ईश्वर को अनुभव किया जा सकता है।

March 1950

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(महात्मा गाँधी)

इंग्लैंड की कोलम्बिया ग्रामोफोन कंपनी ने महात्मा गाँधी का एक महत्वपूर्ण भाषण को रिकार्ड में भरा था। जो इस प्रकार है :-

“संसार में एक ऐसी अपूर्व शक्ति विद्यमान है जो प्रत्येक वस्तु का संचालन करती है। यद्यपि मैं उस शक्ति को देख नहीं सकता पर उसका अनुभव करता हूँ। वह ऐसी गुप्त शक्ति है जो अपना अनुभव स्वयं ही करा देती है। वह ज्ञान प्राप्त कराती है कि ईश्वर भी कोई चीज है।”

“साधारणतः लोग यह नहीं जानते कि शासन कौन करता है और वह (ईश्वर) क्या और कैसे शासन करता है। फिर भी लोग समझते हैं कि ऐसी कोई शक्ति अवश्य है जो हमारे ऊपर शासन करती है। कुछ वर्ष पूर्व मैंने मैसूर में भ्रमण किया और मुझे कुछ गरीब देहातियों से भेंट करने का अवसर मिला। पूछने पर मुझे मालूम हुआ कि वह यह नहीं जानते कि मैसूर में शासन कौन करता है। उन्होंने केवल इतना उत्तर दिया- “कोई देवता शासन करता है,” यदि उन लोगों को अपने राजा का भी ज्ञान नहीं है, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सम्राटों के सम्राट परमात्मा का ज्ञान मुझे नहीं है। पर जैसे मैसूर के देहाती यह जानते हैं कि उन पर कोई राजा शासन अवश्य करता है वैसे ही मैं भी यह अनुभव करता हूँ कि प्रत्येक वस्तु का संचालक कोई अवश्य है।”

“वह कोई अन्धा कानून नहीं है क्योंकि कोई भी अन्धा कानून जीवित प्राणियों पर शासन नहीं कर सकता। वह कानून क्या है। ईश्वर ! कानून और कानून का रचने वाला दो नहीं एक ही है। मैं कानून के रचयिता के अस्तित्व को इन्कार नहीं कर सकता, क्योंकि मैं उस (ईश्वर) के सम्बन्ध में कम जानता हूँ। जैसे पृथ्वी के राजा का अस्तित्व न मानने से मुझे कोई खास लाभ नहीं हो सकता, उसी प्रकार ईश्वर का अस्तित्व न मानने से उसकी प्रतिक्रिया में कोई अन्तर नहीं डाल सकता। ईश्वर को अन्तिम मान लेने से जीवन यात्रा सुलभ हो जाती है। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मेरे आस-पास जो भी चीजें हैं सभी परिवर्तनशील हैं पर उन सबका परिचालन करने वाली ऐसी एक वस्तु है जो अपरिवर्तनीय है। वही सबको रचती है और फिर बिगाड़ देती है और दुबारा फिर उसी प्रकार रचना कर देती है। वह वस्तु ईश्वर है जिसमें ज्ञान द्वारा देख सकता हूँ वह और कुछ नहीं केवल ईश्वर है। मृत्यु में जीवन है, असत्यता में सत्य है। अन्धकार में प्रकाश है। इसलिये मैं सोचता हूँ कि ईश्वर-जीवन सत्य, और प्रकाश है। वह प्रेम है, वह सर्वोत्तम है। वह हृदय का नियन्त्रण करता है। उसके प्रत्येक कार्य में उसकी झलक है। हमारे पाँच ज्ञान हमें जो भी प्रकाश दे सकते हैं उससे भी अधिक प्रकाश उसकी भक्ति अनुभव करने में है। हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हमें जो प्रकाश देती हैं वह चाहे हमें कितना ही वास्तविक मालूम पड़े, पर वह नकली भी हो सकती हैं। जब हमें ज्ञानेंद्रियों से भी अधिक कुछ अनुभव होता है। तो वह उस शक्ति को ही अनुभव होता है। पर यह अनुभव वही कर सकता है जो अपने में ईश्वर का अस्तित्व मानता है। उसका अस्तित्व सभी देशों और सभी वायुमण्डलों में है। इसको इन्कार करना अपने ही अस्तित्व को इंकार करना है। उसके अस्तित्व का अनुभव विश्वास से हो सकता है और विश्वास सहज में उत्पन्न नहीं होता। इसका एकमात्र उपाय संसार के अध्यात्मिक शासन में विश्वास करना है। अर्थात् सत्य और प्रेम के कानून पर विश्वास करना सत्य और प्रेम के विपरीत जो भी हो, उसे न मानना और अपने विश्वास के अनुसार कोई काम करना सबसे सुगम उपाय है। मैं मानता हूँ कि ईश्वर का अस्तित्व तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता है। विश्वास ही तर्क है। मैं जो भी कह रहा हूँ वह असंभव नहीं है।”

“मैं बुराई को मानता हूँ। मेरा विश्वास है कि संसार में उसने ही बुराई फैलाई, पर उसमें स्वयं कोई बुराई नहीं और वह उससे दूर ही है। मैं जानता हूँ कि जब तक मैं अपने प्राणों तक की भी बलि देकर बुराइयों का सामना करने को तैयार नहीं रहूँगा तब तक मैं ईश्वर को नहीं जान सकता। मैंने अपने निज के अनुभव से ऐसा ही ज्ञान प्राप्त किया है। जितना ही मैं अपने को अधिक से अधिक गरीब बनाता जाता हूँ, उतना ही ईश्वर नजदीक दिखलाई देता है। जब मेरा विश्वास हिमालय की भाँति अचल और बर्फ की भाँति स्वच्छ हो जायगा तब मैं ईश्वर के निकट अधिक पहुँच सकूँगा।”


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