सद्विचारों द्वारा जीवन लक्ष्य की प्राप्ति।

March 1950

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(श्री नैनूरामजी याज्ञिक, रोहेरा)

प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों द्वारा ही अपना आत्म निर्माण करता है। क्योंकि विचार का बीज ही समयानुसार फलित होकर गुणों का रूप धारण करता है और वे गुण, मनुष्य के दैनिक जीवन में कार्य बनकर प्रकट होते रहते हैं। विचार ही वह तत्व है जो गुण, कर्म, स्वभाव के रूप में, दृष्टिगोचर होता है। मन, कर्म, वचन में विचारों का ही प्रतिबिम्ब सदा परिलक्षित होता रहता है।

मानव मनोभूमि में सत् और असत् दो प्रकार के संकल्प काम करते रहते हैं। भलाई और बुराई दोनों ही ओर मन चलता रहता है। इस द्विधा में जिधर रुचि अधिक हुई, उधर ही प्रकृतियां बढ़ जाती है। यदि असत मार्ग पर चला गया तो अपयश, द्वेष, चिन्ता, दैवी प्रकोप, शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता दरिद्रता एवं अप्रतिष्ठा प्राप्त होती है। और यदि सत मार्ग का अनुगमन किया गया तो प्रशंसा, प्रतिष्ठा, प्रेम, सहयोग, संतोष, दीर्घ जीवन, शारीरिक और आत्मिक बलिष्ठता एवं सदा आनन्द ही आनन्द का रसास्वादन होता है। दो प्रकार के विचार ही मनुष्य समाज को दो भागों में बाँटते हैं। सुखी-दुखी, रोगी-निरोगी, दरिद्र-सम्पन्न, दृष्ट-सज्जन, पापी-पुण्यात्मा, निन्दित-पूज्य, प्रसन्न-चिन्तित आदि द्विविधि श्रेणियाँ केवल मात्र द्विविधि विचारों द्वारा ही विनिर्मित होती हैं।

अधिक संख्या में जनसमुदाय का मानसिक धरातल परिमार्जित नहीं होता, उसमें पाश्विक वृत्तियों की प्रधानता रहती हैं। अविवेक, अज्ञान, अदूरदर्शिता, संकुचित स्वार्थपरायणता, लोभ विषय विकारों में आसक्ति एवं निकृष्ट कोटि के मनोरंजन की अभिलाषाओं से मनः दोष भरा रहता है। जिससे उसके सोचने, कार्य करने और आनंद लाभ करने की परिधि ऐसी सीमित हो जाती है जिसमें बुराई, तामसिकता एवं अशान्ति ही उत्पन्न हो सकती है। इसी कटघरे में अधिकाँश लोग बंद रहते हैं माया का यह घेरा मनुष्य को बुरी तरह जकड़े रहता है। वह जकड़ा हुआ प्राणी पराधीनता जन्म नाना प्रकार के दुखों को प्राप्त करता रहता है। यही भव बन्धन है।

अज्ञान, आसक्ति, अहंकार वासना एवं संकीर्णता के बंधनों से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं। आत्मा-परमात्मा का अंश होने के कारण स्वभावतः युक्त है, उसे यह कुप्रवृत्तियाँ ही अपने बंधन में बाँधकर मायाबद्ध जीव बना लेती है। इन बंधनों से छुटकारा मिलते ही आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है और जीवन मुक्ति का अनिर्वचनीय उपलब्ध करने लगता है।

अपनी भूल आप समझ में नहीं आती, यदि समझ में आ जाय तो उसे तुरन्त सुधार लें। रोगी यह नहीं समझता कि मैं कुपथ्य कर रहा हूँ यदि उसे ऐसा पता होता तो कुपथ्य करके प्राणों को संकट में क्यों डालता? यों तो कहने सुनने को हर एक भूल करने वाला और कुमवृध करने वाला यह जानता है कि जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं पर ऐसा केवल बाहरी रूप से ही सोचा जाता है, यदि अन्तःकरण के गहन अन्तराल को सच्चे हृदय से या कुपंथ की बुराई मालूम हो जाय तो उसे छोड़ते हुए देर न लगे। बात माया बन्धन के बारे में है। स्वार्थ, वासना के निकृष्ट सुख में लोग वैसे ही अनुभव करते रहते हैं जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबा कर मसूड़े छिलने से निकलने वाले ही रक्त को ही चाटता है और रक्तपान का अनुभव करता है। यदि मानव मन को अनुभूति अंतःकरण के गहरे अन्तराल में होना कि माया बन्धन के कटघरे में जो सुख है क्रमवश सुख लगता है वस्तुतः वह भारी घाटे विपत्ति का कारण है तो उसे अपने बन्धनों को तोड़ने में निश्चय ही तत्परता हो जाएगी।

इस अनुभूति के लिए ही आध्यात्मवाद समस्त शिक्षा और साधना है। इस श्रेय मार्ग पर चलने वाला सत् का महत्व समझ जाता वह सद्विचारों को अपनाता है, जिससे सुदूर और सत्कार्यों में उसकी प्रवृत्ति होती है और धीरे-धीरे वह सत्पुरुष बनता हुआ सन्मार्ग चलता हुआ जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।


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