विचार और कार्य में समन्वय कैसे हो?

October 1951

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(प्रो. राम चरण महेन्द्र, एम. ए.)

स्ंसार में अनेक व्यक्ति हैं जिन के पास जीवन को परिपुष्ट, उन्नत और उत्कृष्ट बनने वाले सद्विचारों की न्यूनता नहीं है, हृदय सरोवर में नित्य नवीन आशापूर्ण तरंगें उद्वेलित हुआ करती हैं, मन में अनेक दिव्य भावनाओं का उदय होता रहता है, आत्मा में महत्वाकाक्षाओं का उद्भव चलता रहता है, किन्तु इन समृद्ध विचारों के होते हुए भी वे अनेक वर्षों से जहाँ थे वहीं हैं, तिलभर भी आगे नहीं बढ़े, सफलता प्राप्त नहीं हुई, ज्यों के त्यों किं कर्त्तव्यविमूढ़ दीन-हीन अवस्था में पड़े दिनों को धक्के दे रहे हैं। वे जीवन में उन्नति करना चाहते हैं, अपनी गुप्त मानसिक शक्तियों से पूर्ण लाभ उठाने के इच्छुक हैं, सुख और शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं, और संसार में सफलता लाभ के आकाँक्षी हैं। किन्तु उन्नति की सच्ची अभिलाषा होने पर भी वे अग्रसर नहीं हो रहे हैं, जंग लगी हुई मशीन के पुर्जों की भाँति एक ही स्थान पर पूर्ववत् स्थिर हैं। इसका क्या कारण है ?

विचार ही संसार में सब से महान् शक्ति है, पर असंगठित अव्यवस्थित और काल्पनिक विचार केवल दिल-बहलाव, मनोरंजन, एवं निष्प्रयोजन सामग्री हैं। जिस प्रकार आप कुछ काल के लिए उपन्यास अथवा दिल बहलाने वाली कोई पुस्तक लेकर अपना मनोरंजन कर लेते हैं, उसी प्रकार इन शुभ विचारों में रमण कर कुछ काल तक उनकी अद्भुत शक्तियों पर चमत्कृत होते हैं -उनके नशे में अन्य विस्मृति कर देते हैं। किन्तु तदुपरान्त वह सब कुछ नीरस प्रतीत होने लगता है और कभी कभी तो पुस्तक छोड़ते ही हम सब कुछ भूल भी बैठते हैं। हम उन सद्-ग्रन्थों में दिये हुए र्स्वण-सूत्रों को क्रियात्मक रुप प्रदान नहीं करते। उनमें वर्णित सद्-शिक्षाओं को कार्यरुप में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते, उनके अनुसार जीवन को नहीं मोड़ते, शिक्षाओं पर दत्तचित्त, एकाग्र दृढ़तापूर्वक अमल नहीं करते, शास्त्रीय विधियों का पूर्ण तन्मय हो अभ्यास नहीं करते, अपने आचरण को उनके अनुसार नहीं बनाते। केवल पढ़ कर ही संतुष्ट से हो जाते हैं। यही हमारी सबसे गुरुतर-त्रुटि है। यही पर-वशता हमें अग्रसर नहीं होने देती। आजकल अधिकाँश जिज्ञासु और साधक इसी क्रियात्मक विचार की न्यूनता के कारण ही वाँछनीय परिस्थिति उत्पन्न नहीं कर पाते।

मानस-शास्त्र के वेत्ताओं का कथन है कि मनुष्य उत्तम लेखक, योग्य वक्ता, उच्च कलाविद् एवं वह जो कुछ भी चाहे सरलता पूर्वक बन सकता है, पूर्ण पारंगत हो सकता है, यदि वह निज शुभ विचारों को क्रिया का रुप प्रदान कर दे। वह जो कुछ सोचता विचारता, कल्पना करता है, यदि उसे परिश्रम द्वारा नित्य-प्रति के जीवन में भी प्राप्त करने की कोशिश करे, स्वयं कार्य-संलग्न होकर मानसिक वृत्ति को सत्य का रुप प्रदान करे। शुद्ध विचारों की उपयोगिता तभी प्रकट होगी जब अंतःकरण के समस्त संस्कारों, विचार-मुद्राओं तथा कल्पनाओं को शरीर के कार्य द्वारा प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न किया जायेगा।

विचार के दो रुप हैं - एक काल्पनिक दूसरा क्रियात्मक। तुम किसी वस्तु-विशेष की हार्दिक कामना करते हो, उसकी सिद्धि के हेतु अंतःकरण पूर्वक अभिलाषा भी करते हो, तुमने अपना आदर्श भी उच्चे अन्तःकरण से निर्मित किया है, पर तुम्हारी ये आशापूर्ण तरंग पानी के बुलबुलों की तरह मन ही मन में शान्त हो जाती हैं। तुम जीवन के काल्पनिक बाजू पर तो अपना विशेष ध्यान रखते हो, किन्तु विचारों के क्रियात्मक स्थल पर यथोचित ध्यान नहीं देते ! इसी कारण तुम्हें पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं होती, तुम विजय से अपने अन्तःकरण को गद्गद् नहीं कर सकते-फतह के डंके बजा कर संसार को महत् आर्श्चय में नहीं डाल सकते। तुम्हारे मुख-मन्डल पर आध्यात्मिक-सौर्न्दय का दिव्य प्रकाश नहीं झलकता और तुम सन्तोष के मधुर सरोवर में अपनी आत्मा को सुख स्नान करा कर शान्त नहीं कर पाते। जब तुम किसी वस्तु विशेष के ध्यान में निमम्न होते हो, तो किंचित् काल के लिए उस वस्तु से तुम्हारा सम्बन्ध स्थिर हो जाता है। पर केवल अभिलाषा मात्र करते रहने से आकर्षण के दिव्य सूत्र अत्यन्त निर्बल रहते हैं, और तब तक सक्रिय नहीं होते जब तक उस की सिद्धि के लिए पर्य्याप्त परिश्रम प्रयत्न-क्रिया न की जाये। काल्पनिक और क्रियात्मक दोनों ही तत्वों से विचार समूचा, पूर्ण उत्पादक बनता है। अभिलाषा तब तक उत्पादक नहीं होती जब तक वह किया में पूर्ण रुप से परिणत न कर दी जाये। अभिलाषा की क्रिया के साथ सम्मेलन होने पर उत्पादक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है और शीघ्र ही फल की प्राप्ति हो जाती है।

हमने ऐसे अनेक अस्थिर व्यक्तियों को देखा है जो बड़े उत्कृष्ट आदर्शों को लेकर निकले, जिन्हे मनोवाँछित पदार्थ में अत्यन्त श्रद्धा थी, और जो बहुत कुछ करने के इच्छुक थे, किन्तु वे अपने सम्पूर्ण मन, बचन, और कार्यों के प्रवाह को कार्य में परिणत न कर सके, सिद्धि के लिए कर्म में प्रविष्ट नहीं हुए। जिस मूल्य-द्वारा किसी विशेष कार्य में सफलता प्राप्त होती है, उस मूल्य (ठोस कर्म, परिश्रम, उद्योग, क्रियाशीलता) को दिये बिना ही उस वस्तु-विशेष की आकाँक्षा करने लगे अपनी उत्सुकता केवल विचारों मात्र तक परिमित रखकर वे यह भूल ही गए कि आत्मिक भावनाओं का जितना दृढ़ संबंध कर्म से होगा, कार्य उतनी ही शीघ्रता से सम्पन्न होगा। यह संसार तो साधना भूमि है। इसे कर्मक्षेत्र कहना अधिक उपयुक्त होगा। जिस जिस व्यक्ति ने जैसे जैसे कर्म किये, वैसे ही फल उसे प्राप्त हुए। बिना कार्य क्षेत्र में उतरे केवल सोचने-विचारने मात्र से न किसी को कुछ प्राप्त हुआ है, न होने की संभावना ही है।

सफलता प्राप्त करना चाहते हो तो कार्य के महत्व का हृदयंगम करो। कार्य में संलग्न हुए बिना मनुष्य कदापि अग्रसर नहीं हो सकता। वह इधर उधर की बातें सोचता रहे, मन में मंसूबे और हवाई किले तैयार करता रहे, परन्तु अभ्यास या परिश्रम से भयभीत होता रहे तो क्या लाभ। आजकल मनुष्य कार्य से दूर भागते हैं। चाहे समस्त दिन इधर-उधर की उलटी-सीधी बातें करते रहें, एक से एक उत्तम पुस्तक पढ़ते रहें, पर उस उत्कृष्ट विचार धारा को कार्य रुप में सत्य करने का आन्दोलन नहीं करते। संसार तो कार्य की कसौटी है। यहाँ मनुष्य की पहिचान, तभी होती है जब उसके कार्यों पर टीका-टिप्पणी होती है।

जो कर्म क्षेत्र में प्रविष्ट होता है, वही आगे बढ़ता है। जो अपनी शुभ कामनाओं का क्रियात्मक रुप प्रदान करता है वही अन्त में पूर्ण विजयी होता है। प्रत्येक मनुष्य का कार्य में संलग्न होना ही राष्ट्र की उन्नति का मूल-मंत्र हैं।

आत्म संयम और चरित्र गठन तो जीवन-व्यापी कार्य है। हममें से यह कोई नहीं कह सकता कि मैं अपना यह कार्य समाप्त कर चुका हूँ और पूर्ण निश्चित हूँ। शरीर के भीतर रहने वाले दुश्मनों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना इतना सरल नहीं है जितना अन्य कार्यों में विजय प्राप्त करना और सबसे बलशाली दुश्मन तो यह अकर्मण्यता है जो हमें आगे नहीं चलने देता। कहीं हम आलसी, बातूनी, बक्की-झक्की कोरे अकर्मण्य ही न बन जाए इस बात पर तीव्र दृष्टि रखने की परम आवश्यकता है। चंचलता, व्यग्रता हमारे मार्ग को अवरुद्ध कर सकती हैं, और कर्मभूमि में पग पग पर ठुकरा सकती हैं। वासनाऐं, चिंताएं और काल्पनिक भय हमारे अध्यवसायों को शिथिल कर सकती हैं, पर हमें चित्त संयम रखने का प्रयत्न करना चाहिए।

संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं जो तुम सम्पादित न कर सकते हो। जो कार्य, जो सफलताएँ, जो आर्श्चय-चकित फल एक व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, उस सब की सामर्थ्य तुम में भी विद्यमान है। जो प्रतिभा, जो बुद्धि सामर्थ्य एक मनुष्य के पास है वह तुम में भी बीज-रुप से मौजूद है। तुम जो चाहोगे वही कर सकोगे, तुम जिसकी याचना करोगे वही प्राप्त होगा। यदि तुम सुख समृद्धि की याचना करोगे तो तुम्हें सुख मिल सकेगा। यदि मुक्ति की आकाँक्षा करोगे तो मुक्ति मिलेगी। संसार तो कल्पवृक्ष है, उससे तुम जो चाहोगे वही प्रदान करेगा। तुम विभूति के लिए हाथ पसारोगे, तो तुम्हारे लिए रत्नाकर, वसुन्धरा, और हिमालय के मुक्तामणि खोल देगा। तुम आनन्द प्राप्ति के लिए अनुरोध करोगे तो वही तुम्हारे लिए र्स्वग बन जायगा। जो उसे हरा भरा क्रीडास्थल देखने के आदी है, उसके लिए नित्य, शाश्वत और आनन्द-धाम बन जायगा। केवल एकाग्रचित्त हो, उत्तम और उच्च विचारों को कार्य रुप में प्रकट करना सीख लो। तुम्हारी यह सर्वोत्कृष्ट शक्ति है। इसे इष्ट कार्य में लगाने से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है।

तुम आज से अभी से दृढ़ संकल्प करो कि थोथी विचार धारा में निमग्न नहीं रहूँगा। मेरी कार्यशक्ति अत्यन्त है। मुझे पूर्ण अनुभव हो गया है कि मनुष्य जो क्रिया करता है उसी का फल उसे प्राप्त होता है मेरी उन्नति या अवनति, मान या हानि मेरे कार्यों पर निर्भर है। उत्तम कार्य, उचित कर्म और निरन्तर साधना-युक्त हो सक्रियात्मक विचार ही उत्तम जीवन निर्माण करते हैं।


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