विजयोत्सव क्यों और कैसे

October 1951

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(पं नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ)

वर्षा के पश्चात् शरद् ऋतु आती है उसमें नदियों में जल कम हो जाते हैं, मार्गों में कीचड़ादि नहीं रहता, आकाश स्वच्छ हो जाता है, क्षत्रियों के लिए विजय-यात्रा के निमित्त यही सुन्दर अवसर रहता है, इस शरद्-ऋतु के शुक्ल पक्ष में भारत में सर्वत्र विजयोत्सव होते थे। इसी में विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी, इसी में युद्ध का निर्णय होकर विजयोत्सव मनाये जाते थे। इसी ऋ तु में राम-रावण का महा-युद्ध आश्विन शुक्ल दशमी को प्रारम्भ हुआ इसीलिए विजया दशमी को इतना महत्व प्राप्त हुआ। कार्तिक में हमारा प्रसिद्ध महाभारत हुआ था इसलिए दीपावली को इतना महत्व प्राप्त हुआ।

वैसे हमारे पूर्वजों ने जो भी त्यौहार चलाये वे ऋतुओं पर दृष्टि रखकर चलाये। प्रत्येक ऋतु की सन्धि में कोई न कोई यज्ञ महायज्ञ होता था। प्रत्येक मास में अमावस को दर्श तथा पूर्णिमा को पौर्णिमासेष्टि होती थी। चैत्र में वसन्तोत्सव चलता था। रामजन्मोत्सव भी इसी में आता है। आषाढ़ में व्यास पूर्णिमा अर्थात् गुरु-शिष्यों का उत्सव, श्रावण में श्रावणी अर्थात् शिक्षा देने वाली संस्थाओं का महोत्सव, भाद्र पद में जन्माष्टमी, आश्विन में विजयादशमी, कार्तिक में दीपावली मार्ग शीर्ष में-प्राचीन समय में कहीं कहीं मार्ग शीर्ष से वर्षारम्भ होता था - इसलिए बड़े बड़े यज्ञ समारोह इसमें होते थे। पोष में संक्रान्ति, माघ में फिर वसन्तागमन, फाल्गुन में होलिका इस प्रकार बड़े बड़े समारोह होते है। सब जाति के उत्सवों तथा समारोह में सब जाति के लाग अभिन्न भाव से सम्मिलित होते थे। कोई छोटे बड़े का भाव नहीं रहता था। क्योंकि आर्य- जाति सदैव स्वभावानुरुप बाँटकर काम करती रही है। शिक्षा का काम ब्राह्मणों ने लिया, रक्षा का काम क्षत्रियों ने, वाणिज्य का, कृषि का काम वैश्यो ने संभाला, सेवा का भार शूद्रों पर आ पड़ा।

मनुष्य एक समाज का प्राणी है, उसको समाज के बिना सरता नहीं। मनुष्यों में भी सत्व, रज, तुम ये तीन गुण प्रधान रहते हैं। सब में ये तीनों गुण रहते हैं पर जिनमें जो गुण प्रधान हो वह मनुष्य उसी गुण वाला कहलाता है, इसीलिए इन तीनों गुणों के कारण मनुष्य तीन स्वभावों वाला, तीन प्रवृत्तियों वाला, तीन श्रद्धाओं वाला, तीन प्रकार के कर्मों वाला होता है। इसलिए जिस-जिस गुणों के प्रभाव में आकर मनुष्य किसी कार्य में प्रवृत्त होगा, जैसी श्रद्धा रखेगा, जैसा कर्म करेगा, वैसा ही फल पायेगा। इसीलिए ब्राह्मणों का मुख्य त्यौहार श्रावणी, क्षत्रियों का विजयदशमी, वैश्यों का दीपावली और शूद्रों का होली हो गया, वैसे प्रत्येक आर्य (हिन्दू) के घर में इतने त्यौहार होते रहते हैं कि संसार की किसी जाति के जीवन में इतने त्योहार नहीं होते हैं। हमारे यहाँ मनुष्यों के ही नहीं अपितु पशुओं के भी त्यौहार मनाये जाते हैं, वृक्षों तक के त्यौहार मनाये जाते हैं। बालकों के त्यौहार पृथक, कन्याओं के पृथक, पति के, स्त्री के, भाई के, बहन के त्यौंहार हार बँटे हुए हैं। आज हम दिशा भूल हो गये हैं त्यौहारों को आनन्द पूर्वक मनाने की शक्ति नहीं रख रहे हैं, क्योंकि दरिद्र हैं, भ्रान्त हैं, दीन हैं, अनन्य गतिक हैं पर जिस प्रकार भी जिस रुप में भी मनाते रहते हैं उस से क्या अपने पूर्वजों के अनन्त वैभव, ऐर्श्वय, सम्पत्ति, उत्साह, उमंग, वीरता और श्री का पता नहीं चलता-

1.महापुरुषों के जन्मदिन -

2.वीर पुरुषों के वीरोत्सव

3.ऋ तु-ऋ तु के योगादृष्टि-

4.घर-घर में आवासवृद्ध पुरुष-स्त्रियों की जन्म गाँठे-

5.ऋतु-उत्सव-वसन्तात्सव आदि-

6.स्त्रियों के विशेष उत्सव वट-सावित्री आदि-

7.पर्वोंत्सव, महापर्वोत्सव-

8.कुम्भ अर्द्धकुम्भ, महावारुणी, आदि

9.वृक्षाोत्सव, विशेष-विशेष वृक्षों की आरोपण विधि -

10.पशुओं के विशेष उत्सव जैसे श्रावणी के दिन गाय बैल आदि के समारोह। इन उत्सवों तथा त्यौहारों अथवा समारोहों में व्यक्ति तथा समुदाय दोनों की प्रवृत्तियों का ध्यान रखा गया है। मनुष्य है और संसार के सुख दुःखों के चक्र चलते ही रहते हैं, बीच में इस प्रकार त्यौहार दुःख को भुला देते हैं। यह ध्यान रहे कि सब त्यौहारों में धर्मतत्व का बीज विद्यमान है। इसके अतिरिक्त गर्भाधान संस्कार से लेकर वृद्धावस्था तक होने वाले अन्य संस्कार समारोह भी मनुष्य के मन पर अपने संस्कार डालते रहते हैं, साराँश इन संस्कारों, त्यौहारों, समारोहों में प्रवृत्ति और निवृत्ति का ऐसा सुन्दर संमिश्रण हो गया है कि मनुष्य व्यक्तिगत तथा समष्टि रुप से अपना कर्त्तव्य आनन्दपूर्वक करता रहता है। उसको संसार एक बोझ नहीं प्रतीत होता, वह संसार को दुःखमय नहीं समझता, इसीलिए घबराता नहीं और ईश्वर-विश्वास के साथ शुभ कर्म करता हुआ जीवन यापन करता रहता है।


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