उपवास द्वारा स्वास्थ्य रक्षा और देशभक्ति।

March 1950

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(श्री अवधबिहारीलाल वानप्रस्थी, लखनऊ)

आज हमारे देश की सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण समस्या है अन्न की कमी। इस कमी को दूर करने के लिए हमारी राष्ट्रीय सरकार को विदेश से करोड़ों रुपये का अनाज मंगाना पड़ता है जिससे अन्य उपयोगी कार्यों में लगाने के लिए रुपया नहीं बच पाता। अतः यदि कोई ऐसा उपाय निकाला जाय जिससे यह रुपया भी बचे, अनाज की भी आवश्यकता न पड़े और जनता का स्वास्थ्य भी सुधरे तो अवश्य ही ऐसे उपाय की ओर हमारी सरकार और जनता का ध्यान जाना चाहिए।

आज वास्तव में स्वास्थ्य, रोग और शरीर की क्रिया-शक्ति के सम्बन्ध में भ्रम फैला हुआ है। सबने प्रायः माँसल या थल-थल शरीर को ही स्वस्थ शरीर मान लिया है। रोग को हम एक ऐसी भयंकर विभीषिका मान बैठे हैं जिसके चिन्हों को शीघ्र से शीघ्र दवा देने में ही हम ऋण मानते हैं। अतः नई-नई दवाइयों और इन्जेक्शनों से बाजार भरा पड़ा है। शरीर की क्रिया-शक्ति को हम भोजन द्वारा प्राप्त शक्ति ही समझ बैठे हैं। परिणाम यह हुआ है कि हम कहने और सोचने लगे हैं। “अधिक भोजन तो अधिक काम।” परन्तु इससे अधिक भयंकर व हानिकर मिथ्या धारणा और दूसरी न होगी। प्राकृतिक चिकित्सा और उपवास के इतिहास से जो व्यक्ति थोड़ा बहुत भी परिचित है, वे जानते हैं कि केवल पानी पीकर पूरे दिन का उपवास करने वाले एक अमेरिकन नागरिक ने उसी बीच में वाशिंगटन से शिकागो नगर की सैकड़ों मील की दूरी को पैदल पार किया और वो भी मुस्कराते हुए, अत्यन्त प्रसन्नता पूर्ण मन से। महात्मा गाँधी के उन अनेक उपवासों की बात सर्वविदित है। जिनके बाद सदैव उन्हें अपूर्व आत्म-शक्ति व क्रियाशक्ति प्राप्त होती रहती थी। यदि भोजन ही क्रिया शक्ति की दाता है, तो हमारे ऋषियों और उनकी परम्परा का अनुसरण करने वाले इस युग के भी अनेक महापुरुषों की अथक क्रियाशीलता और सूक्ष्म-सात्विक आहार के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जायेगा? केवल आत्मिक शक्ति का चमत्कार कहकर इसे युग-युगों से सिद्ध सत्य की इस “युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु” के गीतोक्त सिद्धाँत की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हमें इसको समझना होगा। तभी हमारा शरीर ठीक स्वास्थ्य को और हमारा मन सही चेतना को प्राप्त कर सकेंगे।

वास्तव में ‘युक्ताहार, क्या है? किसी ने ठीक ही लिखा है कि यदि हम उचित ढंग से उचित मात्रा में, उचित वस्तुओं को न खायें, तो वह खाना स्वयं हमें ही खाने लगता है। वह उचित ढंग क्या है? इसे ही हमें खोजना है। वास्तव में देखा यह गया है कि जैसे ही आहार पेट में पहुँचता है, एक बहुत ही शक्ति का व्यय करने वाली पाचन-क्रिया का आरम्भ हो जाता है। परिणाम यह होता है कि जो शक्ति अभी तक हमारे अंग-प्रत्यंग में परिव्याप्त होकर शरीर का संचालन कर रही थी, वह सिमट-सिकुड़ कर पाचन-क्रिया में लग जाती है। अब प्रश्न केवल यह रह जाता है कि क्या हम शक्ति के उपयोग से केवल यह समझते हैं कि वह पाचन-क्रिया में लगे, या यह कि अन्य गंभीर, जीवन निर्माणकारी कार्यों में लगे? यदि हम धनात्मक, सरलता से पचने वाले, थोड़ी मात्रा में होने पर भी अधिक रसों को देने वाले, फल शाकादि को पेट में पहुँचायेंगे, और उन्हें भी भूख लगने पर ही समुचित मात्रा में खायेंगे, और ऐसे समय में इनका सेवन करेंगे जब हमारे अंदर एकत्र शक्ति का प्राण-शक्ति को अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर इनके पचाने के लिए न दौड़ आना पड़े, तभी भोजन अपना ठीक कार्य शरीर में पहुँच कर करेगा और तभी हम पूर्ण स्वस्थ, प्रसन्न और क्रियाशील रह सकेंगे। जिस अनुपात में हम उक्त नियम से दूर जा पड़ेंगे उसी अनुपात में हमारा स्वास्थ्य डाँवाडोल होगा, हमारी सभी प्रसन्नता का स्थान अवसाद आलस्य और उदासीनता ले लेगी और हमारी क्रियाशक्ति क्षीण से क्षीणतर होती जायेगी। यही नहीं हम, उन अनेक रोगों के शिकार बड़ी सरलता से बन जायेंगे, जो इस ताक में हमारे चारों ओर दुबके रहते हैं कि कब हम अशक्त हों और कब वे हमें अपने चंगुल में दबोच लें।

ऊपर मैंने कहा- “कब हम अशक्त हों... और यह भी कि भोजन का शक्ति से सम्बन्ध है तो यही कि हम भोजन को खाते हैं और भोजन हमारी शक्ति को खाता है। यह संबंध विचित्र हो सकता है, पर सत्य यही है। और यह भी सत्य है कि रोग हमारी शक्ति को खाते हैं। शक्ति के अन्य भोक्ताओं में हमारे दैनिक कार्य भी हैं। हमारे दफ्तर, हमारे खेत, खलिहान, हमारे कल, कारखाने सभी हमारी शक्ति की माँग करते हैं-सभी को शक्ति की अत्यंत भूख है। अतः निष्कर्ष यह निकला कि यदि हमें जीवन मिला है, यदि जीवन का कोई उद्देश्य रखना है यदि उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना है, यदि उस प्रयत्न की सफलता के लिए शरीर, मन और प्राणों को स्वस्थ, प्रसन्न और क्रियाशील रखना है तो हमारे अंदर शक्ति का एक ऐसा कोष संचित होना चाहिए जिसका उपयोग हम हर समय, हर परिस्थिति में हम आकस्मिक अवसर पर कर सकें। यों सामान्यतः यह कोष व्यय न किया जाय। यह हमारे बैंक-बैलेन्स के समान हो जिसका उपयोग केवल अत्यावश्यकता होने पर ही होता है परन्तु रोग आने पर उसकी जड़ मूल से काट फेंकने में, आलस्य मार्ग पर उसका अदभ्य क्रियाशीलता द्वारा परास्त करने में, न्याय और बलिदान का अवसर आने पर प्राणों की संपूर्ण चेतना को उस दिशा की ओर उन्मुख करने में हम संचित प्राणशक्ति का उपयोग कर सकें यह प्रयत्न हमें अवश्य करना ही चाहिए।

यह कोरा सिद्धाँत ही नहीं। विश्व में इस प्रकार के प्रयोग पहले भी हो चुके हैं और आज भी हो रहे हैं। वास्तव में यदि हम यह आधारभूत सिद्धाँत समझ लें कि भोजन का कार्य शरीर को किसी प्रकार की शक्ति देना न होकर केवल शरीर के क्षत-अंश की पूर्ति करना मात्र है तो शक्ति-संयम का मार्ग स्पष्ट व सरल दिखाई देने लगेगा। पार्थिव शरीर की चिन्ता में अत्यधिक व्यस्त हो जाने से हम आत्मिक शक्तियों चेतनाओं और प्रेरणाओं की ओर देख तक नहीं पाते। पर यदि देख पायें तो हमें मालूम होगा कि शरीर को आज हमने जो महत्व दे रखा है, उसी से हमारा संपूर्ण जीवन और युग भी घोर असमंजस और परेशानियों से घिर रहा है। शरीर को उसका प्राप्य देते हुए जब हम मन और मन से ऊपर उससे भी परे, आत्मा की ओर झाँकेंगे तब हमें ज्ञान होगा कि अखण्ड शक्ति, अटूट प्राण का स्त्रोत तो वही है। उसी स्त्रोत से प्राप्त प्राण मन और शरीर के स्वस्थ रखने, क्रियाशील बनाने और उन्हें उचित दिशा की ओर ले जाने का कार्य आत्मा कर रहा है। इस प्राण का, इस चेतना का, जितना गहरा अनुभव होता जायगा, आप नई और चमत्कारी शक्तियों के कोष बनते जायेंगे। प्राण-शक्ति का यही चमत्कार हम एक शिशु के जीवन में प्रतिक्षण देखते हैं। बच्चे का आहार कितना सूक्ष्म और स्वाभाविक है किन्तु उसके जीवन में कितनी निश्चिन्तता, कितना उल्लास, कितनी कौतूहलप्रियता, कितनी सहनशीलता होती है? शैशव के समस्त उल्लास, आनन्द और निश्चिन्तता को प्राप्त करके आप भी शाँत स्वस्थ और सुँदर जीवन व्यतीत कर सकते हैं यदि आप आज से, इसी क्षण से, निश्चय कर लें कि जीवन में महत्व भोजन का नहीं प्राणशक्ति का है और प्राण शक्ति का स्त्रोत भोजन नहीं, आत्म-तत्व का चिन्तन है।

यदि आपने प्राण शक्ति के संचय का महत्व भली भाँति समझ लिया तो उपवास आपके लिए कष्ट और पीड़ा न रह कर जीवन निर्माण का सबसे सस्ता, सरल और शान्तिदेय साधन बन जायगा। और अन्न-संग्रह या अन्न बचाव आँदोलन के आप सबसे अधिक प्रचारक और भक्त बन जायेंगे। उपवास से, चाहे वह वर्ष में पाँच दिन का हो या घंटे का, आप न केवल अन्न बचायेंगे, बल्कि उस प्राण शक्ति की भी रक्षा करेंगे जो आपको कहीं बाहर से नहीं लानी बल्कि जो प्रतिक्षण उपस्थित है, भले ही आपकी उसकी उपस्थित की चेतना न हो। कोई भी शारीरिक शिथिलता रोगादि होते ही उपवास भूख लगने पर ही भोजन, नाश्ते का परित्याग चबाकर भोजन करना, एक समय एक ही प्रकार का भोजन करना, मिर्च-मसाले का परित्याग संयम व्रत का अधिकाधिक पालन, हरे व कच्चे भोज्य पदार्थों की मात्रा की भोजन में अधिकता दिन में केवल एक ही पूरा भोजन, ये कुछ ऐसे नियम हैं जिनका पालन करने से प्राणशक्ति का संचय खूब ही होता जायेगा। यह संचय हो जाने पर और आपके द्वारा उस पर स्वामित्व हो जाने पर न आपको भोजन खा सकेगा, न रोग, न आलस्य, न निद्रा, न भय।

संसार में सबसे अधिक रोग अधिक भोजन करने से होते हैं। यदि मनुष्य सप्ताह में एक और केवल एक समय भोजन न करे तो सप्ताह भर की खराबी दूर हो जाती है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है।

उपवास की महिमा तो महात्मा गाँधी अपने जीवन भर स्वयं करके बतलाते रहे और इसी उपवास की बदौलत उन्होंने देश और जाति को समय-समय पर कैसी-कैसी आपत्तियों से बचाया, उसे यहाँ पर दुहराने की आवश्यकता नहीं है। उसी उपवास के शस्त्र को लेकर इस मिली हुई स्वतन्त्रता की जड़ को दृढ़ कर दीजिए और अपने देश के इस आर्थिक संकट को हल कीजिए जिससे आप 1951 के अंत तक भोजन के विषय में आत्मनिर्भर हो जावें। जो करोड़ों रुपया अन्न मंगवाने के लिए बाहर जाता है वह बचेगा और देश के दूसरी उन्नति के कामों में लगेगा। अन्न बरबाद न करना आदि उद्देश्यों को लेकर हम काम करेंगे तो अपने देश को अन्न और धन से भर देंगे।

स्वयं भारतवर्ष का कौन सा ऐसा मनुष्य है जो उपवास की उपयोगिता को नहीं जानता? मुसलमान 30 रोजे धर्म समझ कर रखते हैं तो उनका शरीर साल भर के लिए निरोग हो जाता है। साल भर बाद फिर रोजों का समय आ जाता है। उसी प्रकार करोड़ों हिंदू मातायें सैकड़ों प्रकार के उपवास रखती हैं और उन्हीं के कारण अनेक रोगों से बची रहती हैं। आप लोग धार्मिक उपवास चाहे जिस विचार से रखते हों। इन स्वास्थ्य सुधार के उपवासों से निम्नलिखित लाभ होंगे।

1. बहुत बड़ी आर्थिक सहायता।

2. देश के लोगों के स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन।

3. देश और जाति को अन्न का उचित उपयोग और बरबाद न करने के नियमों की सीख।

4. उपवास से बढ़कर इन्द्रियों को वश में रखने का कोई साधन नहीं है।

इस प्रकार के कम से कम स्वास्थ्य सुधारक उपवास साल में केवल 5 होंगे।

1. 30 जनवरी महात्मा गाँधी का बलिदान दिवस।

2. 26 जनवरी भारत राष्ट्र नव-विधान दिवस।

3. 15 अगस्त स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष्य में।

4. 13 अप्रैल जलिया वाला बाग की स्मृति में।

5. अप्रैल का अन्तिम शुक्रवार या इस बार पंजाब मार्शल लॉ दिवस। यथार्थ में स्वास्थ्य सुधारक उपवास साल में 52 होंगे। अर्थात् प्रत्येक सप्ताह में केवल एक समय का भोजन न करना।

भारतवर्ष की जनसंख्या 40 करोड़ थी। पाकिस्तान बन जाने के कारण अब वह 35 करोड़ रह गई है। इसमें 8 करोड़ नागरिक और 27 करोड़ ग्रामीण कुल जनसंख्या का चौथाई बच्चे हैं अर्थात् 14 करोड़ हुए। बाकी 21 करोड़ रहे। उनमें भी एक करोड़ बूढ़े आदमी और औरतें निकाल डालिए तो 20 करोड़ बाकी रहे अर्थात् 4 करोड़ शहरी और 16 करोड़ देहाती जो स्वास्थ्य सुधारक उपवास रख सकते हैं। भली प्रकार अनुमान किया जा सकता है कि यदि इतने व्यक्ति नियमित रूप से उक्त दोनों प्रकार के उपवास आरम्भ कर दें तो इतने अधिक धन व अन्न की बचत हो जायेगी कि देशव्यापी अन्न संकट सहज ही निराकरण हो जायगा। उपवास की यह योजना कार्यान्वित करना स्वास्थ्य रक्षा का एक उत्तम साधन और आज की स्थिति में उत्कृष्ट देशभक्ति का कार्य होगा।


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