भक्तियोग का तत्वज्ञान।

March 1950

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भक्ति का मूलरूप मज् है जिसका अर्थ सेवा करना होता है। सेवा के दो हेतु होते हैं - अनिष्ट विनाश और इष्ट प्राप्ति

इष्ट भी दो प्रकार का होता है-श्रेयस्कर तथा प्रेयस्कर। प्रियत्व तो हो पर श्रेयस्कर न हो ऐसा इष्ट स्वार्थ कहलाता है। श्रेयस्कर होने पर आरम्भ में ऐसा संभव हो सकता है कि वह प्रिय न हो, भक्तियोगी उसे प्रिय बनाकर अपनी साधना आरंभ करता है। कल्याणकारी लक्ष्य को अपना इष्ट बनाकर उसमें प्रियत्व का रस घोल देना भक्ति की यही साधना है।

योग का सीधा-सादा अर्थ है - मिलना । लक्ष्य के साथ पक्य सम्बन्ध स्थापित करना तथा उसे सघन बना देना।

भक्तियोग के तीन पहलू होते हैं? 1-ज्ञान मूलक, 2-स्वार्थ मूलक तथा 3-इन दोनों में भिन्न-अन्य भक्ति। इनमें से हमारे बाप दादा मानते आये है, हमारे कुटुम्ब में प्रचलित है इसलिए इसे भी माननी है। इसमें एक मात्र जड़ता का ही निवास रहता है। इसलिए वह रूढ़ि मात्र रह जाती है। ऐसी भक्ति में दृढ़ता ही ग्रहण करने योग्य है। शेष को सम्पूर्ण रूप से बदलने की आवश्यकता है यह परिवर्तन ज्ञान के द्वारा होता है। जब तक इसमें ज्ञान का प्रवेश न कराया जावेगा तब तक भक्ति होते हुए भी अन्धी होने के कारण वह अधिक से अधिक अनर्थ को भी उत्पन्न कर सकेगी।

स्वार्थमूलक भक्ति भयात्मक होती है। यह दो प्रकार की होती है - अनिष्ट निवारक तथा इष्ट कारक। मान लो किसी ग्रह की कुदृष्टि है उसे कुदृष्टि से दुःख है, परेशानियाँ हैं, अभाव हैं और भी अनेक प्रकार की हानियाँ होती हैं। इन सबसे बचने के लिए उस ग्रह की पूजा की जाती है।

इष्ट कारक भक्ति में हमें जो चाहिए- धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य वैभव, मान, प्रतिष्ठा अथवा और कुछ उसकी प्राप्ति के लिए किसी की पूजा करना अथवा वह नाराज होकर किसी आपत्ति को न भेज दे इसलिए उसको सन्तुष्ट करने के लिए किया गया व्यवहार। ऐसा व्यवहार भय के कारण भी होता है। अफसर और मातहतों के बीच में इस व्यवहार को देखा जा सकता है। आजकल के शिष्टाचार में भी इसका विराट रूप देखने को मिल सकता है। मिथ्या प्रशंसा द्वारा भी इष्ट प्राप्ति की ओर बढ़ते हैं और इसलिए भी भक्ति के दृश्य दिखलाई देते हैं। इसमें असलियत कम और नकलियत अधिक देखने को मिलती है। कभी यह भक्ति आत्मप्रवंचना के रूप में भी देखने को मिलती है। परन्तु इस प्रकार की भक्ति मनुष्य को निरन्तर अशक्त करती जाती है।

स्वार्थमूलक इस भक्ति में देवी और मानवी दो रूप और हो सकते हैं। अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए देवता की उपासना करना देवी भक्ति कहलाती है और मनुष्य की उपासना करना मानवीय भक्ति कहलाती है।

एक बात और है। ज्ञान-विज्ञान आदि तत्वों की प्राप्ति के लिए अथवा इनके साधनभूत अन्य तत्वों की प्राप्ति के लिए भक्ति की जाती है, वह यदि मनुष्य के आत्म कल्याण की इच्छा से किए गए हों तो वे मनुष्य की भक्ति के रूप में किये जाने पर भी दैवी भक्ति में गिने जा सकते हैं। परन्तु भोगोपभोग की सामग्री प्राप्ति के लिए दिए गए साधन जिनसे आत्म कल्याण की संभावना नहीं रहती मानवी भक्ति में ही शुमार किए जाते हैं। मानव कल्याण और दिव्यता प्राप्ति ये दोनों एक ही तत्व हैं। मानव का कल्याण तभी हो सकता है जब कि वह इन भौतिक तत्वों की गुलामी से छूट जावे। इनसे मुक्ति पाना ही उसका परम स्वार्थ है। इसी को परमार्थ कहते हैं। परन्तु भौतिक साधनों को प्राप्त करने करने के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं वे सभी परम स्वार्थ के विरोधी होते हैं क्योंकि उनसे भौतिक तत्वों की गुलामी दिन प्रति-दिन बढ़ती ही है।

भज् धातु से भजन करने का जो अर्थ निकलता है वह इस बात की सूचना देता है कि आदमी भजन करते करते वही हो जाता है जिसका कि वह चिन्तन करता है। जिस समय वह भौतिक पदार्थों का चिन्तन करता है उस समय उसके सामने भोग पदार्थों का ही विचार रहता है और उसमें भोग भावना ही काम करती रहती है। इसलिए भोग भावनायुक्त होकर जब वह उसकी भक्ति में तल्लीन होता है तो मनुष्य के लिए वही लक्ष्य बन जाता है। लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए चिन्तन की सघनता के कारण वह साधक स्वयं ही माँग पदार्थों का भोग पदार्थ बन जाता है। इसलिए उनके चक्कर से मुक्ति पाने की अपेक्षा वह उनमें अधिक से अधिक फंसता हुआ चला जाता है। इसलिए गुलामी से मुक्ति न मिलकर उसकी जंजीरें अधिक कस जाती हैं।

संज्ञान भक्ति का दृष्टिकोण भिन्न होता है। वह इस सम्पूर्ण रहस्य को समझ कर आगे बढ़ता है। हो सकता है कि देखने में दोनों एक ही तरह चल रहे हों लेकिन साधक की भावना में भिन्नता होने के कारण दोनों के फल भिन्न-भिन्न ही होते हैं।

सज्ञानी की भक्ति में स्वार्थ नहीं, परम स्वार्थ रहता है। वह दुनिया की सब वस्तुएं चाहता है। वह तो सब वस्तुओं की जड़रूप जो भगवान हैं उन्हें ही चाहता है। भगवान यदि मिल जावें या साधना करते-करते वह स्वयं भगवान बन जाये तो उसे जीवनोपयोगी साधन सामग्री की अलग साधना करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। और उस समय वह साधक उन पदार्थों की परतन्त्रता में नहीं आता क्योंकि तब वह उन सबके उत्पादक भगवान को प्राप्त कर लेने या आत्मसात् हो जाने के कारण वह उनका सृष्टा तथा उपभोक्ता दोनों ही हो जाता है।

ज्ञान भक्ति मनुष्यों में भी स्थापित की जाती है। आत्म-कल्याण की भावना से जो व्यक्ति अधिक साधन सम्पन्न होता है, उसका शिष्यत्व स्वीकार करके भी यह साधना आरम्भ होती है। इसलिए गुरु भक्ति का यह रूप ग्रहण कर लेती है। परन्तु जैसा कि बताया गया है यह गुरुभक्ति अन्य विश्वास के रूप में भी होती पाई गई है। भक्ति के लिए जहाँ यात्रा पात्र या योग्य अयोग्य की पहचान या भावना रहती है वहाँ अन्धविश्वास नहीं पनपता। अयोग्य की भक्ति सिर्फ इसलिए करने से कि यह हमारे कुल में चली आई है, अन्धविश्वास होने के कारण बड़ा दुखद होती है। परन्तु अन्ध विश्वास की दृढ़ता में यदि ज्ञान का पुट मिल जाए और वह गुरु की योग्यता तथा अयोग्यता का ज्ञान करके तब यदि वह अपने उपयुक्त हो तो उसका शिष्यत्व स्वीकार करे तब ही वह अपनी साधन शक्ति से शिष्य का कल्याण कर सकता है अन्यथा गोस्वामी तुलसीदास जी शब्दों में ऐसे गुरु जहाँ अपना विनाश करते हैं वहाँ शिष्य को भी ले डूबते हैं।

गुरु शिष्य बधिर अंध कर लेखा। एक सुनहि एक नहिं देखा॥ हरहिं शिष्य धन, शोक न हरहीं। ते गुरु घोर नरक मँह परहीं॥

भजन करने में या भक्ति में अपने आपको जिसकी भक्ति या भजन किया जाता है उसके प्रति समर्पित करना होता है। जब तक समर्पण नहीं होता तब तक भक्ति में एकाग्रता नहीं आती और एकाग्रता के बिना योग सिद्ध नहीं होता। फल की प्राप्ति नहीं होती। ज्ञानी भक्त समर्पण के पूर्व यह जानता है कि जिसको वह आत्म समर्पण कर रहा है वह उसकी नाव को पार लगा भी देगा या नहीं। उनके गुण अवगुणों की खोजबीन करके तब आगे कदम रखता है। गुणों व कारण जो उनकी प्राप्ति के लिए आत्म समर्पण करता है वह उनकी शक्ति या गुणों को अपने भीतर बुलाने और बसा लेने की तैयारी किए रहता है इसलिए आत्म समर्पण करने के साथ जिसकी भक्ति की जाती है उसकी शक्तियाँ या गुण साधना आरम्भ होते ही साधक के अन्त में प्रवेश करना तथा स्थित होना आरम्भ कर देते हैं। लेकिन जहाँ भक्ति तो होती है परन्तु या तो साधक के अनुकूल जिसकी भक्ति की जाती है उसमें गुण या शक्ति नहीं होती तो उसके अंदर उन गुण और शक्तियों का ही प्रवेश होना आरम्भ होता है जो कि जिसकी साधना की जाती है, उसमें होती है। इसलिए अंधविश्वास अयोग्य के साथ सम्बंध स्थापित कर पतन के मार्ग पर ही अग्रसर होते हैं। पर ज्ञानी जीवन भर अपने विश्वास को लेकर योग्य पात्र के साथ जब संबंध स्थापित करता है तब निरंतर प्रगति करता जाता है।

आत्म समर्पण में लेना और धारण करना ये दोनों ही क्रियायें होती हैं। लेने की योग्यता देखकर जिसकी भक्ति की जाती है वह अपनी शक्तियों को शिष्य के अंतर में प्रवाहित करना आरंभ कर देता है यदि न भी करे तो भी सजातीय अकर्षण के कारण वे दौड़-दौड़ कर उसके अन्तर में प्रविष्ट एवं स्थिर होना आरंभ कर देती हैं। इसलिए भक्त को अपना अन्तर जान लेने की सबल माँग तथा आगत शक्तियों को रोके रखने-या बसा लेने की दृढ़ इच्छा को जगाये रखने की आवश्यकता होती है। ज्ञान में जितनी तीव्रता होती है, साधना में उतनी ही सरलता आती है और सिद्धि में उतनी ही दृढ़ता आती है।

किसी भी योग की साधना की जावे जब तक मनुष्य को सिद्धि नहीं मिल जाती तब तक उसे कष्ट सहने पड़ते हैं। पर साधक जब ज्ञानपूर्वक भक्तियोग की साधना में दत्तचित्त हो जाता है तब उन कष्टों की ओर से उसका मन ऊपर उठ जाने के कारण कष्टों का उसे अनुभव नहीं होता। सिद्धि की आरंभिक अवस्था का श्री गणेश यहीं से होता है। इसलिए भक्ति योग की साधना का आरंभ तभी से समझना चाहिए जब से उसमें कष्ट सहिष्णुता बढ़ती जावे। लक्ष्य की ओर मन लग जाने से वासनायें भी अपना घर नहीं बना पातीं इसलिए आरंभ से ही मनुष्य की निवृत्ति दुर्वासनाओं से होने लगती हैं। दुर्वासनाओं की निवृत्ति शान्ति का सृजन करती हैं उधर कष्ट सहिष्णुता शान्ति का दृढ़ करती है। योग का लक्ष्य या पूर्ण शाँति है वह मिलना आरम्भ हो जाता है। इसलिए साधना को सिद्धि का तुरंत ही अनुभव मिलने से दृढ़ता उत्पन्न होती है और मनुष्य अन्त तक अपनी साधना पर दृढ़ रहता है।

ज्ञानी भक्त का लक्ष्य हमेशा आत्मोपलब्धि की ओर होता है क्योंकि आत्मा ही सब पदार्थों, सब शक्तियों का केन्द्र और सर्जक है इसलिए वह सर्वशक्तिमान बन जाता है। सर्वशक्तिमान बनकर भी उसमें दूसरों को हड़पने की वृत्ति नहीं आती क्योंकि वह समस्त संसार को अपने से भिन्न देख ही नहीं पाता। वह तो संसार के कण-कण में अपने को ही प्रतिबिम्बित देखता है, इतना ही नहीं सबके सब उसके अन्तर में भी समाये रहते हैं। इसलिए उसमें किसी को हड़पने की वृत्ति जन्म ही नहीं लेती। वह वासनाओं और इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इसलिए वह मुक्त पुरुष अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के साथ आत्मा के विराट-सम्पूर्ण विश्व के प्रति समर्पित कर देता है और अपने इस समर्पण द्वारा परम स्वार्थ की सिद्धि करता है। यही भक्तियोग की साधना का अंतिम लक्ष्य है। इसीलिए अन्य सभी योगों की अपेक्षा इस ज्ञान-भक्ति योग की प्रशंसा की गई है और इसे मानव के लिए कल्याणकारी माना गया है।


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