लीलामयी अन्तश्चेतना के चमत्कार

February 1946

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हमारे कौतूहल वर्द्धक कार्यों का मूल स्रोत-

जीवन में अनेक बार हम ऐसे कौतूहल वर्धक, अजीब कार्य कर देते हैं जिसका कोई स्पष्ट उद्देश्य हमारे मन में वर्तमान नहीं होता। हमें अनेक बार आश्चर्य होता है कि हम जो कुछ कहना चाहते हैं, उससे कुछ भिन्न ही कार्य विस्मय विमूढ़ हो, कर डालते हैं। हमें इष्ट कुछ और है और इच्छा न रहने पर भी प्रत्यक्ष रूप से हम कुछ पृथक ही कार्य कर रहे हैं। अनैच्छिक एवं निरपेक्ष दृष्टि से सम्पादित इन परस्पर विरोधी कार्यों का भेद हमारी बुद्धि स्पष्ट नहीं कर पाती।

अनेक व्यक्ति सोचा करते हैं कि अन्य व्यक्ति उनके विषय में क्या सोचते होंगे? वे हमारे वस्त्र, रहन-सहन, आचार-विचार कार्यों का बारीकी से निरीक्षण करते हैं। कुछ व्यक्ति प्रत्येक की शिकायत करने में जीवन का चरम लक्ष्य समझते हैं और दिन-रात पर छिद्रान्वेषण में लिप्त रहते हैं। हजारों आत्म-ज्ञानी वर्षों से शान्ति एवं वैराग्य का पाठ पढ़ते आ रहे हैं, फिर भी मानसिक समस्वरता उनसे कोसों दूर है। अनेक आदमी धन धान्य पूर्ण होते हुए भी गमगीन प्रतीत होते हैं, मुखमुद्रा निस्तेज रोनी शकल लिए भयंकर पीड़ा से ग्रस्त मालूम होते हैं। अनेक व्यक्ति इच्छाओं के क्षोभ एवं अप्रत्यक्ष व्यग्रता से वृद्धावस्था के चिन्ह प्रकट कर रहे हैं।

कुछ समय हुआ मोर्गन महाशय के पास एक रोगी आया। वह अत्यन्त भयभीत शोक युक्त तथा उद्विग्न था। जब उससे कारण पूछा तो वह कहने लगा, “मेरे पाँव सुन्न, संज्ञाहीन होते जा रहे हैं, लकवा असर कर रहा है।” फिर उसने पूर्व वृतान्त का वर्णन करते हुए निर्देश किया कि दो वर्ष हुए एक ज्योतिषी ने कहा था कि तुमको लकवा होगा। किन्तु कब वह होने को होगा यह क्रमशः तुम्हें स्वयं ज्ञात हो जायगा। तब से एक अज्ञात भय, एक अप्रत्यक्ष संशय उसके मन में प्रविष्ट हो गया और उस अज्ञात भय की ही यह सब प्रतिक्रिया थी। दुष्ट मनुष्य दूसरों को इसी प्रकार ठगते हैं और हमारी अनेक अयोग्य शंकाओं को जागृत कर देते हैं। हमारा मन अशिक्षित होने के कारण अंधकार मय होता है अतः हम ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं।

एक महाशय ने डा. दुर्गाशंकर जी नागर को लिखा था- “मेरा मन हर समय एक अज्ञात भय से विक्षुब्ध रहता है। प्रत्येक घड़ी यह विचार बना रहता है कि मैं मर न जाऊँ। शरीर में कोई रोग नहीं मालूम होता, फिर भी हिम्मत और साहस में दीमक सी लगी हुई प्रतीत होती है। हर मनुष्य की बात मन में गहरी बैठ जाती है। बुरे विचार का तत्काल प्रभाव हो जाता है, चिंता, शोक, हीनता का तूफान अर्न्तजगत में उठता है। बड़े-बड़े अनुभवी महात्माओं के पास रहा हूँ, वर्षों उनकी सेवा की है, हजारों पाठ गीता के किए हैं किन्तु आज कोई सहायक नहीं हो रहा है। चेहरे पर कालापन तथा झुर्रियाँ पड़ती जा रही हैं। मुझे भय है कि कहीं मैं पागल न हो जाऊँ।” -इस प्रकार हजारों मनुष्य किसी न किसी भाँति के जाल में ऐसे फँसे हुए रहते हैं कि उसी में उनकी जीवन लीला समाप्त होती है।

अज्ञात चेतना में क्या क्या है?

मनुष्य की अज्ञात चेतना (Sub conscious) में इन सब वहमों, हास्यास्पद कार्यों, परस्पर विरोधी कर्मों, अनैच्छिक बातों, अद्भुत चेष्टाओं, अकारण उत्थित वेदनाओं, विस्मय विमूढ़ अप्राकृतिक कल्पनाओं की जड़ें प्रस्तुत रहती हैं। जिस प्रकार कमल का पुष्प जल के ऊपर तैरता है किन्तु उसकी जड़ तालाब के पेंदे में लगी रहती है। उसी प्रकार शरीर के समस्त विकारों, अद्भुत चेष्टाओं की जड़ें मनुष्य की इस रहस्यमयी अज्ञात चेतना में अंकित रहती है। यह चेतना जाग्रत चेतना से अधिक सजग, संचेत एवं जागरुक है। तुच्छ से तुच्छ, हल्की से हल्की, छोटी से छोटी अनुभूति का सूक्ष्मातिसूक्ष्म आभास यहाँ अंकित मिलता है। दिन-रात के चौबीसों घंटे अन्तश्चेतना का व्यापार अखंड रूप से निर्विघ्न चलता रहता है। यह साधारण तथा असाधारण घटनाओं को समान रूप से नोट करती चलती है। किसी भी कार्य को माफ नहीं करती, न दया ही दिखाती है। जाग्रत चेतना से अज्ञात चेतना का दीर्घ राज्य है। इसका अनन्त क्षेत्र इतना व्यापक, गहन, एवं अगाध है कि इसके अन्दर देवत्व तथा दानत्व के समस्त मनोभाव समान रूप से अवगुँठित हैं। यह दुर्वाद, अपवाद, निंदा दुरभिसंधि, प्रवर्चना, धूर्तता, ठगी, स्वार्थ के लिए भी उतनी ही जागरुक है जितनी दया, प्रेम, करुणा के निर्मित। अनुकूलता-प्रतिकूलता, दुःखमयी शैशवावस्था की अनुभूतियाँ, वासनाओं का दमन (Repression) गुप्त रूप से अन्तस्तल के इसी गहन स्तर में निहित रहते हैं। हमारी आकस्मिक एवं अद्भुत स्फूर्ति का कारण वास्तव में यही कौतुकमयी अन्तश्चेतना है। एक महात्मा ने अन्तश्चेतना का प्रतिपादन करते हुए कहा है-

केनापि देतेन हृदिस्थितन,

यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।

-”मेरे हृदय के भीतर किसी अज्ञात देवशक्ति का वास है, वह मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।”

अन्तश्चेतना में अनेक ऐसी जड़ें वर्तमान हैं जिनके परिणाम स्वरूप बाह्यजगत में मनुष्य सनकीपन, विवेकशून्य कार्य, अकारण चेष्टाएँ, असंगत बातचीत एवं व्यवहार के ढंग अनेक प्रकार की बहानेबाजी किया करता है। सामाजिक जीवन में अन्तश्चेतना अनेक महत्व की प्रतिक्रियाएँ प्रस्तुत करती है।


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