मृत्यु से डरने की कोई आवश्यकता नहीं।

March 1950

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ततोवैनिष्पत्ति स भुविमतिमान् पण्डितवरः। विजानन् गुह्यं जीवन मरण्योयंस्तुनिलिखम्॥ अन्नते संसारे विचराते भयासक्कि रहितः। तथा निर्माणं वै निजगति विधीनाँ प्रकुरुते॥ गायत्री गीता के उपरोक्त श्लोक में गायत्री मन्त्र के प्रथम पद ‘तत्’ की विवेचना करते हुए बताया है कि - “इस संसार में वही बुद्धिमान है जो जीवन और मरण के रहस्य को जानता है। भय एवं आसक्ति रहित होकर जीता है और उसी आधार पर अपनी गतिविधियों का निर्माण करता है।”

देखा जाता है कि लोग जीवन से बहुत अधिक प्यार करते हैं और मृत्यु से बहुत डरते हैं। फाँसीघर की कोठरियों में रहने वाले कैदियों और असाध्य रोगों के निराश रोगियों से मिलते रहने के हमें अनेक अवसर प्राप्त होते हैं, उनके अन्तस्तल की दशा की वेदना को समझ सकने के कारण हम यह जानते हैं कि लोग मृत्यु से कितना डरते हैं। कभी खतरे की संभावना सामने आवे, सिंह, व्याघ्र, सर्प, चोर, डाकू, भूत, अन्धकार आदि का भय सामने आने पर प्राण संकट अनुभव करके लोग थर थर काँपने लगते हैं। होश-हवाश उड़ जाते हैं, मृत्यु चाहे प्रत्यक्ष रूप से सामने न हो पर उसकी कल्पना मात्र से इतना भय मालूम होता है जो मृत्यु के वास्तविक कष्ट से किसी प्रकार कम नहीं होता।

प्राणों का भय सामने उपस्थित होने पर अधिकाँश लोक अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्व, धर्म, आचार, आत्म गौरव आदि को तिलाँजलि देने में नहीं झिझकते। हम ऐसे धर्म प्राण बनने वाले व्यक्तियों को जानते हैं जिन्होंने डॉक्टर द्वारा रोग को प्राण घातक बताने पर शरीर जाने के भय से माँस, अंडे, मछली का तेल, मद्य आदि का सेवन किया। हमने ऐसी घटना देखी है कि घर में अग्नि लगने पर अन्य साथियों की रक्षा की बात सोचे बिना केवल अपनी प्राण रक्षा के लिए समर्थ लोग भाग निकले और असहाय निर्बल बाल-वृद्ध उसमें जल गये। पिछले भारत विभाजन के समय धर्मोन्माद से उन्मुक्त लोगों द्वारा जो पैशाचिकताएं बरती गईं उनका सबको पता है। उन घटनाओं के जो लोग समीप रहे हैं उन्हें मालूम है कि अत्याचारियों के चंगुल में फंसने पर कितनों ने ही अपना आत्म गौरव, धर्म कर्तव्य, उत्तरदायित्व आदि को छोड़कर बड़े से बड़ा अत्याचार अपनी आँख से देखते हुए भी प्राण भिक्षा के लिए गिड़गिड़ाते हुए आत्मार्पण किया। प्राण संकट के समय लोग धर्म, कर्तव्य आदि की बात तो दूर रही अपने स्त्री बच्चों तक को दुर्दशायुक्त मृत्यु पाते देखते रहते हैं और अपने प्राण ले भागते हैं।

मृत्यु का भय साधारण भय नहीं है। अधिकतर कुपित, क्षुद्र हृदय व्यक्ति तो उससे भयभीत रहते ही हैं। पर वे लोग जो अपने को सिद्धान्तवादी, धीर, कर्तव्य परायण और धर्मप्रेमी समझते हैं परीक्षा का समय आने पर विचलित हो जाते हैं। जब एक ओर आदर्श दूसरी ओर प्राण संकट की तुलना हो रही हो तो विरले ही मनुष्य ऐसे निकलते हैं जो खरे उतरें। महात्मा ईसामसीह ईश्वर से प्रार्थना किया करते थे कि ‘हे प्रभु, हमें बुराइयों से बचा, पर परीक्षा में न डाल’ क्योंकि वे जानते थे कि मनुष्य बड़ा डरपोक है। उसे शरीर से इतना अधिक मोह है कि प्राण त्याग तो दूर थोड़ा सा शारीरिक कष्ट आर्थिक क्षति या इच्छा पूर्ति में प्रतिरोध दिखाई पड़ता हो तो भी वह विचलित हो जाता है।

जीवन का निर्माण इस प्रकार हुआ है कि निरन्तर खतरे उपस्थित होते रहते हैं। निर्माण और विनाश दोनों ही एक दूसरे से प्रगाढ़ रूप से संबद्ध है। बीज गले बिना वृक्ष नहीं होता और फल टूटे बिना बीज नहीं बनता। नया जीवन धारण तब होता है जब किसी की मृत्यु होती है, और मृत्यु तब होती है जब कोई जीवन नष्ट होता है। एक को धन तब मिलता है जब किसी हाथ से वह धन निकलता है। जब समुद्र सूखता है तब बादल बनते हैं और जब बादल गलते हैं तो समुद्र भरता है। एक की हानि ही दूसरे का लाभ है। इस प्रकार के ज्वार भाटे ही जीवन सौंदर्य के प्रतीक हैं। रात्रि और दिन की भांति, सुख दुख का, हानि लाभ का भी जोड़ा है। जैसे सुख, शान्ति, लाभ, भोग, ऐश्वर्य प्राप्ति के अवसर आते रहते हैं वैसे ही कर्म मार्गों के अनुसार एवं परिस्थितियों के अनुसार रोग, हानि, संकट, क्लेश और मृत्यु के अवसर आना भी स्वाभाविक है। किन्तु देखा जाता है कि लोग सुखकर अवसरों का तो प्रसन्नतापूर्वक उपभोग कर लेते हैं पर जब दुख का अवसर आता है तो तरह रोते, चिल्लाते, डरते, काँपते, भयभीत रहते हैं।

विनाशात्मक परिस्थितियाँ हर एक के जीवन मैं आती रहती हैं क्योंकि वे आवश्यक, स्वाभाविक दृष्टिक्रम के अनुकूल एवं अनिवार्य हैं। परन्तु लोग उनसे बुरी तरह डरते हैं। विपत्ति आने पर तो डरते ही हैं पर अनेक बार विपत्ति की आशंका, संभावना, कल्पना मात्र से भयभीत होते रहते हैं और इस प्रकार जीवन का अधिकाँश भाग भय-चिन्ता, आशंका, घबराहट और दुख में व्यतीत होता है। यहाँ पर यह आश्चर्य होता है कि विनाश जब जीवन का एक स्वाभाविक व अनिवार्य अंग है तो लोग उससे इस प्रकार डरते क्यों हैं कि धनी और निर्धन, सम्पन्न और असम्पन्न सभी का जीवन असंतोष, अतृप्ति, खिन्नता, हीनता, निराशा आदि से भरा रहता है। पूर्ण दुखी मनुष्य ढूंढ़ निकालना आज असंभव नहीं है, साध्य अवश्य है।

विघटनात्मक, विनाशात्मक स्थितियों से डरने घबराने का कारण मनुष्य की एक आध्यात्मिक भूल है। वह भूल यह है कि-वह शरीर को ही ‘मैं’ मान बैठता है, अपने आपको शरीर समझने के फलस्वरूप, आत्मलाभ, आत्माचन्द, आत्मरक्षा, आत्मपरायणता, आत्मप्रतिष्ठा जैसी वृत्तियां दूसरे ही रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। उनका स्वरूप शरीर लाभ, शारीरिक आनन्द, शरीर रक्षा, शरीर परायणता, शरीर प्रतिष्ठा बन जाता है। चूँकि आत्मलाभ अन्तःकरण का ईश्वर प्रदत्त गुण है, इस ओर जीव की स्वाभाविक रुचि होती है, इसी में उसे आनन्द आता है और इसमें विक्षेप पड़ने से दुख होता है। संत, महात्मा, ब्रह्मवेत्ता ऋषि, मुनि, सज्जन, लोकसेवक, सत्पुरुष इसी मार्ग पर चलते हैं और जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हुए सदा आनन्द निमग्न रहते हैं। परन्तु जब आत्म लाभ की परिभाषा शरीर शाम हो जाती है, जब आत्म रक्षा का तात्पर्य शरीर रक्षा समझा जाता है तो बड़ी अज्ञान संभव परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसमें आज जनसाधारण अस्त हो रहा है।

स्वार्थ मनुष्य की सर्वप्रिय वस्तु है। ‘अपनापन’ सबको प्यारा है। संसार का जो भी पदार्थ प्रिय लगता है वह अपनेपन की भावना के कारण ही प्रिय लगता है। शत्रु की सुन्दर-सुन्दर चीजें भी आँखों में काँटे की तरह चुभती है। जब शरीर को ‘स्व’ मान लिया गया तो उसके नष्ट होने का भय आत्मनाश के समान लगना ही चाहिए, जब शरीर ही ‘स्व’ है तो शारीरिक इन्द्रियों के भोग विलासों को आत्मानन्द समझा ही जाना चाहिए। शरीर की सुन्दरता, आकर्षण, मोहकता, वैसी ही प्रिय मालूम होनी चाहिए, जैसी कि आत्मप्रतिष्ठा प्रिय होती है। आत्मानन्द के लिए बड़ी से बड़ी वस्तु का त्याग करना बड़े से बड़ा कष्ट सहना, आत्मपरायण पुरुषों के लिए शारीरिक साँसारिक, धन ऐश्वर्य द्वारा सुख पाने के लिए धर्म, कर्तव्य आदि का छोड़ देना और हत्या, डकैती और खतरे से भरे हुए दुस्साहसी कार्य कर डालना साधारण बात होती है। यदि कोई आदमी शरीर को ही “मैं” मानता है उससे ही “स्व” अनुभव करता है तो उसके लिए यह उचित ही है कि शरीर को सुखी करने वाली वस्तुओं और परिस्थितियों में सुखी रहे उनके लिए प्रयत्न करे और इस मार्ग में जो बाधा उपस्थित हों उसमें दुखी एवं भयभीत हो। इस स्थिति में मृत्यु और हानि का भय यदि बुरी तरह संत्रस्त बनाये रहे तो उसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

परमात्मा को सत् चित आनन्द, सच्चिदानन्द कहते हैं। उसका अंश आत्मा-स्वभावतः आनन्दमय है। उसमें आनन्द की कोई कमी नहीं, यह संसार परमात्मा की पुण्य कृति है। आनन्द रूप परमात्मा के हाथ से बना हुआ संसार आनन्दरहित नहीं हो सकता। जीवन का अर्थ है-जीव और प्रकृति के सम्मिलन की, आलिंगन की पुण्य बेला। इन क्षणों में आनन्दमय आत्मा और आनन्द कृति संसार के उभयपक्षीय आनन्दों का मिलन होने से अपार आनन्द उमड़ पड़नी चाहिए। स्त्री और पुरुष के समागम का आनन्द बड़ा आकर्षक है। आत्मा और प्रकृति के समन्वय का नाम ही जीवन है। जीवन इतना आनन्द मय, इतना आकर्षक, इतना उल्लासमय, इतना सरल है कि उसका आस्वादन करने के लिए जीव संसार में बार-बार आता है, बारबार जन्म लेता है। यदि ऐसी बात न होती, यदि वस्तुतः जीवन का मूल रूप दुख, भय, चिन्ता और क्लेशमय होता तो निश्चय ही परमात्मा का अमर युवराज आत्मा उसे ग्रहण करने को कदापि तैयार न होता।

आनन्द का रसास्वादन करने के लिए प्राप्त हुआ जीवन आज कितने कम लोगों के लिए आनंदमय रह गया है यह आश्चर्य की बात है। इसी प्रकार यह बात हैरत में डालने वाली है कि कितने अधिक लोग अपनी जिन्दगी के दिन असंतोष, भय, निराश और उदासीनता के साथ व्यतीत कर रहते हैं। यह भूल-भुलैया, यह माया-बन्धन, आत्मा के लिए कितना उलझन भरा है, कितना मर्मभेदी है, इस तथ्य को समझ कर हमारा शास्त्र हमें इस खतरे से आगाह कर देता है। गायत्री मन्त्र के प्रथम पद में ‘तत’ शब्द में इसी अन्धकारमय विभीषिका पर प्रकाश डाला है, इसी पर्दे को उठा कर सच्चाई के दर्शन कराये गये हैं। गायत्री गीता के अनुसार “तत” शब्द हमें बताता है कि जीवन और मरण के रहस्य को समझो, भय और आसक्तिरहित होकर जियो और वास्तविकता के सुदृढ़ आधार पर अपनी गतिविधियों का निर्माण करो।

-अपूर्ण


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