‘तपश्चर्या’ एक महत्वपूर्व आध्यात्मिक कमाई है। तप ही वह पूँजी है जिसके द्वारा संसार की अनेक सम्पदाऐं प्राप्त होती है। तप की अग्नि में जन्म जन्मान्तरों के संचित पाप, कुसंस्कार और दुर्भाग्य नष्ट होते है। प्राचीन काल के ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास पुराणों में मौजूद हैं जिन में तप के द्वारा बड़े बड़े वरदान प्राप्त होने एंव दुस्तर कार्यो का सम्पादन होने की सफलताऐं मिली हैं।
आप तप के महत्व को भली प्रकार जानते हैं। हमारी आन्तरिक इच्छा है कि तपश्चर्या की दिशा में आपकी प्रगति और भी तीव्र हो। आश्विन मास की नवरात्रि निकट आ रही है। तपश्चर्या के लिए यह सन्धि वेला अत्यन्त शुभ मुहूर्त है। बीज बोने के लिए कुछ विशेष दिन ऐसे आते हैं कि उस अनुकूल अवसर पर बोया हुआ बीज बहुत अच्छा उपजता है। आध्यात्मिक कृषि कर्म में नव-रात्रि ऐसा ही र्स्वग अवसर हैं। यदि आपकी सुविधा हो तो इस अवसर पर एक छोटी सी 24 हजार की गायत्री तपश्चर्या कर लें।
ता0 2 अक्टूबर मंगलवार को आश्विन सुदी एड़वा है। उसी दिन से नवरात्रि प्रारंभ होती है। इस बार मंगल-वार को पड़वा और दौज एक हो गई है इस प्रकार एक दिन घट गया है। परन्तु 24 हजार के लघु पुरश्चण के लिए 9 दिन होने आवश्यक हैं। इसलिए दशमी बुधवार ता. 10 अक्टूबर को विजयदशमी के दिन यह साधना समाप्त होगी।
प्रातः काल ब्राह्म मुहूर्त में उठ कर शौच स्नान से निवृत्त होकर पूर्व की ओर मुँह करके आसन पर बैठना चाहिए। पास में जल पात्र तथा साक्षी के लिए अग्नि रहना आवश्यक है। अग्नि को दीपक, अगरबत्ती, धूपबत्ती, आदि के रुप में स्थापित रखना चाहिए। गायत्री एवं गुरु का चित्र सामने रखना चाहिए। आवाह्रन मन्त्र से माता का आवाह्न करके धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य जल, पुष्प आदि से उनका पूजन करना चाहिए। केवल माता की प्रतिमा हो, गुरु की न हो तो उसके स्थान पर नारियल को प्रतिनिधि स्थापित कर लेना चाहिए। यदि दोनों में से एक भी प्रतिमा न हो तो केवल मानसिक ध्यान द्वारा काम चलाया जा सकता है। जिन्हें ब्रह्म संध्या याद हो वे उसे करके तब जप आरम्भ करे। जिन्हें याद न हो वे आवाहन पूजन के उपरान्त जप आरम्भ कर दें।
नौ दिन में 24 हजार जप करना है। प्रतिदिन 2667 मंत्र जपने है। एक माला में 108 दाने होते है। प्रतिदिन 25 मालाऐं जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है। प्रायः चार घंटे में इतनी मालाएँ आसानी से जपी जा सकती हैं। यदि एक साथ इतने समय लगातार जप करना कठिन हो तो अधिकाँश भाग प्रातः काल पूरा करके शेष भाग साँयकाल पूरा कर लेना चाहिए। जप समाप्त करके माता को प्रणाम करना चाहिए और विसर्जन मंत्र से विसर्जन कर देना चाहिए। जल को ‘सूर्य के संमुख अर्घ चढ़ा दें। भोजन के समय भोग लगाने तथा संध्या समय आरती करने का भी क्रम रखना चाहिए।
प्रातः काल पूर्व की ओर एवं शाम को पच्छिम की ओर मुँह करके जप किया जाता है। तर्जनी उँगली से माला का र्स्पश नहीं करना चाहिए। सुमेरु (बीच का दाना) उल्लंधन नहीं करना चाहिए। जप इस प्रकार करना चाहिए कि कंठ से ध्वनि होती रहे, होंठ हिलते रहें पर पास में बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रुप से मंत्र को सुन न सके। जप के समय मस्तिष्क के मध्य भाग में गायत्री के तेज पुँज प्रकाश का ध्यान करते रहना चाहिए। नियत जप के अतिरिक्त समय में मन ही मन मानसिक जप और ध्यान, अन्य कार्य करते हुए भी करते रहना चाहिए।
इन दिनों जिससे जितनी तपश्चर्या सध सके उसे उतनी सोधनी चाहिए। तपश्चर्या में मुख्य बातें यह हैं (1) भूमि शयन (2) जूते या छाते का त्याग (3) शरीर पर कम वस्त्र (4) हजामत बनाने एंव श्रृंगार सामग्रियों का त्याग (5) अपना भोजन जल, वस्त्र धोना आदि शारीरिक कार्य स्वयं करना (6) धातु के बर्तनों का प्रयोग छोड़ना (7) पशुओं की सवारी का त्याग (8) ब्रह्मचर्य (9) मौन (10) उपवास। इनमें से जो तप जितनी मात्रा में जिससे हो सके उसे उतना करने का प्रयत्न करना चाहिए। जो लोग केवल एक समय फलाहार पर नहीं रह सकते वे दो बार ले सकते हैं। जिसके लिए यह भी कठिन हो वे दोपहर को बिना नमक का एक अन्न से बना हुआ भोजन और शाम को दूध लेकर अपना उपवास चला सकते हैं।
इस प्रकार चौबीस हजार का यह लघु अनुष्ठान विजयदशमी के दिन ता. 1 अक्टूबर बुधवार को पूर्ण हो जायेगा। अन्तिम दिन 108 आहुतियों का हवन करना चाहिए। उस आहुति में कम से कम 3 मासे सामग्री और 1 मासे घी होना चाहिए 108 आहुतियों में करीब छः छटाँक सामग्री और दो छटाँक घी होना आवश्यक है। 24 अंगुल लम्बी 24 अंगुल चौड़ी 4 अंगुल ऊँची मिट्टी की वेदी बना लेनी चािहए या हवन कुन्ड हो तो उससे काम चला लेना चाहिए। सुमिधाओं में कपूर से अग्नि प्रज्वलित करके गायत्री मंत्र के अन्त में स्वाहा लगा कर आहुतियाँ देनी चाहिए। हवन में यदि तीन व्यक्ति हों तो एक माला गिनता चले, दुसरा सामग्री, तीसरा घी चढ़ावे। अधिक व्यक्ति सम्मिलित हों तो और भी अच्छा है। घी की आहुति के पश्चात चमची लौटाते हुए उसमें बचे हुए घी की एक ही बूँद, वहाँ रखे हुए जल पात्र में टपका देनी चाहिए और टपकाते समय ‘ॐ गायत्री इद्म न मम’ इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। पूर्णाहुति के पश्चात यज्ञ की 4 परिक्रमा करनी चाहिए और उस जल पात्र में टपकाये हुए घी को हथेलियों पर मलकर अग्नि पर तपाना चाहिए और उसे मुँह, नेत्र, आँख, कान, मस्तक, हृदय एवं कन्ठ पर लगा लेना चाहिए।
ऊपर अत्यन्त साधारण विधि लिखी गई है जिसे प्रारंभिक साधक भी कर सकता हैं। सरल होते हुए भी यह बड़ी प्रभावशाली, लाभदायक एवं सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली है। इस तप की उष्णता से कच्चे सद्विचार पकते है। पाप एवं कुसंस्कार नष्ट होते हैं, तथा माता की कृपा से अनेक लाभदायक प्रवृत्तियाँ, योग्यताएं, परिस्थितियाँ एवं दैवी सहायताऐं प्राप्त होती हैं आत्मबल सात्विकता एवं दैवी सम्पदाओं को बढ़ाने में यह तप विशेष रुप से फलदायक है। इसलिए जिन की इस ओर श्रद्धा एवं प्रवृति हो उन्हें इस छोटे से तप का आयोजन अवश्य करना चाहिए।
जो साधक अपनी नवरात्रि तपश्चर्या की पूर्व सूचना हमें दे देगें उनके साधन का संरक्षण, परिमार्जन पथ प्रदर्शन एवं परिपोषण हमारे द्वारा होता रहेगा। उन दिनों कोई सज्जन मथुरा न आवें। क्योंकि उन दिनों हमारा केवल जल के आधार पर नौ दिनों का पूर्ण निराहार व्रत होता है। उन दिनों हमारा अधिकाँश समय एकान्त में व्यतीत होगा।
इस अनुष्ठान की तपश्चर्या के यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मण भोजन, दान पुण्य, प्रसाद वितरण आदि का नियम है। इसके बिना यह यज्ञ, अधूरा अपूर्ण एवं अतृप्त रह जाता है। इसलिए यथा शक्ति इन तीनों की भी व्यवस्था करनी चाहिए। छोटी छोटी कम मूल्य की गायत्री पुस्तकें मँगा कर अपने निकटवर्ती धर्म रुचि के व्यक्तियों में वितरण करनी चाहिए। और पूरा गायत्री साहित्य मँगाकर अपना गायत्री पुस्तकालय पूरा कर लेना चािहए। यह उच्च कोटि का आध्यात्मिक प्रसाद वितरण है। दान या भोजन कराते समय सत्पात्र को ढूँढ़ना चाहिए क्योंकि कुपात्र को दिया हुआ दान निष्फल जाता है।