मानवता के पथिक से

February 1946

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(लेखक- डा. रामाधार द्विवेदी नौगढ़ चकिया)

मानव पग धर तू फूँक-फूँक।

तू चलता देख सामने पथ में कितने फूल सुहाते हैं।

पुष्पों के प्रेक्षण से भी पहले देखो कितने काँटे हैं॥

यदि नहीं बच सका काँटों से तो यह है तेरी एक चूक।

मानव पग धर तू फूँक-फूँक॥

पहचानो, तेरा मार्ग कौन तू किधर भटकता जाता है।

अध्वाम्र-मंजरी पर भ्रमरों को लख चंचल हो जाता है॥

उस उच्छृंखलता के कारण तुझ में उठती है एक हूक।

मानव पग धर तू फूँक-फूँक॥

दिनकर-कर-शर से व्याकुल जब ही जावे पथ श्रम से अधीर।

तब स्फूर्ति जगाना, श्रम खोना, तू केवल पीकर शुद्ध नीर॥

मतवाली मदिरा की प्याली जो मिले उसे कर टूक-टूक।

मानव पग धर तू फूँक-फूँक॥

तेरा पथ दुर्गम यह निश्चय यदि काँटे गढ़ते हों पग में।

तो ढूँढ़न ‘यह किसने रखे?’ हंसता आगे बढ़ जा मग में॥

विद्वेषक के अन्वेषण में तू मत बन जाना रे उलूक।

मानव पग धर तू फूँक-फूँक॥

अंकित कर ऐसे चरण-चिह्न जिन पर श्रद्धा के फूल चढ़ें।

उन पद चिह्नों को देख-देख शत-शत पथिकों के पैर बढ़ें॥

‘था सफल पथिक!’ तेरी समाधि पर कूके कोकिल कूक-कूक॥

मानव पग धर तू फूँक-फूँक॥

*समाप्त*


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: