यज्ञ द्वारा रोग निवारण

August 1944

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(ले.-श्री डॉक्टर फुन्दनलाल एम. डी.)

जब हम अपने प्राचीन साहित्य के पृष्ठ उलटते हैं, तो अपने पूर्वजों के लम्बे-चौड़े नीरोग शरीरों और सैंकड़ों वर्ष की आयु का उल्लेख पाते हैं। वे न डाक्टरी पास करने विलायत जाते थे न करोड़ों रुपये की विलायती औषधियाँ मंगाते थे, न युवा पुरुषों की आँख पर चश्मा था, न 99 प्रतिशत पायरिया और मन्दाग्नि (Dyspepsia) आदि के रोगी थे। ऐसी दशा में हमें यही कहना पड़ता है कि हमारे रोगी होने का सब से बड़ा कारण अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति, आचार-विचार, रहन-सहन और नित्य कर्म की अवहेलना करना और पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना है। हमारी प्राचीन संस्कृति में नित्य कर्म पर बड़ा बल दिया गया है, यहाँ तक बताया गया है कि संध्या हवन न करने वाला पापी है। नित्य कर्म से जो आध्यात्मिक लाभ हैं, वह तो वर्णनातीत हैं। पर स्वास्थ्य विषयक लाभ भी इतना होता है कि इनको नियम पूर्वक करने वाला सदाचारी कभी किसी कठिन रोग में नहीं फँस सकता। अन्य यज्ञों को छोड़ केवल हवन यज्ञ की ही वैज्ञानिक परीक्षा हमें इसी परिणाम पर पहुँचाती है। यही कारण था कि हमारे प्राचीन वैद्य जिनको रोगियों से धन प्राप्त करने की इच्छा नहीं थी उन गृहस्थों को जो अपनी स्वस्थ अवस्था में भेंट-पूजा के साथ वैद्य की सेवा में उपस्थिति होते थे, वैदिक दिनचर्या का जिसमें हवन यज्ञ भी था उपदेश किया करते थे और गृहस्थ लोग नित्य प्रति प्रातः सायं यज्ञ करके जहाँ संसार के रोगों का नाश करते थे, दूसरे के उपकार के विचार से उत्तम से उत्तम पदार्थ घृत मोहन भोग इत्यादि हवन में डाल अपने भीतर परोपकार की वृत्ति को जाग्रत कर जगत् में शान्ति फैलाते थे, वहाँ वैज्ञानिक नियमों के आधार पर स्वयं भी स्वास्थ्य लाभ करते थे। वैज्ञानिक ढंग पर हवन यज्ञ कैसे लाभ पहुँचाता हैं वह यहाँ संक्षेप में बताते हैं।

1. पदार्थ विद्या का यह सिद्धान्त है कि किसी वस्तु का नाश नहीं होता, किन्तु उसका रूप बदल जाता है। हवन में चार प्रकार के पदार्थ डाले जाते हैं।

(क) पुष्टिकारक (ख) रोग नाशक (ग) सुगन्धित (घ) मिष्ट। हवन करते समय दूर बैठे मनुष्य की नासिका में भी सुगन्धि पहुँचती है, इससे पदार्थ विद्या के उपरोक्त सिद्धान्त की सचाई प्रकट होती है और ज्ञात होता है, कि उन वस्तुओं के परमाणु वायु में फैल गए। यह परमाणु जब श्वास द्वारा हमारी नासिका में जावेंगे तो रोग नाशक औषधियों के होने से रोग का नाश करेंगे। मिष्ट और पुष्टिकारक औषधियों के परमाणु पुष्टि देवेंगे और सुगन्धित औषधियों के चित्त को प्रसन्न करेंगे और जब नित्य प्रति प्रात सायं ऐसा होता रहेगा तो हम कभी भी रोगी न हो सकेंगे। यह थोड़ी बात नहीं है।

2. आग जलाने से रोग कीटाणुओं का नाश होता और वायु की शुद्धि होती है इस सिद्धान्त को हमारे पूर्वज तो प्राचीन काल से जानते थे। प्रसूति गृह में सर्वदा आग बनाए रखना रसोई घर में बैठकर भोजन करना आदि रिवाज इसका प्रमाण है। परन्तु अब थोड़े काल से इस साइंस को आधुनिक विद्वान् भी समझने लगे हैं, प्रोफेसर मैक्समूलर साहब की पुस्तक ‘फिजिकल रिलीजन’ के पाठ से विदित होता है कि यवन देश के तत्ववेत्ता ल्पूयकी ने आग को वायु शोधक माना है और इस पर उक्त प्रोफेसर साहब लिखते हैं कि आग जलाने की रीति गत शताब्दी तक स्काटलैण्ड में पाई जाती थी, तथा आयरलैंड और दक्षिणी अमेरिका में महामरी के अग्नि जलाने की प्रथा प्रचलित रह चुकी है। युरोपादि में जितने प्रकार आजकल वायु शुद्धि के प्रचलित हैं उन में प्रायः “फायरसटौब” (अंगीठियाँ) का उपयोग किया जाता है अतः दूषित वायु उष्ण होकर फैले और हलकी होकर गृह की खिड़की अथवा भिन्न मार्गों से दूर निकल जावे और उसकी जगह तात्कालिक ठंडी वायु नीचे के द्वारों से आ सकेगी। साधारण अग्नि जलाने के तो इतने लाभ हैं। अब हवन में जो औषधियाँ लगाई गई हैं, वे रोग नाशक भी हैं। अतः उन से सैकड़ों ऐसे रोगों का बीज उनके उत्पन्न होने से पूर्व ही नष्ट हो जावेगा जो यदि प्रकट हो जाते तो कष्ट के साथ साथ हजारों रुपये डाक्टरों की भेंट कराते और कभी कभी तो उनका परिणाम मृत्यु होता। इस प्रकार हवन यज्ञ रोग नाशक और आयुवर्धक भी है।

3. रक्त की अशुद्धि अनेक रोगों का कारण है। रक्त शुद्धि के लिए रोग अनेक उपाय करते हैं। डॉक्टर लोग कड़वी औषधि पिलाते हैं, स्वादिष्ट भोजन छुड़वा देते हैं। इंजेक्शन करते हैं। फिर भी रक्त शुद्ध नहीं होता तो फस्द खुलवाते हैं। इतना करने पर भी रक्त दोष के रोग दिन प्रतिदिन बढ़ ही रहे हैं, हवन में डाली हुई सोमलता चिरायता इत्यादि के सूक्ष्म परमाणु प्रातः सायं श्वास द्वारा फुस्फसों में पहुँच कर रक्त के दोषों को नित्य ही दूर करते रहते हैं; जिससे हवन करने वाले का रक्त सर्वदा शुद्ध रहता है और वह कभी भी रक्त दोष के रोग में नहीं फंस सकता और यदि कभी किसी बड़े अपथ्य से रक्त दोष हो ही जावे तो बिना औषधि के केवल हवन से शुद्ध हो जाता है।

4. तपेदिक इत्यादि जब कोई कठिन रोग हो जाता है जिसमें औषधि भी काम नहीं देती तो डॉक्टर लोग रोगी को पहाड़ व समुद्र पर जाने का परामर्श देते हैं, इस कारण कि वहाँ की वायु में न केवल शुद्ध औषजन है किन्तु उससे भी उत्तम भाग (Ozone) ओजोन होता है जो बड़ी उपयोगी गैस है और एक प्रकार की तीव्र ऑक्सीजन है। निर्मल वायु में यह बहुत अधिक पाई जाती है और अशुद्ध वायु में बहुत कम। ओजोन की पहचान उसकी गन्ध है, जो बहुत तीव्र होती है। यहाँ तक कि यदि वायु के पच्चीस लाख भाग हों और उसमें ओज़ोन केवल एक भाग हो तब भी उसकी विद्यमानता प्रकट हो सकती है। जंगल, वाटिका अथवा समुद्र की खुली हवा में श्वाँस लेने से जो आनन्द प्रतीत होता है, यह उसी की विद्यमानता का फल है, अंग्रेजी भाषा में जिसे ओजोन कहते हैं, उसी को हम अपनी भाषा में शुद्ध प्राणप्रद अथवा सुगन्धित वायु कह सकते हैं, हवन करने पर वही आनन्द और उससे अधिक सुगन्धि प्रत्यक्ष प्रतीत होती है। अतः हवन करने वाला नित्य प्रति कुछ देर उस वायु में श्वास लेता है जो ओजोन का भंडार हैं। फिर ऐसे व्यक्ति को तपेदिक इत्यादि भयानक रोग सता ही नहीं सकते और जो इन रोगों में फँस चुके हैं वह भी कुछ अन्य साधनों के साथ हवन यज्ञ करने से नीरोग हो सकते हैं।

5. यह सब जानते हैं कि पुष्ट शरीर न केवल रोगों से सुरक्षित रहता है, प्रत्युत जीवन के सारे आनन्द पुष्ट शरीर वाला मनुष्य ही भोगता है। हवन में जो पुष्टिकारक पदार्थ डाले जाते हैं, उनके सूक्ष्म परमाणु शरीर में पहुँच उसे पुष्ट बनाते हैं। पुष्टिकारक पदार्थों का खाना भी बल देता है। अतः इन्हें अवश्य खाना चाहिए पर उससे अधिक उपयोगी इनका हवन में जलाना है। जलाने में दो गुण विशेष हैं; प्रथम यह कि खाने में सम्भव है आप पुष्टिकारक पदार्थ अपनी शक्ति से अधिक खाकर लाभ के स्थान में हानि उठावे। पर हवन में यह खटका नहीं क्योंकि इसके परमाणु सीधे रक्त में पहुँचते हैं और पाचन शक्ति पर कोई बोझ नहीं डालते। तब ही तो पुत्रेष्टि यज्ञ में जब खाने के पदार्थों से वीर्य पुष्ट नहीं होता और अधिक खाने से पाचन शक्ति बिगड़ती है, उस समय हवन यज्ञ में डाले पुष्ट पदार्थों के सूक्ष्म परमाणु सीधे रक्त में पहुँच कर वीर्य पुष्ट करते हैं।

दूसरे औषधि को घोटने से उसकी भीतरी प्राण शक्ति उभर आती है। अतः ऐसी थोड़ी चीज बिना घुटी बहुत चीज़ की अपेक्षा अधिक बल देती है। आप 10 बादाम नित्य प्रति एक मास तक खावें फिर एक मास 4 बादाम पत्थर पर घिस कर पीवें। आप स्वयं अनुभव करेंगे कि आप में पूर्व की अपेक्षा अधिक बल आ रहा है। अब सोचिये हवन में जो पदार्थ डाले जाते हैं वह अग्नि द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म हो जाते हैं। अतः थोड़ा पदार्थ भी अधिक बल देता है। इससे हवन यज्ञ की उपयोगिता और महत्ता और भी बढ़ जाती है। सज्जनों? संसार में रोगों के बढ़ते हुए वेग को रोकने तथा स्वार्थ की प्रवृत्ति को हटा परोपकार की वृति जगाने का एक मार्ग साधन हवन यह है जिसे प्रत्येक स्त्री-पुरुष को नित्य प्रति करना चाहिए।


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