वैदर्भ जातक की कथा।

March 1950

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(अनु. -श्री भदन्त आनन्द कौसल्यायन)

पूर्व समय में वाराणसी में (राजा) ब्रह्मदत्त के राज्य करने के समय, एक गाँव में एक ब्राह्मण वैदर्भ नामक मन्त्र जानता था। वह मन्त्र बेशकीमती था, महा मूल्यवान् था। नक्षत्रों का योग होने पर, उस मन्त्र को जपकर, आकाश की ओर देखने से सात रत्नों की वर्षा होती थी। उस समय बोधिसत्व उस ब्राह्मण के पास विद्या सीखते थे। सो एक दिन वह ब्राह्मण किसी भी काम से, बोधिसत्व को (साथ) लेकर, अपने ग्राम से निकल चेतिय राष्ट्र (की ओर) गया। रास्ते में, एक जंगल की जगह में, पाँच सौ पेसनक चोर मुसाफिरों पर डाका डालते थे। उन्होंने बोधिसत्व और वैदर्भ ब्राह्मण को पकड़ लिया। ये चोर, ‘पेसनक चोर’ क्यों कहा थे? वे दो जनों को पकड़कर, उनमें से एक धन लाने के लिए भेजते थे, इसलिए पेस (=प्रेषनक=भेजने वाले) चोर कहलाते थे। वे, पिता-पुत्र को पकड़कर, पिता को कहते हमारे लिए धन लाकर, पुत्र को ले जाना, इस प्रकार माँ-बेटी को पकड़ कर, माँ को भेजते। ज्येष्ठ-कनिष्ठ भाइयों को पकड़कर ज्येष्ठ भाई भेजते (और) गुरु-शिष्य को पकड़कर शिष्य को भेजते। सो, उस समय भी, उन्होंने ब्राह्मण को पकड़े रखकर, बोधिसत्व को भेजा।

बोधिसत्व ने आचार्य का प्रणाम कर कहा ‘मैं एक-दो दिन में आ जाऊँगा। आप डरिये नहीं। और मेरा कहना करना। आज धन बरसने का नक्षत्र-योग होगा। आज दुःख को न सह सकने के कारण, मन्त्र का जाप कर, धन मत बरसाना। यदि बरसाइयेगा, तो आप और ये पाँच सौ चोर-सभी-नाश को प्राप्त होंगे।’ इस प्रकार आचार्य को सलाह देकर, वे धन लाने के लिए चले गए। चारों ने सूर्यास्त होने पर ब्राह्मण को बाँधकर लिटा दिया। उसी समय पूर्व दिशा की ओर से परिपूर्ण चन्द्रमण्डल उगा। ब्राह्मण ने तारों की ओर देखते हुए धन बरसाने के नक्षत्र-योग को देख, सोचा-- “मैं किसलिए दुःख सहन करूं? क्यों न मन्त्र का जाप करूं और रत्नों की वर्षा बरसाकर चोरों को धन देकर, सुखपूर्वक चला जाऊं।” उसने चोरों को सम्बोधित किया--चोरों ! तुमने मुझे किस लिए पकड़ रखा है?’

आर्य ! धन के लिए।”यदि धन की आवश्यकता है, तो शीघ्र ही मुझे बन्धन से खोल, सिर से नहला, नवीन वस्त्र पहना, सुगन्धियों का लेप कर, फूल-मालायें पहनाकर, बिठाओ।’ चोरों ने उसकी बात सुन, वैसा ही किया।

ब्राह्मण ने नक्षत्र-योग जान, मन्त्र जाप कर आकाश की ओर देखा। उसी समय आकाश से धन गिरे। चोर उस धन को इकट्ठा कर, (अपने-अपने) उत्तरीय में गठरी बाँध, चल दिये। ब्राह्मण भी इनके पीछे ही पीछे गया। तब उन चोरों को दूसरे पाँच सौ चोरों ने पकड़ लिया।

‘हम पर किस लिए हमला करते हो?’ पूछने पर, उत्तर मिला, ‘धन के लिए पकड़ा है।’ ‘यदि धन की आवश्यकता है, तो इस ब्राह्मण को पकड़ो। यह, आकाश की ओर देखकर धन बरसावेगा। हमें यह धन इसी ने दिया है।’

चोरों ने उन चोरों को छोड़कर ब्राह्मण को पकड़ा और कहा--’हमें भी धन दो।’ ‘मैं तुम्हें धन दूँ, लेकिन धन बरसाने का नक्षत्र-योग (अब) एक वर्ष बाद होगा। यदि धन से मतलब है, तो सब्र करो, मैं तब धन की वर्षा बरसाऊंगा।’ चोरों ने क्रुद्ध होकर, अरे ! दुष्ट ब्राह्मण! औरों के लिए अभी धन वर्षा कर, हमें अगले वर्ष तक प्रतीक्षा कराता है वह (वहीं) तेज तलवार से ब्राह्मण के दो टुकड़े कर (उसे) रास्ते पर डाल दिया। (फिर) जल्दी से उन चोरों का पीछा कर, उनके साथ युद्ध किया और उन सबको मारकर धन ले फिर (आपस में) दो हिस्से हो, एक दूसरे से युद्ध किया और ढाई सौ जनों को मारा। इस प्रकार जब तक (केवल) दो जने बाकी रह गए, तब तक एक दूसरे को मारते रहे।

इस प्रकार उन (एक) सहस्र आदमियों के विनष्ट होने पर, उन दोनों जनों ने उपाय से धन को लाकर, एक ग्राम के समीप, जंगल में छिपाया। (उन दोनों में से) एक खड्ग लेकर धन की हिफाजत करने लगा। दूसरा, चावल लेकर, भात पकवाने के लिए गाँव में गया। लोभ-विनाश का मूल ही है। धन के पास बैठे हुए ने सोचा-- ‘उसके आने पर धन के दो हिस्से करने होंगे। क्यों न मैं, उसे आते ही खड्ग के प्रहार से मार दूँ।’ सो वह खड्ग को तैयार कर और उसके आने की प्रतीक्षा करने लगा। दूसरे ने भी सोचा- ‘उस धन के दो हिस्से (करने) होंगे। सो, मैं, भात में विष मिलाकर, उस आदमी को खिलाऊँ इस प्रकार उसका प्राण नाश कर, सारे धन को अकेला ही ले लूँ।’ उसने भात के तैयार हो जाने पर, अपने खा, शेष भात में विष मिला, (उसे) लेकर वहाँ गया। उसके भात उतारकर रखते ही, दूसरे ने खड्ग से दो टुकड़े करके, उसे छिपी जगह में छोड़, अपने भी उस भात को खा, वहीं प्राण गंवाये।

इस प्रकार उस धन के कारण सभी विनाश को प्राप्त हुए। बोधिसत्व भी एक दिन में धन लेकर (आचार्य को छुड़ाने) आ गये। (उन्होंने) वहाँ आचार्य को न पा, और बिखरे धन को देख (सोचा)-- ‘आचार्य ने मेरी बात न मान धन बरसाया होगा। और सब विनाश को प्राप्त हुए होंगे।’ (यह सोच) महा-मार्ग से चले। चलते-चलते आचार्य को, सड़क पर दो टुकड़े हुए पड़ा देख, ‘मेरा कहना न मानकर मग‘ (सोच) लकड़ियाँ, चुन, चिता बना, आचार्य का दाह-कर्म किया और उसे वन-पुष्पों से पूजा। आगे चलकर, पाँच सौ मरे हुए, उससे आगे ढाई सौ, इसी प्रकार क्रम से आखिर में दो जनों को मरा देखकर, सोचा -- ‘यह दो कम एक हजार (जने) विनाश को प्राप्त हुए। दूसरे दो जने (भी) चोर होंगे, और वे भी ! संभल न सके होंगे। वे कहाँ गये?’ सोचते हुए उनके धन लेकर जंगल में घूमने के मार्ग को देख, जाकर, गठरी बंधी धन की राशि को देखा। वहाँ एक को भात की थाली को परोसकर, मरा पाया। जब उन्होंने ‘यह किया होगा’-- यह सब जान, ‘वह (दूसरा) आदमी कहाँ है?’ सोचते हुए उसे भी जंगल में फेंका हुआ देख, सोचा हमारे आचार्य ने मेरी बात न मान, असामयिक वचन के कारण, अपने भी प्राण गंवाये, और दूसरे हजार जनों का भी नाश किया। अयोग्य मार्ग में अपनी उन्नति चाहने वाला हमारे आचार्य की तरह महाविनाश को ही प्राप्त होता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: