इष्ट आत्मद्योतन से शारीरिक रोग दूर होते हैं।

February 1946

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(डॉक्टर दुर्गाशंकर जी नागर सम्पादक ‘कल्पवृक्ष’)

आत्मद्योतन से शारीरिक रोगों को मिटाने के लिये पुराने विचारों को सर्व प्रथम बदलना चाहिये। लोगों की यह मान्यता है कि हवा के फेरफार से रोग मिटते हैं। वायु परिवर्तन मात्र से रोग नहीं मिटते, किन्तु अन्य स्थान के सम्बन्ध से विचारों के बदलने से रोग दूर होते हैं। रोगी के मन में यह भावना प्रकट होती है कि मैं शुद्ध वायु के स्थान में जा रहा हूँ जहाँ मुझे अवश्य लाभ होगा। इसे स्वैच्छिक आत्मद्योत कहते हैं। इच्छापूर्व, ज्ञानपूर्वक मन की जो बात सूचित की जाती है यह स्वैच्छिक आत्मद्योतन है।

स्थान परिवर्तन से नये विचार रोगी के मन में प्रथम प्रकट होते हैं। नवीन स्थान, नवीन दृश्य, नवीन लोक सभी नई-नई वस्तुएँ दृष्टिगोचर होती हैं। इन सब नई बातों के नये आभास की गहरी छाप उसके हृदय पर अंकित होती है और रोगी के मन में यह भावना उदय होने लगती है कि रोग अब शीघ्र ही दूर हो जायगा।

इस प्रकार विचारों के बदलने से रोगम्य स्थिति में परिवर्तन हो आता है, क्योंकि स्थल के परिवर्तन से मन पर नूतन संस्कार पड़ते हैं और ये संस्कार विचारों को बदलते हैं और विचारों के परिवर्तन से सारे शरीर में परिवर्तन हो जाता है। नये विचारों से पुराने विचारों से प्रकट हुई रोग की दुःखद स्थिति नष्ट हो जाती है और रोगी निरोग हो जाता है।

नवीन स्थान में रोग को दूर करने का कोई नया चमत्कारिक तत्व नहीं होता। वही जल, वही पृथ्वी, वही वातावरण, वही सूर्य प्रकाश और सभी कुदरती सामर्थ्य विद्यमान रहते हैं। यह अनुभव में आया है कि पहली बार जाने से वायु परिवर्तन के स्थान से जो लाभ होता है वह लाभ तीसरी या चौथी बार जाने से नहीं होता। चाहे आप रोगी को शिमला के शिखर पर या नीलगिरी को चोटी पर अत्यन्त शुद्ध वायु में ले जावें, उस पर एक रत्ती भर भी वहाँ की वायु का प्रभाव नहीं होता। किसी स्थान पर बार-बार जाने से वहाँ नवीनता का भास नहीं होता और विचारों में परिवर्तन नहीं होता।

स्थान परिवर्तन से बहुतों की व्याधि दूर हो जाती हैं। आनन्दप्रद सिनेमा या नाटक देखने से, सुन्दर गायन के सुनने से कई रोगियों के रोग दूर होते देखे गये हैं। उसका कारण यही है कि पुराने विचारों को बाहर निकाल देने से और उनके स्थान में नवीन आनन्द के विचारों को मन पर अंकित करने से शरीर में विलक्षण फेरफार हो जाता है।

विचारों को बदलने के दो तरीके हैं- (1) बाह्य विषय के संबंध से अन्तःकरण में नवीन संस्कार पड़ते हैं। (2) दूसरा अन्तर में स्वेच्छा से आत्मद्योतन से अन्तःकरण में आभास प्रकट करके गहरे संस्कार अंकित किये जाते हैं।

हजारों मनुष्यों के विचारों में पहली रीति से परिवर्तन होता है किन्तु वह स्थायी नहीं होता।

विचारों के बदलने की सच्ची कला तो स्वैच्छिक आत्मद्योतन से अन्तःकरण में सुदृढ़ आभास की रचना करना है। यही विचार बदलने का सच्चा और सरल उपाय है। और इसी से प्राप्त स्थिति में परिवर्तन होता है रोगी अपने विचारों को बदलकर पुनः आरोग्य प्राप्त करता है।

इस संसार में प्राणिमात्र रोगों से दुःख का अनुभव करते हैं, किसी न किसी रूप में रोग से दुःखी न हो ऐसा मनुष्य कठिनता से ही मिलेगा। रोग को दूर करने के लिये दवाओं का सेवन किया जाता है। अनुकूल आहार और शुद्ध वायु सेवन किया जाता है। उपरोक्त सब साधन अच्छे हैं और उपयोगी भी हैं। अभी तक ऐसे ही साधनों से सुश्रूषा की जाती थी, परन्तु वर्तमान में इस विषय के विशेषज्ञ डाक्टरों ने ऐसी नई खोज की हैं कि रोग मुक्त होने में और स्वास्थ्य प्राप्त करने में सब साधनों से बढ़कर मन की स्वस्थ शक्ति अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि मन का प्रभाव हमारे शरीर पर विशेष रूप से होता है जबकि दूसरे मनुष्य उनके विचारों से अपने को रोग मुक्त करें उसके बजाय हम स्वयं अपनी भावनाओं से रोगमुक्त हो जायें तो यह विशेष उत्तम और स्वावलंबन का मार्ग है। उपनिषद् इस भाव को दृढ़तापूर्वक बार-बार प्रकट करते हैं कि मनुष्य विचार की ही कृति है। मनुष्य जैसा विचार करता है वैसा ही वह हो जाता है। अभी हमको अपने विचार बल का मान नहीं है, नहीं तो रोगों से मुक्त होने में मनुष्य के स्वयं विचार और भावनायें दूसरे सब साधनों से विशेष महत्व रखते हैं। हमें चाहिये कि प्रतिकूल आत्मद्योतन से शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों पर जो भयंकर हानिकारक प्रभाव हुआ है उसे स्वैच्छिक आत्मद्योतन से दूर करके रोगों पर विजय प्राप्त करें।

रोगी मनुष्य को निम्न भावनाओं का दृढ़ता से मन्त्र के समान रात दिन चिंतन करना चाहिये। जहाँ तक कि रोग मिट न जाय वहाँ तक इस चिंतन को जारी रखना चाहिये। वह भावना रूपी मन्त्र स्वयं उसे रोग मुक्त कर सकता है परन्तु जहाँ तक इस भावना रूपी यन्त्र पर पूर्ण विश्वास प्रकट न हो वहाँ तक एक दूसरे प्रयोग करने में कोई हानि नहीं, परन्तु अन्य प्रयोग के साथ ही निम्न भावनाओं का चिंतन किये ही जाना चाहिये, जिससे कि विशेष सुगमता से रोगों को दूर किया जा सकता है और रोग द्रुतगति से मिटाये जा सकते हैं।

रोग दूर करने की उपयोगी भावनाएं-

मुझे श्रद्धा है कि ये मेरी भावनायें मेरे मन और शरीर पर असर किये बिना नहीं रह सकतीं। मुझे प्रतिदिन दोनों समय यानी मध्याह्न और सायंकाल को बराबर भूख लगेगी, उस समय मेरे अन्दर भूख लगेगी, उस समय मेरे अन्दर भूख की रुचि अवश्य प्रकट होगी और उस समय अच्छी तरह तीव्र भूख लगेगी और मैं बड़े उत्साह और आनन्द से भोजन करूंगा। मेरे शरीर के पोषण के लिये जितना आहार आवश्यक होगा उसे बड़ी रुचि के साथ ग्रहण करूंगा।

मैं अपने आहार को बड़ी शाँतिपूर्वक दाँतों से खूब चबा-चबा कर मुख रस से पाचक करके स्वाभाविक रूप से कंठ के नीचे उतरुंगा।

जठराग्नि से मैं अपने जठर में गई हुई खुराक को बराबर पचाऊँगा जिससे मेरे पाचक यंत्र को और आंतों को कोई प्रकार की बाधा नहीं पहुँच सकती।

मेरी खाई हुई खुराक के योग्य रस से शुद्ध रक्त तैयार होगा और यह रक्त रक्त वाहिनियों के योग्य संचालन से ज्ञान तन्तुओं में शक्ति और स्फूर्ति का संचार करेगा जिससे शरीर में सर्वत्र शक्ति, सुव्यवस्था, उत्साह और जीवनीशक्ति का प्रभाव अवश्य प्रकट होगा।

खुराक बराबर पच जायगी और मेरी पाचक यंत्र की सब आँतें योग्य रीति से अपना काम करेंगी, जिससे प्रातःकाल में उठते ही मुझे शौच क्रिया करनी पड़ेगी और इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं आ सकती।

प्रातःकाल उठते ही मेरे शरीर में स्फूर्ति, उत्साह, चैतन्य और नूतन बल का तेजस्वी संस्कार प्रतीत होगा जिससे मैं अपने कर्त्तव्य पालन में पूर्ण शक्ति का अनुभव कर सकूँगा।

मेरे शरीर के सब अवयव अपना कार्य योग्य रूप से कर रहे हैं। मेरी नाड़ियाँ और नसें बराबर सुचारु रूप से गति कर रही हैं। रक्त ठीक तरह से सब रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होकर शरीर का ठीक ठीक पोषण और रक्षण कर रहा है। मेरे फेफड़े अपना कार्य सुचारु रूप से कर रहे हैं। पेट, आँतड़िया, कलेजा, पित्ताशय, मूत्राशय आदि सब अवयव अपना अपना काम ठीक-ठीक रीति से कर रहे हैं। अगर कोई अवयव अपना कार्य अच्छी तरह नहीं करता हो तो मेरी इस भावना की प्रबल शक्ति से उसकी बाधा दिन प्रतिदिन दूर होती जायगी और थोड़े समय में यह बाधा सर्वथा दूर हो जायगी कि जिससे यह अवयव अपना काम यथार्थ रूप से करने लगेगा।

मुझ में मेरे स्वयं के बल के विषय में जो अश्रद्धा थी वह अब दूर होती जा रही है और उसकी जगह मुझे अपने बल में श्रद्धा प्राप्त होती जाती है। मुझे अपने आत्मबल से विश्वास पैदा होता जा रहा है, जिससे मेरी बुद्धि के अनुकूल सुरुचिपूर्ण उपयोगी कार्यों के लिये आवश्यकीय बल मुझमें अवश्य निश्चित रूप से प्रकट होगा।


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