(श्री मनोहरदास अग्रावत उम्मेदपुरा)
प्रत्येक मनुष्य को विचार करना चाहिए कि ‘मैं कौन हूँ’ और मेरा क्या-कर्तव्य है? मैं नाम, रूप-देह, इन्द्रिय, मन या बुद्धि हूँ या इनसे कोई भिन्न वस्तु हूँ विचार पूर्वक निर्णय करने से यही बात ठहरती है कि मैं नाम नहीं हूँ मुझे आज मनोहर कहते हैं परन्तु जब प्रसव हुआ या उस समय इसका नाम मनोहर नहीं था यद्यपि मैं उपस्थित था। घरवालों ने कुछ दिनों के पश्चात नामकरण किया। उन्होंने उस समय मनोहर नाम न रखकर मोहन रखा होता तो आज मोहन कहलाता और अपने को मोहन ही समझता। मैं न पूर्वजन्म में मनोहर था, था और न शरीर नाश के बाद मनोहर रहूँगा। यह तो केवल घर वालों का निर्देश किया साँकेतिक नाम है। यह नाम एक ऐसा कल्पित है कि जो चाहे जब बदला जा सकता है, और उसी में उसका अभिमान हो जाता है। जो विवेकवान् पुरुष इस रहस्य को समझ लेता है कि मैं नाम नहीं हूँ वह नाम की निन्दा-स्तुति से कदापि सुखी-दुखी नहीं होता। जब मनुष्य ‘नाम’ की निन्दातुति में सम नहीं है, निन्दा-स्तुति में सुखी-दुखी होता है तब वह नाम न होने पर भी ‘नाम’ बना। बैठा है जो सर्वथा भ्रमपूर्ण है। जो इस रहस्य को जान लेता है उसमें इस भ्रम की गन्ध मात्र भी नहीं रहती। इसीलिए भगवान कृष्ण ने गीता में तत्व-वेत्ता पुरुषों के लक्षणों को बतलाते हुए उन्हें निन्दा और स्तुति में सम बतलाया है--
‘तुल्य निन्दा स्तुतिः....................’ (गीता 12।19)
‘तुल्य निन्दात्मसंस्तुति.................’ (गीता 14।28)
फिर यह प्रसिद्ध भी है कि मनोहर मेरा नाम है ‘मैं’ मनोहर नहीं हूँ। इससे यह सिद्ध हुआ नाम ‘मैं’ नहीं हूँ।
इसी प्रकार रूप-देह भी मैं नहीं हूँ, क्योंकि देह जड़ है और मैं चेतन हूँ, देह क्षय, वृद्धि, उत्पत्ति और विनाश धर्म वाला है, मैं इनसे सर्वथा रहित हूँ। बालकपन में देह का और ही स्वरूप या और अब युवापन में दूसरा ही है तथा कुछ समय बाद वृद्धावस्था में कुछ और ही हो जायगा। किन्तु मैं तीनों अवस्थाओं को जानने वाला तीनों में एक ही हूँ। किसी पुरुष ने मुझको बाल्यावस्था में देखा था, अब वह मुझसे मिलता है तो मुझे पहचान नहीं सकता। देह का रूप बदल गया। शरीर बढ़ गया। दाढ़ी मूंछें आ गईं। इससे वह नहीं पहचानता! किन्तु मैं पहचानता हूँ मैं उससे कहता हूँ आपका शरीर युवावस्था से वृद्ध होने के कारण उसमें कम अंतर पड़ा है, इससे मैं आपको पहचानता हूँ। मैंने आपको अमुक जगह देखा था। उस समय मैं बालक था अब मेरे शरीर में बहुत परिवर्तन हो गया, अतः आप मुझे नहीं पहचान सकें। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ। ‘शरीर-मैं, ऐसा अभिमान भी पूर्वोक्त नाम के समान ही सर्वथा भ्रमपूर्ण है। जो पुरुष इस रहस्य को जानते हैं वे शरीर के मानापमान और सुख-दुःख में सर्वथा सम रहते हैं। क्योंकि वे इस बात को समझ जाते हैं कि मैं शरीर से सर्वथा पृथक हूँ।
“समः शत्रोचमित्रेच तथा मानापमानयोः।”
(गीता 1298)
“मानापमानयो स्तुल्यः” (गीता 1425)
“सम दुःख सुन्त्रः” (गीता 1428)
अतएव विचार करने से यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि यह जड़ शरीर मैं नहीं हूँ, मैं इस शरीर का ज्ञाता हूँ और प्रसिद्ध भी यही है कि शरीर ‘मेरा’ है।
मनुष्य भ्रम से ही शरीर में आत्मोभिमान करके मानापमान और सुख-दुख से सुखी-दुखी होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मैं शरीर नहीं हूँ। इसी तरह इन्द्रियाँ भी मैं नहीं हूँ। हाथ पैरों के कट जाने, आँखें नष्ट हो जाने और कानों के बहरे हो जाने पर भी मैं ज्यों का त्यों पूर्ववत रहता हूँ, मरता नहीं। यदि में इन्द्रिय होता तो उसके विनाश में मेरा विनाश होना सम्भव था। अतएव थोड़ा सा भी विचार करने पर यह प्रत्यक्ष प्रतीत है कि मैं जड़ इन्द्रिय नहीं हूँ। वरन् इन्द्रियों का दृष्टा या कर्ता हूँ।
इसी प्रकार मैं मन भी नहीं हूँ। सुपुति काल में मन नहीं रहता, परन्तु में रहता हूँ इसीलिए जागने के बाद मुझको इस बात का ज्ञान है कि मैं सुख से सोया था। मैं मन का ज्ञाता हूँ। दूसरों की दृष्टि में भी मन के अनुपस्थिति काल में (सुपुप्तिया मूर्छित अवस्था में) मेरी जीवित सत्ता प्रसिद्ध है। मन विकारी है इसमें भाँति-भाँति के संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। मन में होने वाले इन सभी संकल्प-विकल्पों का मैं ज्ञाता हूँ। खान-पान, स्नान आदि करते समय यदि मन दूसरी ओर चला जाता है तो उन कामों में कुछ भूल हो जाती है फिर सचेत होने पर मैं कहता हूँ मेरा मन दूसरी जगह चला गया था, इस कारण मुझसे भूल हो गई। क्योंकि मन के बिना केवल शरीर और इन्द्रियों से सावधानीपूर्वक काम नहीं हो सकता। अतएव मन चंचल और चल है, परन्तु मैं स्थिर और अचल हूँ। मन कहीं भी रहे, कुछ भी संकल्प-विकल्प करता रहे, मैं उसको जानता रहता हूँ, अतएव मैं मन का ज्ञाता हूँ, मन नहीं हूँ।
इसी तरह मैं बुद्धि भी नहीं हूँ क्योंकि बुद्धि भी क्षय और वृद्धि स्वभाव वाली है मैं क्षय वृद्धि से सर्वथा रहित हूँ। बुद्धि में मन्दता, तीव्रता, पवित्रता, मलिनता, विकार, व्यभिचारादि होते हैं परन्तु मैं उसकी इन सब स्थितियों को जानने वाला हूँ। मैं कहता हूँ उस समय मेरी बुद्धि ठीक नहीं थी अब ठीक है। बुद्धि कब क्या विचार रही है और क्या निर्णय कर रही है, इसको मैं जानता हूँ। बुद्धि दृश्य है मैं उसका दृष्टा हूँ। अतएव ‘बुद्धि का मुझसे पृथकन्ध सिद्ध है मैं बुद्धि नहीं हूँ।
इस प्रकार मैं नाम, रूप, देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि प्रभृति नहीं हूँ। मैं इन सबसे सर्वथा अतीत, इनसे सर्वथा पृथक, चेतन, साक्षी, सबका ज्ञाता, सत् नित्य, अविनाशी, अधिकारी, अक्रिय सनातन, अचल और समस्त दुःखों से रहित केवल शुद्ध आनन्दमय आत्मा हूँ। यही मैं हूँ। यही मेरा सच्चा स्वरूप है। क्लेश, कर्म और सम्पूर्ण पापों से विमुक्त होकर परमशान्ति और परमानन्द की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई है। इस परम शान्ति और परमानन्द को प्राप्त करना ही मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य है। मनुष्य शरीर के बिना अन्य किसी भी देह में इसकी प्राप्ति संभव नहीं है। इस स्थिति की प्राप्ति तत्वज्ञान से होती है, और वह तत्वज्ञान विवेक, वैराग्य, विचार, सदाचार और सद्गुण आदि के सेवन से होता है। और इन सबका होना इस घोर कलिकाल में ईश्वर की दया के बिना सम्भव नहीं। यद्यपि ईश्वर की दया संपूर्ण जीवों पर पूर्णरूप से सदा-सर्वदा है किन्तु बिना उनकी शरण हुए उस दया के रहस्य को मनुष्य समझ नहीं सकता। एवं दया के तत्व को समझे बिना उस दया के द्वारा होने वाले लाभ को वह नहीं कर सकता।
अतएव तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रकार से ईश्वर के शरण होकर उनकी दया रहस्य को समझ कर उससे पूर्ण लाभ उठाना चाहिए। ईश्वर की शरण से ही हमें परम शाँति मिल सकती है। भगवान कृष्ण कहते हैं--
तमेवशरणं गच्छ सर्व भावेन भारत।
तत्प्रसादात्पराँ शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतः॥
(गीता 18/62)
“हे भारत! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा।”
जब यह मनुष्य परमेश्वर के शरण होगा। परमेश्वर के तत्व को जान जाता है, तब उस परमेश्वर की कृपा से अज्ञान नाश होकर वह परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है। जैसे निद्रा नाश से मनुष्य जागृति को, दर्पण के नाश से प्रतिबिम्ब को, तथा घट के फूटने से घटाकाश महाकाश को प्राप्त हो जाता है, इसी प्रकार अज्ञान के नाश से यह जीवात्मा, विज्ञानान्दघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जब यह साधन, नाम, रूप, देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से अपने को सर्वथा पृथक समझ लेता है, तब यह ईश्वर के शरण होकर ईश्वर की कृपा से, देहादि संबंध से होने वाले समस्त क्लेशों और पापों से सदा के लिए सर्वथा मुक्त हो जाता है, एवं विज्ञानानन्द घन परमात्मा का सनातन अंश होने के कारण सदा के लिए उस विज्ञानानन्द घन प्रभु को प्राप्त हो जाता है। प्रभु को प्राप्त करने के लिए अनन्य भाव से इस प्रकार यत्न करना और प्रभु को प्राप्त हो जाना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है।