(श्री विनोद रस्तोगी)
गीत का सृष्टा स्वयं मैं गान लेकर क्या करूंगा?
मैं स्वयं आराध्य, क्या मुझको किसी आराधना से?
साध्य क्यों साधक बने? क्या कार्य मुझको साधना से?
केन्द्र मैं, गति का, नियति का, क्यों किसी को सिर नवाऊं?
पूजिनों का पूज्य मैं, पाषाण लेकर क्या करूंगा? गान
नीर सागर का मथा, विष भी मिला, पाई सुधा भी !
अमृत लोभी, तम, गरल में नीलकंठ सदृश गया पी!!
तुम अचिर, मैं चिर हुआ, विषश्रमृत, अमृत हुआ गरल सा-
मर्त्य से अमरत्व का वरदान लेकर क्या करूंगा? गान?
मैं नियति-नाय किया संकेत जलते चाँद तारे!
मंत्र-बल से सृष्टि के गतिशील चलते कार्य सारे!!
मैं मनुज, देवत्व पद व्यर्थ है मनुज्ञत्व पाकर--
भक्त क्षितिका, क्षितिज का भगवान लेकर क्या करूंगा?
गीत का सृष्टा स्वयं मैं गान लेकर क्या करूंगा?