मनोजनित रोगों की उत्पत्ति एवं विकास

February 1946

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मनोजनित रोगों का प्रारम्भ-

आदि काल का आदिम पुरुष देश, काल, समाज आदि के सभ्य बन्धनों से सर्वथा उन्मुक्त था। सभ्यता के नाना प्रकार के मिथ्याडम्बर, सभ्यता के वज्र जैसे कठोर नियम, लोक निन्दा का भय, अनेक प्रकार के प्रचलित सम्प्रदायों की सारहीन उलझनें, उचित अनुचित का सीमाबन्धन या विवेक नियन्त्रण न होने के कारण उसकी भीतरी रागात्मिका प्रवृत्तियों, मनोविकारों, इच्छाओं, का बाह्य सृष्टि के साथ पूर्ण रूप से सामंजस्य (Harmony) था। वासनाओं, मनोवृत्तियों, मनोविकारों की परितृप्ति का खुला अवसर प्राप्त होता था। कोई उंगली उठाने, टीका टिप्पणी करने या बुरा भला कहने वाला न था। प्रेम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, हास उत्साह, भय, करुणा आदि मनोवेगों (Emotions) का प्रवाह अबाध था। उसमें विवेक, सत्-असत् तथा नैतिकता के उत्कृष्ट विचारों का स्फुरण नहीं हुआ था। विशुद्ध सुख की अनुभूति पर हाथ पांवों के संचालन द्वारा, रो पीट कर, चिल्ला कर मन के घाव पर मरहम लेपन कर लिया जाता था। दंड का भय, लोकनिंदा का डर, नियंत्रण न होने के कारण निर्द्वन्द्व मनोवृत्तियाँ खुले रूप से व्यंजित होती थीं। जिस युग में मानव सभ्य नहीं हो पाया था, लाखों वर्ष पूर्व के उस उच्छृंखल युग में पाशविक मनोवृत्तियाँ उसके जीवन की प्रत्येक गतिविधि को संचालित करती रहती थीं।

विकास के स्वाभाविक नियमों के अनुसार क्रम से मानव ने सभ्यता को अपनाया। समाज ने अपने नियम बनाये। रूढ़ियां, उचित-अनुचित का ज्ञान, यश-अपयश का विवेक, सामाजिक क्रिया प्रतिक्रिया, आघात-प्रतिघात, वैयक्तिक ऊहापोह क्रमशः विकसित होते गए। सामाजिक प्रतिक्रियाओं से अहंकार जागृत हुआ, आत्म गौरव, सौभाग्य, दुर्भाग्य, विवेक बुद्धि का नियन्त्रण, अनेक प्रकार के मर्श-विमर्श, नैतिकता के संयत विचारों का उन्मेष हुआ।

मानसिक व्याधियों का विकास-

यहीं से समस्त झगड़ों की जड़ प्रारम्भ होती हैं। यश-अपयश, सामाजिक टीका टिप्पणी के विचार से हम आदिम पाशविक निद्वन्द्व मनोवृत्तियों, कुत्सित वासनाओं को छिपाने लगे। हमारा अहंकार विवेक द्वारा संचालित होने लगा। नैतिक बुद्धि ने दुर्वासनाओं के ऊपर नियंत्रण प्रारंभ किया। यह नहीं, यह हो, यह अच्छा यह बुरा, यह उचित यह अनुचित। यह कुरूप, यह रूपवान, यह उत्तम, यह निकृष्ट इन दो परस्पर विरोधी अनुभूतियों का असामंजस्य प्रारम्भ हुआ। शुभ-अशुभ को निर्णय करने वाली विवेक बुद्धि ने अनुभूतियों के मार्ग निर्धारण का कार्य अदूरदर्शी सरकार की तरह, निर्दयतापूर्वक प्रारम्भ किया। मानसिक जगत में भयंकर हाहाकार का कोलाहल मच गया। बेचारी कितनी ही इच्छाओं, मनोवृत्तियों, भावनाओं, कल्पनाओं, को निर्दयता पूर्वक कुचल डाला (Suppress) गया वासनाएँ प्रताड़ित होकर बड़ी अशान्त, अतृप्त, अस्थिर रहने लगीं। उन्होंने इस कठोर नियंत्रण के विपक्ष में क्रान्तिकारियों का कार्य प्रारम्भ किया। यदि दूरदर्शी सरकार की भाँति विवेक बुद्धि नियंत्रण का कार्य कम करती, या धीरे-धीरे करती तो अन्तःकरण की विभिन्न मनोवृत्तियों में इतनी क्रान्ति, इतनी अस्त व्यस्तता, इतना हाहाकार, इतनी अशान्ति उत्पन्न न होती है। एक दम नियंत्रण कर देने से संघर्ष (Conflict) उगता रहा। विपक्षी मनोवृत्तियों को विरोध का पर्याप्त अवकाश मिलता रहा।

निर्दयता पूर्वक दमन (Repression)के फलस्वरूप वासनाओं में संकट उत्पन्न होता है एवं व्यक्ति विच्छेद प्रारम्भ हो जाता है। अब विवेक बुद्धि के तीव्र राज्य में ये क्रान्तिकारी अतृप्त, असंतुष्ट, अशान्त वासनाएँ कहाँ जाए? हमारे मन का कोई भी संस्कार निश्चेष्ट नहीं होता। जीवन का प्रत्येक अनुभव कहीं न कहीं अवश्य रहेगा चाहे वह प्रिय हो अथवा अप्रिय। वस्तुतः ये क्रान्तिकारी मनोवृत्तियाँ कहीं न कहीं त्राण पाने की चेष्टा करती हैं और अज्ञात चेतना के (n-conscious) अतल गह्वर में जा छिपती हैं।

विवेक बुद्धि का नियंत्रण-

मनुष्य की अज्ञात चेतना का (n-conscious) अतल क्षेत्र इतना व्यापक, गहन एवं अगाध है कि हमारी अनेक टूटी फूटी इच्छाएँ, प्रसुप्त वासनाएँ, अतृप्त वृत्तियाँ, कुचली हुई हसरतें, मनर्द्वन्द्व मनोवृत्तियाँ पाशविक मनोभावनाएँ सामूहिक रूप से इसी अज्ञात क्षेत्र में क्रान्तिकारियों के दल (Rebels) के समान छुपी रहती हैं। ये कभी न मरती हैं, न लुप्त होती हैं, प्रत्युत जब तक विवेक बुद्धि का प्रभुत्व अधिक होता है, नैतिकता सतर्कता से कार्य करती है, तब तक ये अतृप्त वासनाएँ कुछ काल के लिए अज्ञात चेतना के गहन गह्वर में चुपचाप बैठी रहती हैं।

जैसे एक शक्तिशाली सम्राट के राज्य में उसके आतंक से प्रतिद्वन्द्वी दब जाते हैं, छुपे-छुपे षडयंत्र किया करते हैं, कुछ उपद्रव नहीं करते, किन्तु उसका नियंत्रण, आतंक, भय हट जाने से पुनः विरोध करते हैं, उसी प्रकार विवेक बुद्धि के सतर्क रहने तक तो ये अतृप्त वासनाएँ कुछ नहीं बोलती, चुपचाप पड़ी रहती हैं किन्तु उसके प्रभुत्व के क्षीण होते ही ये प्रसुप्त चित्र वृत्तियाँ एक दम शक्तिशालिनी हो उठती हैं और हमारी जाग्रत चेतना से भयंकर संघर्ष करती हैं। ऐसे अवसरों पर हम कहा करते हैं कि मानव का दानव जागृत हो उठा है।

आधुनिक मनोविश्लेषण के प्रधान आचार्य डॉक्टर जिंगमुँड फ्रायड ने दलित वासनाओं की तुलना ग्रीक टिटान जाति के उन दैत्यों से की है जिनके निरंतर उपद्रव से आक्रान्त होकर देवताओं ने उन्हें तातार की खाड़ी में फेंक दिया था। तत्पश्चात् उनके ऊपर इतने बड़े-बड़े पत्थर की शिलाएँ डाली गई थी कि पुनः न उठ सकें। डा. फ्रायड की प्रसुप्त मनोवृत्तियों का मिलान हम वेदान्त के कारण शरीर से भी कर सकते हैं। कारण शरीर सब वैयक्तिक भावनाओं का मूल स्रोत है अर्थात् सब व्यक्त भावनाएँ बीज रूप से स्मरण शरीर में निहित रहती हैं। वह हमारे शरीर का अव्यक्त रूप है।

शैशव की दलित अनुभूतियाँ-

जन्म से लेकर बचपन तक हमें संसार में अनेक शूलमयि कटुताओं का सामना करता होता है। हमारे माता-पिता, बड़े भाई-बहिन, समाज, अध्यापक, राज्य के नियम हमारी निद्वन्द्व मनोवृत्तियों की पूर्ति में बाधा उपस्थित करते हैं। अतः हम विस्मृत करने की आकाँक्षा से उन दुःखद अनुभूतियों को अपनी ज्ञात चेतना के विशाल पाषाण पर्वतों में दबा देते हैं। लगातार यह दमन क्रिया चलती रहती है। हमारी जाग्रत चेतना निरन्तर हमारी अभद्र इच्छाओं, वासनाओं, अतृप्त वृत्तियों को दबाती (Repress) चलती हैं। कालान्तर में, इस दमन क्रिया के फल स्वरूप, चेतना जगत के अज्ञात प्रदेश में अव्यक्त या प्रसुप्त वासनाओं का महान राज्य स्थापित हो जाता है। हम इस जगत का हाल कुछ भी नहीं जानते। हमें यह ज्ञान नहीं रहता कि हमारे अंदर कौन-कौन वृत्तियाँ शैशवावस्था से दबायी गई हैं और वे किस प्रकार हमारे परवर्ती जीवन का पथ निर्धारित करती हैं। इस रहस्यमय गुप्तलोक में क्या-क्या सृष्टि हो रही है, किस प्रकार हमारी आयुवृद्धि के साथ-साथ इसकी परिधि तथा गहराई बढ़ रही है, इसका प्रायः हमें कुछ भी विवेक नहीं रहता।

सामूहिक अज्ञात चेतना-

जुँग (छ्वह्वठ्ठद्द) साहब का मत है कि मानव के व्यक्तिगत जीवन में जिस अज्ञात प्रदेश की सृष्टि होती है, वही सब कुछ नहीं है। अज्ञात चेतना केवल उसी की विनिर्मित नहीं है। जुँग महोदय के मतानुसार प्रत्येक मानव शिशु अपने साथ एक सामूहिक अज्ञात चेतना लेकर पृथ्वी पर आया है। यह सामूहिक अज्ञात चेतना (ष्टशद्यद्यद्गष्ह्लद्बक्द्ग ठ्ठष्शठ्ठह्यष्द्बशह्वह्य) हजारों लाखों वर्ष पहले से मानव मन में बनती चली आ रही है। वंशानुक्रम से मनुष्य की सामूहिक अज्ञात चेतना “भाव स्थिर” होकर प्रस्तुत रहती है।

अज्ञात चेतना में दबी हुई वासनाओं से ही मानसिक व्याधियाँ उद्भूत होती हैं। अव्यक्त प्रदेश की कुचली हुई वृत्तियाँ प्रत्यक्ष रूप से तो जीवन पर्यन्त दबी रहती हैं पर परोक्ष रूप से विभिन्न रूपों में फूटती रहती हैं। ये मस्तिष्क में चुपचाप चली आती हैं और नाना प्रकार के विकारों की सृष्टि करती हैं।

उद्दाम वासनाओं का स्वप्न में प्रकाशन-

अव्यक्त प्रदेश की प्रसुप्त वासनाएँ विवेक बुद्धि के भय से दिन में तो प्रकट हो नहीं सकती, किन्तु रात्रि में सोते समय जब जाग्रत चेतना निर्बल पड़ जाती हैं, तो मस्तिष्क में चुपचाप रेंगती हुई प्रविष्ट हो जाती हैं। ये क्रान्तिकारी वासनाएँ स्वप्न में भयंकर ताँडव करती हैं और हमें ऐसे अजीब-अजीब कौतूहल वर्द्धक स्वप्न दिखाई देते हैं जिनका अर्थ भी हम नहीं समझ पाते (स्वप्न-विज्ञान पर प्रोफेसर महेन्द्र जी की प्रसिद्ध पुस्तक “हमें स्वप्न क्यों दीखते हैं?” पढ़िये। ज्यों-ज्यों ये निर्द्वन्द्व वासनाएँ परितृप्ति का मार्ग ग्रहण करती हैं, त्यों-त्यों इन्हें एक निर्धारित मार्ग का अवलम्बन करना पड़ता है। इस विशिष्ट मार्ग का द्वारपाल “अहंकार” है। अहंकार को विवेक बुद्धि (जाग्रत चेतना) के आधीन रहना पड़ता है। वस्तुतः ये क्रान्तिकारी वासनाएं (स्नशष्ह्वह्य शद्ध ह्लद्धद्ग द्वद्बठ्ठस्र) चेतना में रेंग कर चली तो आती हैं किन्तु डरती रहती हैं। इस प्रकार स्वप्न में भी संघर्ष चला करता है। स्वप्न में देश काल विवेक बुद्धि परिस्थिति की मर्यादा का उल्लंघन कर ये वासनाएं किंचित काल के लिए शान्त होना चाहती हैं। “स्वप्नदोष”, सौम्रेम्बुलिज्म (अर्थात् निद्रित अवस्था में चलना फिरना) इत्यादि रोग इसी प्रकार उत्पन्न होते हैं।

मानसिक व्याधि क्या हैं?

जाग्रत एवं अज्ञात चेतना का द्वन्द्व-युद्ध रोग अथवा व्याधि कहलाता है। दुःखद अनुभूतियों का परोक्षरूप में भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकाशित होना ही व्याधि है। अन्तर्द्वन्द्व के फल स्वरूप ही पागलपन, भ्रम, सनकीपन, मूर्खता, अपेक्षाकृत बेढंगे अनोखे, अनुचित और असंगत व्यवहार, निराशा, चिंता अन्यमनस्कता विचारों की विकृति, सठिया जाना, शून्यमनस्कता, आत्महीनता, जैसी प्रतिक्रियाएँ उद्भूत होती हैं। साधारणतः भद्दा मजाक, गालियाँ, अश्लील व्यवहार, विचित्र चेष्टाएँ, मानसिक एवं शारीरिक रोगों की सृष्टि परोक्ष रूप में फूटती हुई दुःखद अनुभूतियों के फलस्वरूप होती हैं। उन्माद, लकवा, प्रमाद, कोढ़, चर्मरोग, दिल की धड़कन, शूल, हिस्टीरिया, मधुमेह, बदहजमी, मृगी आदि सब मानसिक व्याधियाँ अव्यक्त की प्रसुप्त वासनाओं की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। छोटे-मोटे अनेक रोग केवल मानसिक व्यथाओं के अन्तर्द्वन्द्व के परिणाम स्वरूप शरीर में प्रकट होते हैं।

व्यक्त एवं अव्यक्त के असामंजस्य का प्रतीक ही अन्तर्द्वन्द्व है। जाग्रत एवं अज्ञान चेतना के वैमत्य का नाम ही आधि-व्याधि है। जिस अनुपात में अव्यक्त की उद्भूत वासनाएँ दबाई जायगी, उसी अनुपात में व्याधियाँ द्विगणित होंगी। इसी अनुपात में हम सुखी या दुःखी रहेंगे, प्रफुल्ल अथवा चिंतित रहेंगे। जितनी ही इनकी परितृप्ति होगी, तदनुसार ही मानसिक व्यथाएँ न्यून होती जायगी। उसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं जिसमें पूर्ण मतैक्य, पूर्ण समस्वरता (Harmony) तथा पूर्ण परितृप्ति रहे। जिस स्थिति में हमारी अज्ञात चेतना को प्रकाशित होने के लिए गुप्त वेश धारण करने पड़ते हैं, वही रोग ग्रस्त स्थिति है। हमारी मानसिक व्याधियाँ अज्ञात चेतना से उद्भूत कुचली हुई दुःखद अनुभूतियाँ की ही प्रतिरूप है। उनकी शक्ति रूपांतर होकर व्याधियों के विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित है। फलतः समस्त जीवन पर अज्ञात एवं अप्रत्यक्ष रूप से उनका प्रभाव पड़ता रहता है। यह उद्भूत वासनाएँ विकारों में प्रकट होकर मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए विषमय सिद्ध होती हैं।

कभी-कभी रुद्ध वासनाएँ इतनी उग्र रूप धारण करती हैं कि मानसिक स्थल पूरा का पूरा अव्यवस्थित एवं अनियमित हो जाता है। मानसिक नियन्त्रण यकायक टूट जाता है और हम पागल हो जाते हैं। हमारे विचारों और मनोभावों में अनेक विकृतियाँ आ जाती हैं और हम अनेक विवेक शून्य व्यवहारों में प्रविष्ट होते हैं।


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