेध-

अगर हम अहिंसात्मक प्रयत्न द्वारा अपना ध्येय प्राप्त करना चाहते हैं, तो जो लाखों स्त्री-पुरुष शराब, अफीम वगैरह नशीली चीजों के व्यसन के शिकार हो रहे हैं उनके भाग्य का निर्णय हम सरकार पर नहीं छोड़ सकते। स्थायी और स्वास्थ्यपूर्ण मुक्ति भीतर से ही आती है यानी आत्म-शुद्धि से ही उद्भूत होती है।

स्त्री का अधिकार-

अहिंसा की नींव पर रचे गये जीवन की योजना में जितना और जैसे अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकर स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने के बारे में है। लेकिन अहिंसक समाज की व्यवस्था में जो अधिकार या हक मिलते हैं वे किसी न किसी कर्त्तव्य या धर्म-पालन से प्राप्त होते हैं इसलिए यह भी मानना चाहिए कि सामाजिक आचार-व्यवहार के नियम स्त्री और पुरुष आपस में मिलकर और राजी-खुशी से तय करें।

विवाह-

विवाह एक ऐसी बाड़ है, जो धर्म की रक्षा करती है। यदि यह तोड़ दी जायगी तो धर्म का नाश हो जायगा।

पर्दा-

पवित्रता कुछ बन्द घर के भीतर नहीं पनपती। वह उपर से भी लादी नहीं जा सकती। पर्दें की चारदीवारी खड़ी करके उसकी रक्षा नहीं की जा सकती।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118