भिन्न-भिन्न प्रकार के मानसिक रोग

February 1946

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सभ्यता ने हमें अनेकों अभिशाप प्रदान किए हैं। आज के उन्नत एवं अभ्युदय के युग में हजारों मनुष्य एक अथवा अनेक प्रकार के मानसिक रोगों से पीड़ित हैं। वे अपनी व्यथाएँ, मनो वेदनाएँ सुनाते नहीं थकते। एकान्त में कोने में पड़े-पड़े निःश्वास निकालते और हाथ-हाथ करते हुए दिनों को धक्के दे रहे हैं। हृदय में ऐसे-ऐसे रोग उत्पन्न हो गए हैं कि उनका मुखमंडल म्लान एवं चेहरा विकृत सा हो उठा है। पूजाघर, मंदिरों एवं एकान्त स्थानों में भी इन्हें शान्ति नहीं मिल रही है। बिना पतवार की नौका की तरह वे यत्र-तत्र, मन्तर-जन्तर की खोज में फिर रहे हैं। उफ, इनकी कैसी दयनीय स्थिति है।

वहम (हाइपोकोण्ड्रिआसिस)-

हमारे मनोजनित रोगों में वहम प्रधान है। मानव मन में सन्देह, शंका तथा अहित कल्पना की जो मूल प्रवृत्ति है, वह वहम की जननी है। वह मूढ़ता एवं अज्ञानाँधकार के फल स्वरूप उत्पन्न होता है। मनुष्य अपने विषय में तनिक भी बुराई नहीं सुन सकता। यदि कोई झूठ-मूठ कुछ अप्रिय या चिंतनीय बात कह दे तो उसे अंतर्मन तुरन्त स्वीकार कर लेता है और वह क्रमशः बढ़ता रहता है। अनपढ़, गंवार, अशिक्षित व्यक्तियों तथा विशेष रूप से पुराने विचार वाली स्त्रियों में बहुत वहम होता है। यह दुर्बल चित्त का क्षुद्र मनोविकार है। दुर्बल इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति शंकित होते हैं और अपने वहम के कारण नरक की यातनाएँ भुगतते हैं। ऐसे व्यक्ति कुतर्कवादी, संशयी, अविश्वासी, चिन्तित, निराशावादी, अतृप्त, असंतोषी चित्त के होते हैं।

उत्तेजना-(Excitement)

उत्तेजना से मन की प्रकम्पना तीव्र हो उठती है, नसों में यकायक तीव्रता आ जाती है। अन्तःकरण में अनावश्यक धुकपुक मच जाती हैं और किंचित काल के लिए हाथ पाँव फूल जाते हैं। कुछ समय के लिए सम्पूर्ण शरीर आन्दोलित हो जाता है। उत्तेजना का प्रभाव विशेषतः हृदय पर पड़ता है जिसके फल स्वरूप वह निज कार्य यथोचित रीति से नहीं कर पाता। श्वास फूल उठती है और छाती में शूल उत्पन्न होती है। उत्तेजना का मुख्य कारण मन में एकत्रित अनेक प्रकार के मिथ्या भय हैं। वे अनायास ही एकाएक विकृत होकर प्रकट हो जाते हैं और हम थोड़ी देर के लिए अस्त-व्यस्त हो उठते हैं। कपोल कल्पित दुःखों या कोई तीव्र रोमाँचकारी (Sensational) अनुभव, वृतान्त, कविता से मनोविकारों का विस्फोट होता है और मनुष्य को उत्तेजना होती है।

नैराश्य-(Malancholia)

दो, चार बार किसी कार्य में निष्फलता हो जाने से निराशा उत्पन्न होती है। अविश्वास उत्पन्न होता है तथा चारों ओर अंधकार ही अंधकार ही नजर आता है। नैराश्य एक प्रकार का भयंकर राक्षस है जो हमारे नाश की ताक में बैठा रहता है। ऐसा रोगी सदैव बुराई की ओर देखता तथा असफलता के ही वचन उच्चारण किया करता है। वह जीवन के अन्धकारमय एवं अप्रीतिकर पहलू को ही निहारता तथा अपने लिए अहित की, संकीर्णता की, असिद्धि की ही बात सोचता हैं। “उफ सब कुछ नाश हो गया, कुछ भी शेष नहीं रहा, अब जीवन किस काम का, अब तो मौत हमें उठा ले तो उत्तम है।” वह ऐसी बातें सोचता है और बिना बाल संवारे, मलीन वस्त्र पहिने टूटे-फूटे जूते धारण कर रोती सूरत बनाये नौकरी पर जाता है। नैराश्य मानव जीवन का घातक शत्रु है।

उद्वेग-

उद्वेग मन की अस्त-व्यस्त अवस्था है जो निष्फलता से उत्पन्न निराशा से जन्म लेता है। उद्वेग भय का मुख्य अंग है। इससे मन में बड़ी घबराहट उत्पन्न होती है। मानसिक उद्विग्नता के कारण अनेक व्यक्ति पागल हो जाते हैं। ज्ञान तन्तु की निर्बलता, निश्चय बल की क्षीणता, मनोविकारों का प्रतिकूल दिशा में वेग, रुग्णयकृत के कारण हृत्पिंड या अनहित चक्र में संकोचन-उद्वेग के मुख्य कारण हैं। उद्वेग से जीवन शक्ति का ह्रास होता है, बहुत से भय झूठ-मूठ दिखाया करता है और समस्त जीवन को नीरस बना देता है।

अति चिन्तित अवस्था (Anxiety state)-

अनहोनी, अनिष्ट, बुरी बातों की थोथी कल्पनाएँ दूसरों की बुरी हालत देखकर स्वयं अपने लिए भी वैसी ही स्थितियों को स्मृति पटल कर पुनः पुनः लाना, अपनी व्याधियों को कल्पित जगत में उद्दीप्त करके देखना, अनुचित बातों से कल्पना लोक में सामंजस्य स्थापित करना, चिंता के मुख्य कारण हैं। व्यर्थ की प्रतिकूलताओं से परेशान रहने से मन बड़ा क्षुब्ध, अशान्त रहता है। हमें संसार के समस्त व्यक्ति अपने शत्रु नजर आते हैं। हमारा मन डाँवाडोल, खोया-खोया सा, निर्जीव, शिथिल मालूम होता है। अन्तःकरण अन्धकार से आवृत्त हो जाता है। निःसार वस्तुओं के चिंतन में हम निष्प्रयोजन जीवन शक्ति का अपव्यय करते हैं। निराशा, चिंता तथा ऊल जलूल बातों से विकसित होकर क्षय रोग उत्पन्न होता है, रात दिन जो व्यक्ति दुःख, शोक, रोग की कल्पनाओं से आच्छादित रहते हैं, दुःखमय स्थिति का ही चिंतन किया करते हैं, वे भिन्न-भिन्न रोगों से ग्रस्त होकर जीवन अन्त करते हैं।

विभ्रम-

इस मानसिक व्याधि में मस्तिष्क के ज्ञानतन्तु इतने निर्बल हो जाते हैं कि जरा-जरा सी बातों पर मनुष्य शंका करने लगता है। जरा सी भी दुःख की चर्चा सुनी या समाचार पत्र में कोई प्रतिकूल खबर पढ़ी कि इनके अन्तःकरण पर काली छाया पड़ जाती है और सब प्रकार की प्रतिष्ठा, मान, धन, धान्य होने पर भी ये लोग बेचैन बने रहते हैं और क्षण-क्षण गहन विश्वास फेंकते रहते हैं। एक क्षण भी इनके जीवन में शान्ति, चैन, या स्थिरता नहीं रहती। इस रोग के रोगी दिन में सैंकड़ों बार हर्ष शोक का अनुभव करते हैं। सन्देह भ्रान्ति तथा अस्थिरता इनके मन में निरन्तर चला करते हैं। मुख मंडल पर व्यग्रता तथा क्षोभ के चिन्ह अंकित हो जाते हैं।

हिस्टिरिया-

हिस्टिरिया का मानसिक रोग प्रायः अतृप्त कामेच्छा से सम्बन्ध रखता है। अविवाहित स्त्रियाँ या निःसंतान वधुएँ इसकी शिकार बनती हैं। शारीरिक कमजोरी, अत्यधिक घबराहट, उत्तेजना, उद्वेग, आकस्मिक दुःख मस्तिष्क के संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देते हैं और अज्ञात चेतना की अतृप्त वासनाएं भयंकर विस्फोट कर देती हैं।

अन्यमनस्कता-

इस प्रकार की भ्रमित मानसिक स्थिति में रोगी, न उत्तेजित रहता है, न निरुत्साहित। वह बिल्कुल अन्यमनस्क रहता है। उसका मन शून्य मय हो जाता है। चेतना विचार, बुद्धि कुछ काल के निमित्त बिल्कुल स्थिर हो जाती है। जहाँ बैठा दो, वहीं निष्प्रभ, निश्चेष्ट बैठा रहेगा। न कुछ इच्छा प्रकट करेगा न अभिलाषा। उसकी मुख मुद्रा से यह स्पष्ट नहीं होता कि आखिर वह चाहता क्या है। यदि उससे कुछ पूछो तो वह सुनी अनसुनी कर देता है या बड़ा बेढंगा, अपूर्ण, अस्पष्ट, निरर्थक उत्तर देता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक न्यूनताएँ, मस्तिष्क के विभिन्न क्रिया-केन्द्रों की समुचित परिपक्वता न होने से यह व्याधि उत्पन्न होती है।

आत्मग्लानि-

“हमसे कोई महापाप हो गया, अब मोक्ष नहीं हो सकता, मैंने सर्वनाश कर लिया, इतनी भारी गलती करके मुझे जीवित नहीं रहना चाहिए”- ऐसे विचारों को लेकर रोगी बड़ा पछताता दुःखी होता है। कुछ दिन पूर्व हमारे पास एक ऐसा ही रोगिणी आई थी जिसे बीमारी में कुछ अपवित्र दवाइयाँ दी गई थीं। वह कहा करती थी “मैंने बकरे खाये हैं, उनकी हड्डियों को चबाया है, अक् थू अक् थू।” ऐसा कहकर वह थूकती और हलक में उँगली डालकर उल्टी करने का उपक्रम करती।

आत्म-हीनता (Inferiority)-

अनेक व्यक्ति इतने संकोची, लज्जाशील होते हैं कि महान अपराधी की तरह चुप्पी धारण किए रहते हैं और हमेशा नीची दृष्टि किए रहते हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ करता है कि संसार उनकी प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक हाव-भाव, कपड़े, जूते, टोपी सब कुछ घूर-घूर कर देख रहा है, जैसे पत्थर-पत्थर में हजारों नेत्र हों और सबकी सब उसे हड़प जाने को प्रस्तुत हों। आत्महीनता का प्रधान कारण भय है। रोगी के मानसिक संस्थान में उसका अंश अत्यन्त अधिक मात्रा में होता है। वह सब प्रकार की सभा समाजों, मनुष्यों की भीड़ से हटता है, हमेशा शर्मिंदा रहता है और अपने आपको दीन, हीन, दुर्बल, क्षुद्र, अपराधी मानता है। यह बड़ा अविश्वासी होता है। आत्महीनता के लक्षण ये हैं- आंखें नीची कर लेना, सकपका जाना, चेहरे पर सुर्खी दौड़ जाना, घबरा सा जाना, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाना, चुपचाप दूसरे की अनुचित बातें स्वीकार कर लेना, उदासीन गंभीरता धारण कर लेना। ऐसे रोगी को अपने छोटे-मोटे दोष अक्षम्य अपराध की तरह दीखने लगते हैं और कई बार दारुण मानसिक यातना भोग कर रोगी आत्महत्या तक कर लेता है।

कायरता-

एक प्रकार की कुत्सित मानसिक दुर्बलता है। ऐसा व्यक्ति प्रत्येक कार्य को संदिग्ध चित्त से सम्पन्न करता है। मनोवैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि कायरता जन्मजात दुर्गुण नहीं है। कायरता एक प्रकार की आदत है और क्रमशः धीरे-धीरे और आदतों के समान उत्पन्न होती है। अव्यक्त प्रदेश में अनेक वर्षों में संकलित अशुभ संस्कारों का परिणाम है। कायरता तथा निराशावाद साथ-साथ रहती हैं। कायर मनुष्य जरा-जरा सी बातों में दब कर नर्क की यन्त्रणाएँ भोगा करता है।

भय-

परमात्मा ने मनुष्य को वीर और साहसी बनाया था किन्तु संसार में अनेक मनोजनित शंकाओं ने उसे डरपोक बना डाला है। प्रत्येक असफलता और प्रायः सब दोषों के अन्त में किसी न किसी प्रकार का भय मिला रहता है। भय शंका का किला है। भय के कारण मस्तिष्क की कार्यवाहिनी शक्ति विकृत अथवा संकुचित हो जाती है इससे केन्द्रित मंडल में उत्तेजना होती है और चक्कर आना, अपचन, मस्तिष्क पीड़ा, अस्थिरता, उत्पन्न होती है। जरा-जरा सी प्रतिकूलता से वह उद्विग्न हो जाता है और उसके दिमाग में क्रोध, ईर्ष्या, चिंता, अशाँति, घबराहट, चंचलता, आशंका, अनिष्ट प्रस्फुटित हो जाते हैं।

सनक (श्वष्ष्द्गठ्ठह्लह्द्बष्द्बह्लब्)-

सिरड़ीपन, बोरहा पन अव्यक्त के अशुद्ध संस्कारों के परिणाम स्वरूप अस्थिर चित्तवालों में उत्पन्न होता है। यह शैशवावस्था की दबाई गई प्रवृत्तियाँ को प्रकाशन है। आरम्भिक दमन क्रिया से (Repression) अज्ञात चेतना में कुछ भावना ग्रन्थियाँ बनती हैं और ये सुप्त मनोवृत्तियाँ समय-समय पर उमड़ कर ऊपर जाग्रत चेतना की सतह पर पहुँचने की चेष्टा करती हैं। उन्हें गुप्तवेश धारण करना पड़ता है। सनक इन्हीं दलित भावनाओं का निदर्शन है। वास्तव में यह हमारी अज्ञात चेतना से उठे हुए मनोविकारों को समूह मात्र है।

कामातुरता (Sexual Obsession)-

कितने ही व्यक्तियों के मन में कामुकता के विकार बड़े तीव्र उठते हैं। वे क्षण भर में समस्त पवित्रता, ज्ञान, शिक्षा इत्यादि भूल जाते हैं और हृदय मलीन विचारों से आवृत्त हो जाता है। कामविकार एवं नैतिकता के भीतरी संघर्ष से मनुष्य छटपटाने लगता है। अन्तर्द्वन्द्व परोक्ष रूप में विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित होता है और दैनिक कार्यों में अनेक विकृतियां उत्पन्न होती हैं। अतृप्त कामवासना, प्रमाद नपुँसकता, वैराग्य की व्याधियाँ सृजन करती है। विकारमय अनिष्ट विचार मानसिक दुर्बलता की वृद्धि करते हैं। भद्दे मजाक, गालियाँ, गुप्ताँग का बारंबार स्पर्श करना, अश्लील व्यवहार, गंदी चेष्टाएँ, अति बनाव शृंगार, गाने गाना, स्वप्नदोष, बारबार मूत्र त्याग, मुंहासे, दुराचार, चित्त का अति चंचल रहना, क्षण-क्षण अपने विचारों का परिवर्तन करना, दिमाग में गर्मी छा जाना, नेत्रों में जलन, क्षण भर में रुष्ट एवं क्षणभर में प्रसन्न हो जाना, माथे, कमर तथा मेरुदंड में दर्द, दाँत के मसूड़े फूलना। शरीर से बदबू निकलना, कँपकँपी आना, हाथ पैर में सनसनी दौड़ जाना, अज्ञात चेतना में छुपी हुई अतृप्त अशान्त कुचली हुई वासनाओं से उत्पन्न होते हैं। पर छिद्रान्वेषण तथा (Projection) आरोप-

अनेक व्यक्ति पर दोषदर्शन, परनिंदा, बैर, ईर्ष्या की भट्टी में भस्मीभूत हुआ करते हैं। वे अपने मानसिक दोष दूसरों में परिलक्षित देखते हैं और उन दूसरों के कल्पित दोषों को अपनी कठिनता एवं असफलता का मूल कारण मानते हैं। यह स्वार्थ का नग्न स्वरूप है। इस मनोवृत्ति के कारण हम निरन्तर अपने दोष दूसरों पर आरोपित किया करते हैं अनेक व्यक्ति अकारण ही द्वेषी होते हैं यों ही संत-साधु-शास्त्र इत्यादि का विरोध किया करते हैं। ईश्वर का खंडन करने वाले, दम्भी, अभिमानी, पर निंदा परायण, अन्यायकारी व्यक्ति एक भयंकर मानसिक व्याधि के शिकार हैं, उन्हें चहुँ ओर दोष, न्यूनता, कमी ही दृष्टिगोचर होती हैं। यह मनोवृत्ति स्वार्थपूर्ण ईर्ष्या की सन्तान हैं तमोगुणी प्रधान व्यक्ति इससे परेशान रहते हैं।

विकृत मानसिक प्रवृत्ति (Obsessive neuroses)

यह मानसिक कष्ट मस्तिष्क के केन्द्रों में निर्बलता होने से उद्भूत होता है। रोगी का अंतर्जगत अत्यन्त आवेग मय होता है किन्तु वह क्षोभ में निरन्तर जला करता है। जरा-जरा सी बातों में शंका, दुःख, संदेह उसके मानसिक केन्द्रों को घोर अंधकाराच्छादित बना कर उसे परेशान रखते हैं। अज्ञानावस्था में ही उसके मिथ्या डर, शोक, पीड़ा उत्थित होकर उसे अशान्त और विक्षुब्ध रखते हैं। चेतना में किसी विरोधी शंका के प्रविष्ट होते ही वह कुढ़ने लगता है और अस्त-व्यस्त हो जाता है।

गुमसुम हो जाना (Apathy)-

भयंकर मानसिक आघात से यकायक मानसिक शून्यता उत्पन्न हो जाती है। रोगी का अन्तःकरण अकस्मात अंधकारमय हो जाता है। चेतना, बुद्धि, विवेक, तर्क, प्रेरणा अपने कार्य कुछ देर के लिए बन्द कर देती हैं और वह किंकर्तव्य विमूढ़ सा होकर न बोलता है, न क्रिया करता है, न उसे संसार में ही कुछ दीखता है। यद्यपि उसके नेत्र खुले रहते हैं किन्तु वह खोया-खोया सा प्रतीत होता है- जैसे उसके मस्तिष्क के सूक्ष्म केन्द्रों को लकवा मार गया हो। कभी-कभी ऐसे मानसिक आघातों से रोगी जीवन पर्यन्त शून्य मनस्क रह सकता है। इस विकृति में श्रवण, स्मरण एवं ग्रहण शक्ति का ह्रास हो जाता है।

मानसिक थकावट (Mental over-strain)-

अन्तर्द्वन्द्व, चिंता, उद्वेग, निरंतर एक ही प्रकार का मानसिक कार्य करते रहना। उसे बोझ समझ कर करते रहना, अस्त-व्यस्त मानसिक अवस्था में पढ़ना] लिखना, अधिक बोलना, एकान्त स्थान में लगातार बैठ कर पढ़ते रहने से मानसिक थकावट उत्पन्न होती है। सर में दर्द, मन में निष्क्रियता होने लगती है, किसी काम में जी नहीं लगता। रोगी जो कार्य हाथ में लेता है उसी से जी उचटता है। वह इधर-उधर निष्प्रभ सा घूमता है। उसे ऐसा अनुभव होता है जैसा पर्वतों का बोझ उसके मन पर हो। जीवन के वे क्षण उसे बोझ स्वरूप प्रतीत होते हैं। कई दिन तक वह विक्षुब्ध, उद्विग्न एवं चिंतित सा दिखाई देता है।

भयंकर स्वप्न-

स्वप्न हमारी हार्दिक इच्छाओं सूक्ष्म भावनाओं, अनुभूतियों, अतृप्त अपूर्ण मनोवांछाओं, यातनाओं, शारीरिक कष्टों का क्रियाशील अस्तित्व है। हमारी दलित वासनाओं से इसका चिरस्थायी, अटूट तथा शाश्वत सम्बन्ध है। यह एक ऐसा दर्पण है जिसके विश्लेषण द्वारा हमें मनुष्य के मानसिक कष्टों का परिचय हो सकता है। जब मानव, दानवीय यातनाओं, शारीरिक कष्टों और साँसारिक चिंताओं से आवृत रहता है तो उसे बड़े-बड़े भयंकर स्वप्न दीखते हैं, वह चिल्लाने की कोशिश करता है, घिग्घी बँध जाती है और उसे अत्यधिक मानसिक क्लेश होता है। दुश्चिंता, शारीरिक अपवित्रता, मद्य माँस, तामसिक भोजन, अतृप्त कामेच्छा, कल्पित भय, भूत प्रेतों का डर, तंग कपड़े, मानसिक दुर्बलता, रौद्र स्वप्नों के प्रधान कारण हैं।

प्रमाद (Insanity)-

इस रोग में रोगी का मानसिक संतुलन विकृत हो जाता है। पागल यह नहीं समझता कि वह रोगी है। उसे यह अनुभव तक नहीं होता कि उसके मानसिक क्षेत्र में कुछ परिवर्तन हुआ है। प्रमाद अधिकतर किसी भयंकर आघात (Shock) जैसे किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु, व्यापार में भारी हानि, अत्यधिक भय, बुरा व्यवहार, अतृप्त कामेच्छा, प्रेम में सन्देह, पति के द्वारा अत्याचार इत्यादि कारणों से होता है। अव्यक्त की क्रान्तिकारी वासनाएँ विद्रोही होकर अकस्मात विद्रोही बन जाती हैं।

निद्रित अवस्था में चलना फिरना (Somnambulism)-

रोगी निद्रावस्था में ही चलता फिरता, उठता बैठता, तथा अनेक आश्चर्यजनक कार्यों को सुचारु रूप से सम्पन्न करता है जिनके सम्बन्ध में कोई जानकारी उसे जाग्रत अवस्था में नहीं रहती। डा. मेचनिकाफ ने सैम्बुलिज्म के एक रोगी का वातान्त लिखा है-”जो एक बार किसी अज्ञात आशंका से भयभीत होकर पनाले के पाइप को पकड़ता हुआ एक बहुत ऊँचे मकान की छत पर चढ़ गया तथा एक मुंडेर पर से दूसरे पर बन्दरों की तरह कूदता हुआ दूसरे मकान की मुँडेर पर कूद गया। इसके अनन्तर जिस प्रकार ऊपर चढ़ा था, उसी प्रकार बन्दर की तरह बिना किसी खरोंच के नीचे उतर आया। न तनिक भी उसका पाँव फिसला, न किसी प्रकार की चोट आई। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सोम्नेम्बुलिज्म की अवस्था में उस व्यक्ति की अज्ञात चेतना में लाखों वर्षों से दबे हुए मनुष्य के वानर जातीय संस्कार जग पड़े थे।”

अनिद्रा या इन्सोमिनिया-

एडलर महाशय अनिद्रा को स्वयं तो रोग नहीं मानते किन्तु आने वाले किसी भयंकर मानसिक कष्ट की उपस्थिति का लक्षण मानते हैं। रोगी अत्यन्त चिंतित, विक्षुब्ध एवं परेशान रहता है और बिस्तर पर पड़े-पड़े निद्रा की प्रतीक्षा देखा करता है। प्रायः इन्सौमिनिया का रोगी अपने आन्तरिक क्लेश इतने बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करता है कि चिकित्सक को संदेह हो जाता है कि कहीं वह केवल बहाना तो नहीं कर रहा। अत्यधिक चिंता, भय, उलझनें, कर्त्तव्य की जिम्मेदारी, आत्म सम्मान की रक्षा, मन पर अपनी प्रभुता जमाना, आत्म हीनता की भावना ग्रन्थि, कमरे का दूषित वातावरण, उदर में गड़बड़ी, किसी अंग में चोट, आँख दुखना, बुखार आना आदि सब कारण अनिद्रा की मानसिक व्याधि उत्पन्न करते हैं।


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